सुंदरकांड की 20 चौपाई अर्थ सहित (चौपाई 131-150 अर्थ सहित)

सुंदरकांड की 20 चौपाई अर्थ सहित 

(चौपाई 131-150 अर्थ सहित)

श्री रामचरितमानस का पंचम सोपान सुन्दरकाण्ड है। इस सोपान में 01 श्लोक, 03 छन्द, 526 चौपाई, 60 दोहे  हैं। मंगलवार के दिन सुंदरकांड का पाठ करने की परंपरा है
चौपाई
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ।
राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा।।131
131चौपाई का अर्थ
 सुनि सुग्रीव, उसने उसे फिर से मिलाया, और राजा सुग्रीव ने अपने साथ कई कपियों के साथ मिलकर राघव के पास चला गया। जब राम ने कपियों को देखा, तो उन्होंने अपने कार्यों को देखकर बहुत आनंदित मन से उनका स्वागत किया।
चौपाई
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई।।
जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया।।132
132चौपाई का अर्थ
दो भाई फटिक सिला पर बैठे हुए थे, परंतु सभी कपियों ने उनके चरणों की शरण ली थी। जामवंत ने कहा, "रघुकुलनायक! अब आप ही किसी का आश्रय बनें। कृपया इस परिस्थिति को सुधारें और इन भाइयों को आपके शरण में रखें।"
20 Chaupais of Sunderkand with meaning
चौपाई
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।।
सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रेलोक उजागर।।133
133चौपाई का अर्थ
उस परम पुरुष का नाम जिससे सदा सुभ कुशल और निरंतर आता है, सुर, नर, और मुनिगण सब प्रसन्न रहते हैं। उसी भगवान के गुण बिना और किसी बिजयी नहीं हो सकता है, वही गुण सागर हैं। उस भगवान की जय त्रेता, द्वापर, और कलियुग में सब त्रिलोकों को प्रकाशित होती है।
चौपाई
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू।।
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी।।134
134चौपाई का अर्थ
जो हमारे जन्म को सुफल बना देती है, वह प्रभु की कृपा है। नाथ पवनसुत (हनुमान) ने जो कार्य किए हैं, वह सब सहज हो गए हैं। उनके मुख से ऐसी बातें नहीं निकल सकती हैं, जो उन्हें योग्य नहीं हों।
चौपाई
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए।।
सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए।।135
135चौपाई का अर्थ
हनुमानजी के चरित्र को सुनकर पवनसुत (हनुमान) का चरित्र बहुत सुहावना लगा। इस पर जामवंत ने रघुपति (राम) को सुनाया। जब कृपानिधि (राम) ने इसे सुना, तो उनका मन अत्यंत प्रसन्न हुआ। फिर हनुमानजी ने पुनः जामवंत को मिलकर अपने हृदय में हर्ष भरा।
चौपाई
कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की।।
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही।।136
136चौपाई का अर्थ
"तुम मुझसे कहो, हे माता, जानकी कैसी हैं? वह राम की रक्षा करती हुई स्वयं को समर्पित करके रहती है। मुझे चलते हुए उसने मुझे चूड़ामणि दी थी, और रघुपति श्रीराम के हृदय में समाहित हो गई है।"
चौपाई
नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी।।
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना।।137
137चौपाई का अर्थ
"जब हनुमानजी ने अपने जुगल नेत्रों से श्रीराम की बारी (मुद्राएँ) से भरी हुई, आपकी बातें सुनाईं। वह कह रहे थे कुछ श्रीरामचंद्रजी की आज्ञा लेकर की जाती हैं। हे प्रभु! आपके चरणों में सहित अपने सभी अनुजों द्वारा, हे दीनबंधु, भगवान, हे प्रभु! तुम्हारी प्रतिनिधि रूपी मुर्ति को प्रणाम करता हूँ।"
चौपाई
मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहि अपराध नाथ हौं त्यागी।।
अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना।।138
138चौपाई का अर्थ
 "मेरा मन, क्रम, और बचन सभी तुम्हारे चरणों के प्रति प्रेमभाव से युक्त है। हे नाथ! मैंने किसी प्रकार का अपराध नहीं किया है। एक अवगुण को छोड़कर, मैंने अन्य सभी गुणों को तुम्हारे चरणों में माना है। मैंने तुमसे बिछड़कर अपनी प्राण नहीं कीये हैं।"
चौपाई
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करिहिं हठि बाधा।।
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा।।139
139चौपाई का अर्थ
 "हे नाथ! ऐसा कोई अपराध नहीं है जिसके कारण मेरे नयनों में आंसू आए हों। बिना मिले ही मेरे प्राण हठ से पीड़ित हो रहे हैं। बिरह की आग की तरह मेरा शरीर भस्म हो रहा है, और तन की ओट तूल (धूप) की तरह आसमान में फैली हुई है। इस बिरह की आग में मेरा श्वास सारे शरीर में जल रहा है।"
चौपाई
नयन स्त्रवहि जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी।
सीता के अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला।।140
140चौपाई का अर्थ
"मेरे नयन (आंखें) अपनी हित लागी हुई जलते हैं, मेरा शरीर बिरह से बिना मिले ही जल रहा है, लेकिन इस आग से मेरे पैर नहीं जल रहे हैं। सीता की अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति बहुत बड़ी है, लेकिन हे दीनदयाल! तुम्हारा दर्शन करने से पहले ही इसे भली बना दो।"
चौपाई
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना।।
बचन काँय मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही।।141
141चौपाई का अर्थ
"सीताजी ने प्रभु राम के दुखों को सुनकर खुद दुःखित हो गईं और उनके चेहरे पर आँसु आ गए। उन्होंने मेरी बातें सुनकर अपने मन को काबू में कर लिया, लेकिन सपनों में भी उन्होंने उनके बिपत्तियों को समझा।"
चौपाई
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई।।
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी।।142
142चौपाई का अर्थ
"हे हनुमान, वह प्रभु श्रीराम ही तुम्हारी बिपत्तियों को जानते हैं। जब तुम उनका स्मरण और भजन नहीं करते हो, तब तुम्हारी समस्याएं बढ़ती हैं। इसी कारण से उन्होंने जातायुकी की बातों को सुनकर रावण के मारने का आलम्बन किया है, क्योंकि उन्होंने यह जाना है कि रावण की मृत्यु के बाद वह सीता को प्राप्त कर सकेंगे।"
चौपाई
सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।।
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा।।143
143चौपाई का अर्थ
 "हे कपि! तुम्हारी सेवा करने में तुम्हारे समान उपकारी कोई नहीं है, चाहे वह सुर, नर या मुनि हों। मैं हमेशा तुम्हारे सेवक बना रहूंगा, क्योंकि तुम्हारे समुख में मेरा मन कभी भी नहीं हो सकता।"
चौपाई
सुनु सुत उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं।।
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता।।144
144चौपाई का अर्थ
"मेरे पुत्र, मैं तुझे देखने में नहीं हूँ, लेकिन तू मेरे मन को अच्छे से समझ सकता है। पुनः पुनः हनुमानजी ने सीताजी के दर्शन को मन में बार-बार चित्रित किया, और उनके चेहरे पर पुलकित हो रहे नेत्रों के जल से भरे हुए थे।"
चौपाई
बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा।।
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।।145
145चौपाई का अर्थ
"हनुमानजी ने बार-बार प्रभु श्रीराम के चरणों में अपनी सारी भावनाएं उठाई हैं, लेकिन उनका प्रेम इस अद्वितीय भगवान के प्रति उठा नहीं जा सकता है। प्रभु श्रीराम को पंकज कहकर, हनुमानजी गौरीसा (शिवजी) को स्मरण करते हुए उनके ध्यान में लिपट जाते हैं।"
चौपाई
सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर।।
कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा।।146
146चौपाई का अर्थ
"मन को सावधानी से ध्यान लगाकर हनुमानजी ने पुनः संकीर्ण रूप से प्रभु श्रीराम की कथा कहना शुरू किया। कपि ने प्रभु श्रीराम के हृदय में उत्साह से उठकर बैठा हुआ हनुमानजी को गले लगाया और बड़े प्रेम से उनके पास बैठ गया।"
चौपाई
कहु कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।।
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना।।147
147चौपाई का अर्थ
"हे हनुमान, तुम रावण द्वारा पालित जगह, यानी लंका की बात करो, और बताओ कैसे उसे नष्ट करना है। तुमने जो दुर्गा को बंका कहा है, उसका विधान कैसे होगा? हे हनुमान, प्रभु राम की कृपा से तुम खुद जानते हो, तुम्हारा भयभीत अभिमान अब नहीं रहा है।"
चौपाई
साखामृग के बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई।।
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा।148
148चौपाई का अर्थ
 "हनुमानजी की वीरता भगवान राम की आराध्यता में बढ़ती रही है। वे साखामृग के बराबर महाबली हैं, जो अपनी साखा को छोड़कर दूसरी साखा पर जाता है। वैसे ही हनुमानजी ने अपनी वीरता के बल पर एक से बढ़कर एक कार्य किए हैं, सिंधु हाटकपुर का दुर्ग को जाकर जला दिया, और निसाचर गणों को भगवान की भक्ति में जागरूक किया, बिपिन (वन) को उजारा कर दिया।"
चौपाई
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई।।
नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी।।149
149चौपाई का अर्थ
"हे हनुमान, तेरा प्रताप रघुकुल राजा राम के साथ है, जो किसी नाथ का भी सारा कुछ है और मेरी प्रभुता भी तुझसे कहीं कम नहीं है। हे नाथ, तुम्हारी भक्ति बहुत सुखदायक है, कृपा करके मुझ पर अपनी अनपायनी कृपा करो।"
चौपाई
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी।।
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना।।150
150चौपाई का अर्थ
 "हे हनुमान, प्रभु श्रीराम ने तुम्हारी सरल बातों को सुनकर कहा, 'ऐसा हो'। इस प्रकार, हे भवानी, यदि तुम उमा देवी के समान राम को प्रिय जानते हो, तो उसी रूप में भजन करो और अन्य भावनाओं को त्यागो।

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