शिव द्वारा ज्ञान और मोक्ष का वर्णन ,शिव की आज्ञा से सती द्वारा श्रीराम की परीक्षा

शिव द्वारा ज्ञान और मोक्ष का वर्णन शिव की आज्ञा से सती द्वारा श्रीराम की परीक्षा

यह दृश्य भगवान शिव और देवी सती के बीच हुए एक महत्वपूर्ण संवाद को दर्शाता है, जिसमें देवी सती भक्ति और ज्ञान के माध्यम से अपने मन की शांति और उद्धार की कथा का ज्ञान प्राप्त करना चाहती हैं। भगवान शिव ने भक्ति और ज्ञान के महत्व को समझाया है, और इसके अंगों को विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने बताया है कि भक्ति और ज्ञान दोनों ही भक्तियों के माध्यम से परम तत्व की प्राप्ति में सहायक होते हैं। भक्ति में श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवन, दास्य, अर्चन, वंदन, सख्य, और आत्मसमर्पण ये नौ भक्ति अंग होते हैं। ये सभी अंग भक्ति को साकार और निराकार भगवान के प्रति प्रेम में विकसित करते हैं। शिवजी ने उत्तर को पूर्ण करने के लिए विभिन्न शास्त्रों की बातें बताईं, जिनमें तंत्रशास्त्र, यंत्रशास्त्र, राजधर्म, वैद्यक शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, राजधर्म, और भक्ति शास्त्र शामिल थे। इसके साथ ही, उन्होंने दिव्य इतिहास, धर्मिक कथाएं, और देवताओं की महिमा का वर्णन भी किया।
 Description of knowledge and salvation by Shiva. 

शिव द्वारा ज्ञान और मोक्ष का वर्णन 

ब्रह्माजी बोले- हे महर्षि नारद! भगवान शिव और सती के हिमालय से वापस आने के पश्चात वे पुनः पहले की तरह कैलाश पर्वत पर अपना निवास करने लगे। एक दिन देवी सती ने भगवान शिव को भक्तिभाव से नमस्कार किया और कहने लगी- हे देवाधिदेव ! महादेव! कल्याणसागर! आप सभी की रक्षा करते हैं। हे भगवन्! मुझ पर भी अपनी कृपादृष्टि कीजिए। प्रभु आप परम पुरुष और सबके स्वामी हैं। आप रजोगुण, तमोगुण और सत्वगुण से दूर हैं। आपको पति रूप में पाकर मेरा जन्म सफल हो गया। हे करुणानिधान! आपने मुझे हर प्रकार का सुख दिया है तथा मेरी हर इच्छा को पूरा किया है परंतु अब मेरा मन तत्वों की खोज करता है। में उस परम तत्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहती हूं जो सभी को सुख प्रदान करने वाला है। जिसे पाकर जीव संसार के दुखों और मोह-माया से मुक्त हो जाता है और उसका उद्धार हो जाता है। प्रभु! मुझ पर कृपा कर आप मेरा ज्ञानवर्द्धन करें। ब्रह्माजी बोले- मुने! इस प्रकार आदिशक्ति देवी सती ने जीवों के उद्धार के लिए भगवान शिव से प्रश्न किया। उस प्रश्न को सुनकर महान योगी, सबके स्वामी भगवान शिव प्रसन्नतापूर्वक बोले- हे देवी! हे दक्षनंदिनी में तुम्हें उस अमृतमयी कथा को सुनाता हूँ, जिसे सुनकर मनुष्य संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है। यही वह परमतत्व विज्ञान है जिसके उदय होने से मेरा ब्रह्मस्वरूप है। ज्ञान प्राप्त करने पर उस विज्ञानी पुरुष की बुद्धि शुद्ध हो जाती है। उस विज्ञान की माता मेरी भक्ति है। यह भोग और मोक्ष रूप को प्रदान करती है। भक्ति और ज्ञान सदा सुख प्रदान करता है। भक्ति के बिना ज्ञान और ज्ञान के बिना भक्ति की प्राप्ति नहीं होती है। हे देवी! में सदा अपने भक्तों के अधीन हूँ। भक्ति दो प्रकार की होती है— सगुण और निर्गुण । शास्त्रों से प्रेरित और हृदय के सहज प्रेम से प्रेरित भक्ति श्रेष्ठ होती है परंतु किसी वस्तु की कामनास्वरूप की गई भक्ति, निम्नकोटि की होती है। हे प्रिये! मुनियों ने सगुणा और निर्गुणा नामक दोनों भक्तियों के नौ-नौ भेद बताए हैं। श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवन, दास्य, अर्चन, वंदन, सख्य और आत्मसमर्पण ही भक्ति के अंग माने जाते हैं। जो एक स्थान पर स्थिरतापूर्वक बैठकर तन-मन को एकाग्रचित्त करके मेरी कथा और कीर्तन को प्रतिदिन सुनता है, इसे 'श्रवण' कहा जाता है। जो अपने हृदय में मेरे दिव्य जन्म-कर्मों का चिंतन करता है और उसका अपनी वाणी से उच्चारण करता है, इसे भजन रूप में गाना ही 'कीर्तन' कहा जाता है। मेरे स्वरूप को नित्य अपने आस-पास हर वस्तु में तलाश कर मुझे सर्वत्र व्यापक मानना तथा सदैव मेरा चिंतन करना ही 'स्मरण' है। सूर्य निकलने से लेकर रात्रि तक (सूर्यास्त तक) हृदय और इंद्रियों से निरंतर मेरी सेवा करना ही 'सेवन' कहा जाता है। स्वयं को प्रभु का किंकर समझकर अपने हृदयामृत के भोग से भगवान का स्मरण 'दास्य' कहा जाता है। अपने धन और वैभव के अनुसार सोलह उपचारों के द्वारा मनुष्य द्वारा की गई मेरी पूजा 'अर्चन' कहलाती है। मन, ध्यान और वाणी से मंत्रों का उच्चारण करते हुए इटदेव को नमस्कार करना 'वंदन' कहा जाता है। ईश्वर द्वारा किए गए फैसले को अपना हित समझकर उसे सदैव मंगल मानना ही 'सख्य' है। मनुष्य के पास जो भी वस्तु है वह भगवान की प्रसन्नता के लिए उनके चरणों में अर्पण कर उन्हें समर्पित कर देना ही 'आत्मसमर्पण' कहलाता है। भक्ति के यह नो अंग भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। ये सभी ज्ञान के साधन मुझे प्रिय हैं। मेरी सांगोपांग भक्ति ज्ञान और वैराग्य को जन्म देती है। इससे सभी अभीष्ट फलों की प्राप्ति होती है। मुझे मेरे भक्त बहुत प्यारे हैं। तीनों लोकों और चारों युगों में भक्ति के समान दूसरा कोई भी सुखदायक मार्ग नहीं है। कलियुग में, जब ज्ञान और वैराग्य का ह्रास हो जाएगा तब भी भक्ति ही शुभ फल प्रदान करने वाली होगी। में सदा ही अपने भक्तों के वश में रहता हूँ। में अपने भक्तों की विपरीत परिस्थिति में सदैव सहायता करता हूँ और उसके सभी कष्टों को दूर करता हूं। में अपने भक्तों का रक्षक हूँ। ब्रह्माजी बोले- नारद! देवी सती को भक्त और भक्ति का महत्व सुनकर बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने भगवान शिव को प्रणाम किया और पुनः शास्त्रों के बारे में पूछा। वे यह जानना चाहती थीं कि सभी जीवों का उद्धार करने वाला, उन्हें सुख प्रदान करने वाला सभी साधनों का प्रतिपादक शास्त्र कौन-सा है? वे ऐसे शास्त्र का माहात्म्य सुनना चाहती थीं। सती का प्रश्न सुनकर शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक सब शास्त्रों के विषय में देवी सती को बताया। महेश्वर ने पांचों अंगों सहित तंत्रशास्त्र, यंत्रशास्त्र तथा सभी देवेश्वरों की महिमा का वर्णन किया। उन्होंने इतिहास की कथा भी सुनाई। पुत्र और स्त्री के धर्म की महिमा भी बताई। मनुष्यों को सुख प्रदान करने वाले वैद्यक शास्त्र तथा ज्योतिष शास्त्र का भी वर्णन किया। भगवान शिव ने भक्तों का माहात्म्य और राज धर्म भी बताया। इसी प्रकार भगवान शिव ने सती को उनके पूछे सभी प्रश्नों का उत्तर देते हुए सभी कथाएं सुनाई। 
इस दृश्य से हमें यह सिखने को मिलता है कि भक्ति और ज्ञान से युक्त रहकर मानव जीवन को आदर्श बनाया जा सकता है, और भगवान की अद्वितीयता का अनुभव करने का मार्ग प्राप्त हो सकता है। 

श्रीरुद्र संकेत-लिपि द्वितीय खंड तेईसवां अध्याय समाप्त

 शिव की आज्ञा से सती द्वारा श्रीराम की परीक्षा

Sri Ram's test by Sati on the orders of Shiva
 (चौबीसवां अध्याय )
नारद जी बोले- हे ब्रह्मन्! हे महाप्राज्ञ! हे दयानिधे! आपने मुझे भगवान शंकर तथा देवी सती के मंगलकारी चरित्र के बारे में बताया। हे प्रभु! में महादेव जी का सपत्नीक यश वर्णन सुनना चाहता हूं। कृपया अब मुझे आप यह बताइए कि तत्पश्चात शिवजी व सती ने क्या किया? उनके सभी चरित्रों का वर्णन मुझसे करें। ब्रह्माजी ने कहा- मुने! एक बार की बात है कि सतीजी को अपने पति का वियोग प्राप्त हुआ। यह वियोग भी उनकी लीला का ही रूप था क्योंकि इनका परस्पर वियोग तो हो ही नहीं सकता है। यह वाणी और अर्थ के समान है, यह शक्ति और शक्तिमान है तथा चित्रस्वरूप है। सती और शिव तो ईश्वर हैं। वे समय-समय पर नई-नई लीलाएं रचते हैं। सूत जी कहते हैं— महर्षियो! ब्रह्माजी की बात सुनकर नारद जी ने ब्रह्माजी से देवी सती और भगवान शिव के बारे में पूछा कि भगवान शिव ने अपनी पत्नी सती का त्याग क्यों किया? ऐसा किसलिए हुआ कि स्वयं वर देने के बाद भी उन्होंने देवी सती को छोड़ दिया? प्रजापति दक्ष ने अपने यज्ञ के आयोजन में भगवान शिव को निमंत्रण क्यों नहीं दिया? और यज्ञ स्थल पर भगवान शंकर का अनादर क्यों किया। उस यज्ञ में सती ने अपने शरीर का त्याग क्यों किया तथा इसके पश्चात वहां पर क्या हुआ? हे प्रभु! कृपा कर मुझे इस विषय में सविस्तार बताइए। ब्रह्माजी बोले- हे महाप्राज्ञ नारद! में तुम्हारी उत्सुकता देखकर तुम्हारी सभी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए तुम्हें सारी बातें बताता हूँ। ये सभी भगवान शिव की ही लीला है। उनका स्वरूप स्वतंत्र और निर्विकार है। देवी सती भी उनके अनुरूप ही हैं। एक समय की बात है, भगवान शिव अपनी प्राणप्रिया पत्नी सती के साथ अपनी सवारी नंदी पर बैठकर पृथ्वीलोक का भ्रमण कर रहे थे। घूमते-घूमते वे दण्डकारण्य में आ गए। उस वन में उन्होंने भगवान श्रीराम को उनके भ्राता लक्ष्मण के साथ जंगलों में भटकते हुए देखा। वे अपनी पत्नी सीता को खोज रहे थे, जिसे लंका का राजा रावण उठाकर ले गया था। वे जगह-जगह भटकते हुए उनका नाम पुकार कर उन्हें ढूंढ रहे थे। पत्नी के बिछुड़ जाने के कारण श्रीराम अत्यंत दुखी दिखाई दे रहे थे। उनकी कांति फीकी पड़ गई थी। भगवान शिव ने वन में राम जी को भटकते देखा परंतु उनके सामने प्रकट नहीं हुए। देवी सती को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। वे शिवजी से बोलीं- हे सर्वेश! हे करुणानिधान सदाशिव हे परमेश्वर! ब्रह्मा, विष्णु सहित सभी देवता आपकी ही सेवा करते हैं। आप सब के द्वारा पूजित हैं। वेदांत और शास्त्रों के द्वारा आप ही निर्विकार प्रभु हैं। हे नाथ! ये दोनों पुरुष कौन हैं? ये दोनों विरह व्यथा से व्याकुल रहते हैं। ये दोनों धनुर्धर वीर जंगलों में क्यों भटक रहे हैं? भगवन् इनमें ज्येष्ठ पुरुष की अंगकांति नीलकमल के समान स्याम है। आप उसे देखकर इतना आनंद विभोर क्यों हो रहे हैं? आपने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें प्रणाम क्यों किया? स्वामी कभी भक्त को प्रणाम नहीं करता है। कल्याणकारी शिव! आप मेरे संशय को दूर कीजिए और मुझे इस विषय में बताइए । ब्रह्माजी बोले- नारद! कल्याणमयी आदिशक्ति देवी सती ने जब भगवान शिव से इस प्रकार प्रश्न पूछने आरंभ किए तो देवों के देव महादेव भगवान हंसकर बोले- देवी यह सभी तो पूर्व निर्धारित है। मैंने उन्हें दिए गए वरदान स्वरूप ही उन्हें नमस्कार किया था। ये दोनों भाई सभी वीरों द्वारा सम्मानित हैं। इनके शुभ नाम श्रीराम और लक्ष्मण हैं। ये सूर्यवंशी राजा दशरथ के पुत्र हैं। इनमें गोरे रंग के छोटे भाई साक्षात शेष के अंश हैं तथा उनका नाम लक्ष्मण है। बड़े भाई श्रीराम भगवान विष्णु का अवतार हैं। धरती पर इनका जन्म साधुओं की रक्षा और पृथ्वी वासियों के कल्याण के लिए ही हुआ है। भगवान शिव की ये बातें सुनकर देवी सती को विश्वास नहीं हुआ। ऐसा विभ्रम भगवान शिव की नाया के कारण ही हुआ था। जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ कि देवी सती को उनकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ है तो वे अपनी पत्नी दक्षकन्या सती से बोले- देवी! यदि तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास नहीं है तो तुम स्वयं श्रीराम की परीक्षा ले लो। जब तक तुम इस बात से आश्वस्त न हो जाओ कि वे दोनों पुरुष ही राम और लक्ष्मण हैं, और तुम्हारा मोह न नष्ट हो जाए, तब तक में यहीं बरगद के नीचे खड़ा हूं। तुम जाकर श्रीराम और लक्ष्मण की परीक्षा लो। ब्रह्माजी बोले- हे महामुने नारद! अपने पति भगवान शिव के वचन सुनकर सती ने अपने पति का आदेश प्राप्त कर श्रीराम-लक्ष्मण की परीक्षा लेने की ठान ली परंतु उनके मन में बार-बार एक ही विचार उठ रहा था कि में कैसे उनकी परीक्षा लूं। तब उनके मन यह विचार आया कि में देवी सीता का रूप धारण कर श्रीराम के सामने जाती हूं। यदि वे साक्षात विष्णुजी का अवतार हैं, तो वे मुझे आसानी से पहचान लेंगे अन्यथा वे मुझे पहचान नहीं पाएंगे। ऐसा विचार कर उन्होंने सीता का वेश धारण कर लिया और रामजी के समक्ष चली गई। सती ने ऐसा भगवान शिव की माया से मोहित होकर ही किया था। सती को सीता के रूप में देखकर, राम जी सबकुछ जान गए वे हंसते हुए देवी सती को प्रणाम करके बोले- हे देवी सती! आपको में नमस्कार करता हूं। हे देवी! आप तो यहां हैं, परंतु त्रिलोकीनाथ भगवान शिव कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। बताइए देवी, आप इस निर्जन वन में अकेली क्या कर रही हैं? और आपने अपने परम सुंदर और कल्याणकारी रूप को त्यागकर यह नया रूप क्यों धारण किया है? श्री रामचंद्र जी की बातें सुनकर देवी सती आश्चर्यचकित हो गई। तब वे शिवजी की बातों का स्मरण कर तथा सच्चाई को जानकर बहुत शर्मिंदा हुई और मन ही मन अपने पति भगवान शंकर के चरणों का स्मरण करती हुई बोलीं- हम अपने पति करुणानिधान भगवान शिव तथा अन्य पार्षदों के साथ पृथ्वी का भ्रमण करते हुए इस वन में आ गए थे। यहां आपको लक्ष्मण जी के साथ सीता की खोज में भटकते हुए देखकर भगवान शिव ने आपको प्रणाम किया और वहीं बरगद के पीछे खड़े हो गए। आपको वहां देख भगवान शिव आनंदित होकर आपकी महिमा का गान करने लगे। वे आपके दर्शनों से आनंदविभोर हो गए। मेरे द्वारा इस विषय में पूछने पर जब उन्होंने मुझे बताया कि आप श्रीविष्णु का अवतार हैं तो मुझे इस पर विश्वास ही नहीं हुआ और में स्वयं आपकी परीक्षा लेने यहां आ गई। आपके द्वारा मुझे पहचान लेने से मेरा सारा भ्रम दूर हो गया है। हे श्रीहरि ! अब मुझे आप यह बताइए कि आप भगवान शिव के भी वंदनीय कैसे हो गए? मेरे मन में यही एक संशय है। कृपया, आप मुझे इस विषय में बताकर मेरे संशय को दूर कर मुझे शांति प्रदान करें। देवी सती के ऐसे वचन सुनकर श्रीराम प्रसन्न होते हुए तथा अपने मन में शिवजी का स्मरण करते हुए प्रेमविभोर हो उठे। वे प्रभु शिव के चरणों का चिंतन करते हुए मन में उनकी महिमा का वर्णन करने लगे। 
श्रीरुद्र संकेत-लिपि द्वितीय खंड चौबीसवां अध्याय समाप्त

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