तुलसीदास के 20 दोहे अर्थ सहित {173-192}

तुलसीदास के 20 दोहे अर्थ सहित  20 couplets of Tulsidas with meaning

नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥173

"नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥" इस दोहे में गोस्वामी तुलसीदास जी ने नारदजी की महिमा और भगवान के नाम की महत्ता को बताया है।
"नारद जानेउ" यहाँ पर नारदजी का उल्लेख है, जो कि भगवान के भक्त हैं और उन्होंने भगवान के नाम की महिमा को जाना है।
"नाम प्रतापू" इसमें नाम की महिमा का जिक्र है, जिससे भक्ति में अनंत शक्ति होती है।
"जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू।" यहाँ पर हरि के नाम की महिमा बताई गई है, जो कि जगत के लिए प्रिय हैं और जो हर किसी को प्रिय हैं।
इस दोहे में तुलसीदास जी ने भगवान के नाम की महिमा और भक्ति की महत्ता को बताया है। यहाँ पर नाम जपने से भगवान के प्रसाद को प्राप्ति होती है और भक्तों में उनका मान स्थापित होता है।

ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥ 174

यह दोहा भगवान के भक्त ध्रुव के जप और भगवान के नाम की महिमा को व्यक्त करता है।
"ध्रुवं सगलानि जपेउ हरि नाऊँ।" यहाँ पर ध्रुव के जप की बात है, जिसमें वह भगवान के नाम का जाप करते हैं।
"पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥" इस पंक्ति में उन्होंने भगवान के नाम के जप से अचल और अनूपम स्थान की प्राप्ति कर ली है, जो कि स्थिर और अतुलनीय होता है।
"सुमिरि पवनसुत पावन नामू।" इसमें भक्त वहाँ भगवान हनुमान को स्मरण कर रहे हैं, जो कि पवित्र और नामोंं में श्रेष्ठ हैं।
"अपने बस करि राखे रामू॥" यहाँ पर ध्रुव भगवान राम को अपने वश में करके रखते हैं, जिससे कि उनका मार्ग स्थिर रहे और उन्हें उसकी कृपा मिलती रहे।
यह दोहा भगवान के नाम के जप की महिमा और उसके ध्यान से कैसे व्यक्ति उनकी कृपा को प्राप्त कर सकता है, यह बताता है।
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥175

यह दोहे गोस्वामी तुलसीदास जी के द्वारा रचित "रामचरितमानस" से लिए गए हैं। इन दोहों में भगवान के नाम की महिमा को बताया गया है।
"अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥" इस पंक्ति में यह कहा गया है कि भगवान के नाम की शक्ति इतनी महान है कि यह अपतु, अजामिल, गज और गनिका जैसे पापी लोगों को भी मुक्ति दिला सकती है। भगवान के नाम का जाप करने से व्यक्ति नाम की प्रभा में रमता है और उसे मुक्ति की प्राप्ति होती है।
"कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥" इस पंक्ति में यह कहा गया है कि नाम की महिमा का वर्णन करने में कहाँ और कैसे सीमा लगाई जा सकती है। भगवान राम के नाम की गुणगान और महिमा का वर्णन करना संभव नहीं है। उनके नाम के गुण गान की सीमा अतीत में है और उसे व्यक्त करना मानव शब्दों से अत्यन्त कठिन है।
यहाँ पर इन दोहों में भगवान के नाम की अनन्त महिमा और उसकी अद्भुतता को व्यक्त किया गया है।

दो0-नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥176

यह चौपाई गोस्वामी तुलसीदास जी के द्वारा रचित "रामचरितमानस" में से है। यहाँ पर तुलसीदास जी ने भगवान राम के नाम की महिमा को बताया है।
"नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।" इस पंक्ति में कहा गया है कि भगवान राम का नाम कलियुग में एक कल्पवृक्ष की तरह है जो कल्याण (मंगल) का निवास है। राम के नाम का जाप करने से व्यक्ति को आनंद, शांति और मानवीय सुधार मिलता है।
"जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥" इस चौपाई में कहा गया है कि जो व्यक्ति भगवान राम का नाम सुमिरत होकर भय से मुक्त हो गया, उसी को तुलसीदास जी ने तुलसी (मानवीय और आध्यात्मिक सुधार का प्रतीक) कहा है।
इस चौपाई में भगवान राम के नाम की महिमा को बताया गया है और उसके नाम के जाप से व्यक्ति को मोक्ष और सुख की प्राप्ति होती है।

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥
बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥177

यह दोहा गोस्वामी तुलसीदास जी के रचित "रामचरितमानस" से लिए गए हैं। यहाँ पर नाम जाप की महिमा को बताया गया है।
"चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥" इस पंक्ति में कहा गया है कि चार युगों में और तीनों लोकों में जीवनी के भय से मुक्ति प्राप्त करने का एकमात्र मार्ग नाम जाप है। भगवान के नाम के जप से जीव अपने भयों से मुक्त हो जाते हैं।
"बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥" इस पंक्ति में यह कहा गया है कि वेद, पुराण और संतों का भी यही मत है कि भगवान के नाम के प्रेम से ही सब अच्छाई का फल मिलता है। भगवान राम के प्रेम से ही सभी सुख का अनुभव होता है।
यहाँ पर नाम जाप की महत्ता को और भगवान के नाम के प्रेम का महत्त्व बताया गया है, जिससे जीवन में सुख और शांति की प्राप्ति होती है।

ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥
कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन जन मीना॥178

यह चौपाई गोस्वामी तुलसीदास जी के द्वारा रचित "रामचरितमानस" से हैं। इसमें चार युगों के ध्यान में भगवान की पूजा की महिमा और कलियुग के लोगों की स्थिति का वर्णन किया गया है।
"ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥" इस पंक्ति में कहा गया है कि पहले युगों में मनुष्य ध्यान और तपस्या में लगे रहते थे और भगवान की पूजा करते थे। दूसरे युग में (द्वापर युग) लोग भगवान की पूजा में तृप्त होते थे और उन्हें प्रसन्न करने के लिए यज्ञ आदि किया करते थे।
"कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन जन मीना॥" इस पंक्ति में कहा गया है कि कलियुग में सभी मनुष्यों का मानवता से ही मेल खाता जा रहा है, जैसे मीना (मछली) जल के मल से गंदा होता है, ठीक उसी तरह से कलियुग में लोगों का मन और कर्म पापों से भरा हुआ है।
यहाँ पर चार युगों में मानवता के स्तर का वर्णन किया गया है और कलियुग में मानव समाज की दशा को मलीन और पापमय बताया गया है।

नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥
राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥179

यह दोहे गोस्वामी तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इनमें भगवान के नाम की महिमा और उसके महत्त्व का वर्णन किया गया है।
"नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥" इस पंक्ति में कहा गया है कि भगवान के नाम का जप करने से समस्त जगत् भी जल जाता है, जैसे कोई भयंकर अग्नि के समक्ष कामधेनु का प्रतीक्षा करता है। भगवान के नाम की शक्ति से सब कुछ दह जाता है।
"राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥" इस पंक्ति में कहा गया है कि कलियुग में भगवान राम का नाम विशेष रूप से प्रभावशाली है, और वह सभी को उत्तम लाभ प्रदान करता है। भगवान के नाम की स्मरणात्मक साधना से परलोक और इस लोक का भी हित होता है, भगवान व्यक्ति के प्रिय पिता-माता हैं।
यहाँ पर भगवान के नाम की अत्यंत शक्तिशाली महिमा और उसका उत्तम फल बताया गया है।

नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥180

यह दोहे गोस्वामी तुलसीदास जी के रचित "रामचरितमानस" से हैं। इनमें कलियुग की स्थिति और भगवान के नाम के महत्त्व का वर्णन किया गया है।
"नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥" इस पंक्ति में कहा गया है कि कलियुग में कर्म और भक्ति का विवेक नहीं होता, लेकिन भगवान के नाम का ही सहारा लिया जाना चाहिए। भगवान के नाम में ही शरण लेना चाहिए।
"कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समर्थ हनुमानू॥" इस पंक्ति में कहा गया है कि कलियुग में समय का कपट है और उसमें भ्रष्टाचार है, लेकिन हनुमानजी नाम के जाप में ही शक्तिशाली हैं और सुमति (बुद्धि) को प्राप्त करने में समर्थ हैं।
यहाँ पर कलियुग की दशा का वर्णन करते हुए भगवान के नाम के महत्त्व को बताया गया है। भगवान के नाम में ही लोगों को समर्थ होना चाहिए।

दो0-राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥181

यह चौपाई गोस्वामी तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इस चौपाई में भगवान राम के नाम की महिमा का वर्णन किया गया है।
"राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल। जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥"
इस चौपाई में कहा गया है कि कलियुग में भगवान राम के नाम का जाप करने से भी नरक के समान भयानक कलयुग भी स्वर्ग समान हो जाता है। जैसे प्रह्लाद जैसे भगवान के भक्त उस दल को पालते हैं, उसी तरह राम नाम के जापक भी समस्त संसार को सुरसा बना देते हैं।
यहाँ पर भगवान राम के नाम के जाप की महिमा को व्यक्त किया गया है, जिससे कलियुग के भयानक परिस्थितियों में भी नाम जापकों को सुरक्षा और शांति प्राप्त होती है।

भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥182

यह दोहे गोस्वामी तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इनमें भगवान के नाम के जाप की महिमा और उसके महत्त्व का वर्णन किया गया है।
"भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥" इस पंक्ति में कहा गया है कि जो भी भय, अशुभता और आलस्य हो, वह सब नाम जाप करने से मंगलमय बन जाता है। भगवान के नाम का जाप सब प्रकार की अशुभता को दूर कर देता है।
"सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥" इस पंक्ति में यह कहा गया है कि मैं भगवान राम के नाम का स्मरण करता हूँ, उनके गुणों की गाथा करता हूँ और उनके चरणों में शीश झुकाता हूँ।
यहाँ पर भगवान के नाम के जाप की महत्ता और उसके महत्त्व को बताया गया है, जो कि सभी भयों और अशुभताओं को दूर करके मंगलकारी होता है।

मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि दैखि दयानिधि पोसो॥183

यह दोहे गोस्वामी तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इनमें भक्ति, समर्पण, और भगवान के अनुग्रह की महिमा का वर्णन किया गया है।
"मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥" इस पंक्ति में कहा गया है कि मेरे सुधारने का केवल वही तरीका है, जिसकी दया मुझ पर हो। किसी की कृपा अनिवार्य रूप से दूसरे पर प्रभाव नहीं डालती है।
"राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि दैखि दयानिधि पोसो॥" इस पंक्ति में कहा गया है कि हे राम! आप मेरे स्वामी हैं और मैं आपका नीच सेवक। कृपालु दयानिधि भगवान, कृपा करके मुझ पर अपनी दया बरसाइए।

लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
गनी गरीब ग्रामनर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥184

यह दोहे गोस्वामी तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इनमें सच्ची भक्ति और समर्पण ही असली प्रेम को प्राप्त कराते हैं।
"लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥" इस पंक्ति में कहा गया है कि जो व्यक्ति संसार में वेदों का ज्ञानी होता है, उसका स्वागत लोग करते हैं, लेकिन जो व्यक्ति बिनय और समर्पण से भक्ति करता है, उसे ही असली प्रेम मिलता है।
"गनी गरीब ग्रामनर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥" इस पंक्ति में यह कहा गया है कि जो गणितज्ञ, गरीब, ग्रामीण, और नगरवासी हैं, वे सच्चे ज्ञानी होते हैं। पंडित जो अज्ञानी, मूढ़, और मलीन होते हैं, उनकी ज्ञान की दीप्ति नहीं होती है।
यहाँ पर भक्ति, समर्पण, और भगवान के अनुग्रह की महिमा को व्यक्त किया गया है और यह बताया गया है कि सच्ची भक्ति और समर्पण ही असली प्रेम को प्राप्त कराते हैं।

सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥
साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥185
सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥186

यह दोहे गोस्वामी तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इनमें भक्ति, सच्चे ज्ञानी और भगवान के भक्तों की महिमा का वर्णन किया गया है।
"सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥" इस पंक्ति में कहा गया है कि सच्चे ज्ञानी व्यक्ति अपनी बुद्धि के अनुसार चलते हैं, जो न किसी नृप (राजा) की प्रशंसा करते हैं और न ही किसी नर या नारी की।
"साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥" इस पंक्ति में कहा गया है कि साधु, सुज्ञानी, सज्जन और श्रेष्ठ नृप (राजा) होता है, क्योंकि वह भगवान की कृपा और उसके आंश होता है।
"सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥" इस पंक्ति में कहा गया है कि जो सभी लोग सम्मान और प्रशंसा करते हैं, वह वास्तव में भक्ति, समर्पण, और मार्ग को समझता है।
"यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥" इस पंक्ति में कहा गया है कि यह भूपति (राजा) बड़ा सुन्दर और प्रिय है, जो कोसला के सर्वोच्च मार्ग को जानते हैं।
यहाँ पर सच्चे ज्ञानी, साधु, और भगवान के भक्तों की महिमा को बताया गया है और उन्हें भगवान की कृपा का अंश बताया गया है।

रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें॥187
दो0-सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥188
हौहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।

यह दोहे गोस्वामी तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इनमें भक्ति, सेवा, और भगवान के प्रति प्रेम की महिमा का वर्णन किया गया है।
"रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें॥" इस पंक्ति में कहा गया है कि जो भक्त भगवान के प्रति प्रेम की श्रद्धा रखता है, वही सच्चा ज्ञानी होता है, जबकि इस संसार में जो मन्दमति और मलिनमति वाले हैं, वे सच्चे ज्ञानी नहीं होते।
"सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु। उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥" इस पंक्ति में कहा गया है कि भगवान कृपालु हैं और वे सच्चे सेवक की सेवा, प्रेम, और रुचि को स्वीकार करते हैं, जैसे जलजान (कमल के पत्ते) नीर की चाहत रखते हैं और सचिव सुमति (हनुमान) और कपि भालु (जंगल के वानर) जैसे होते हैं।
"हौहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।" इस पंक्ति में कहा गया है कि लोग जो कुछ भी कहते हैं, सभी का कहना है कि भगवान राम सबका साथ देते हैं और उनके साथ मजाक भी होता है।
यहाँ पर भक्ति, सेवा, और भगवान के प्रति प्रेम की महिमा को बताया गया है। भक्ति और सेवा के माध्यम से ही भगवान के कृपालु होने की महिमा को समझा जा सकता है।

साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥189

यह दोहा गोस्वामी तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से है। इस दोहे में तुलसीदास जी ने भगवान श्रीराम को "सीतानाथ" और अपने आपको उनके सेवक के रूप में समर्पित करते हुए उनकी भक्ति का व्यक्त किया है। यह दोहा भक्ति और समर्पण के भाव को प्रकट करता है और तुलसीदास जी की भावना को दर्शाता है जो भगवान श्रीराम के प्रति उनकी सेवा और भक्ति में समर्पित थे।

अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥190

यह दोहे गोस्वामी तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इनमें भक्ति और भगवान की भक्ति में समर्पितता के भाव को व्यक्त किया गया है।
"अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥" इस पंक्ति में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि मेरी दृष्टि अत्यंत धोखेबाज़ है, जैसे कि मैंने अपराधियों की बातों को सुनकर नरक की सुगंध चढ़ती है।
"समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥" इस पंक्ति में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि मैंने अपने आपको समझते हुए भी अपनी बुराई को नहीं समझ पा रहा हूँ, जैसे कि राम जी की सच्ची ज्ञान को मैंने नहीं समझा है।
सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥191

"सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥" इस पंक्ति में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि मैंने बातों को सुनकर, उन्हें ध्यान से देखकर और समझकर भगवान की भक्ति को अपनी बुद्धि में स्वीकार किया है।
"कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥" इस पंक्ति में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि जो व्यक्ति भगवान को अपनी रीझत (अनुशासन) समझकर मानता है, उसका हृदय नीका हो जाता है, और वह व्यक्ति जन-जन के लिए आदरणीय होता है।
यहाँ पर तुलसीदास जी ने अपनी अपनी अज्ञानता को समझाते हुए भक्ति और सच्चे ध्यान की महत्ता को बताया है।

रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥
जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली॥192

यह दोहे गोस्वामी तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसमें भक्ति और श्रद्धा के महत्त्व का वर्णन किया गया है।
"रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥" इस पंक्ति में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि हमारा मन भगवान की ओर ध्यान नहीं करता है, बल्कि बार-बार उसी चीज़ को सोचता है जो उसे भटकाती है।
"जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली॥" इस पंक्ति में बताया गया है कि जैसे बाली को सुग्रीव ने उसके द्वार से निकाला, उसी तरह से हमें भी अपने अंधकार और कष्ट से मुक्ति के लिए भगवान की ओर आवश्यकता है।

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