दक्ष के यज्ञ का विनाश दक्ष और देवताएं भयभीत होकर विष्णु जी से जीवन की रक्षा की प्रार्थना

दक्ष के यज्ञ का विनाश दक्ष और देवताएं भयभीत होकर विष्णु जी से जीवन की रक्षा की प्रार्थना

 इसमें भगवान शिव और माता काली के वीर अनुयायी, वीरभद्र और महाकाली की कथा है। इस कथा के अनुसार, दक्ष नामक एक प्राचीन ऋषि ने एक यज्ञ का आयोजन किया, लेकिन उसमें भगवान शिव और माता सती (जो बाद में काली बनीं) को नहीं बुलाया। इस पर माता सती ने अपने पूर्वजन्म की स्मृति को धारण करते हुए अपनी देवी स्वरूप में सती त्यागी और फिर महाकाली रूप में प्रकट हुईं। भगवान शिव के आदेश पर, वीरभद्र और महाकाली ने यज्ञशाला की ओर बढ़ाई, और उनके साथ लाखों गण भी थे। उन्होंने दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर दिया और उसे उसकी अभिमानपूर्ण प्रवृत्ति के कारण दंडित किया।

दक्ष के यज्ञ का विनाश दक्ष 

ब्रह्माजी कहते हैं - नारद! महेश्वर के आदेश को आदरपूर्वक सुनकर वीरभद्र ने शिवजी को प्रणाम किया। तत्पश्चात उनसे आज्ञा लेकर वीरभद्र यज्ञशाला की ओर चल दिए। शिवजी ने प्रलय की अग्नि के समान और करोड़ों गणों को उनके साथ भेज दिया। वे अत्यंत तेजस्वी थे। वे सभी वीरगण कौतूहल से वीरभद्र के साथ-साथ चल दिए। उसमें हजारों पार्षद वीरभद्र की तरह ही महापराक्रमी और बलशाली थे। बहुत से काल के भी काल भगवान रुद्र के समान थे। वे शिवजी के समान ही शोभा पा रहे थे। तत्पश्चात वीरभद्र शिवजी जैसा वेश धारण कर ऐसे रथ पर चढ़कर चले जो चार सौ हाथ लंबा था और इस रथ को दस हजार शेर खींच रहे थे और बहुत से हाथी, शार्दूल, मगर, मत्स्य उस रथ की रक्षा के लिए आगे-आगे चल रहे थे। काली, कात्यायनी, ईशानी, चामुण्डा, मुण्डमर्दिनी, भद्रकाली, भद्रा, त्वरिता और वैष्णवी नामक नव दुर्गाओं ने भी भूत-पिशाचों के साथ दक्ष के यज्ञ का विनाश करने के लिए उस ओर प्रस्थान किया। डाकिनी, शाकिनी, भूत-पिशाच, प्रमय, गुह्यक, कूष्माण्ड, पर्पट, चटक, ब्रह्मराक्षस, भैरव तथा क्षेत्रपाल आदि सभी वीरगण भगवान शिव की आज्ञा पाकर दक्ष के यज्ञ का विनाश करने के लिए यज्ञशाला की ओर चल दिए। वे भगवान शंकर के चौसठ हजार करोड़ गणों की सेना लेकर चल दिए। उस समय भेरियों की गंभीर ध्वनि होने लगी। अनेकों प्रकार के शंख चारों दिशाओं में बजने लगे। उस समय जटाहर, मुखों तथा शृंगों के अनेक प्रकार के शब्द हुए। भिन्न-भिन्न प्रकार की सींगे बजने लगीं। महामुनि नारद! उस समय वीरभद्र की उस यात्रा में करोड़ों सैनिक (शिवगण एवं भूत पिशाच) शामिल थे। इसी प्रकार महाकाली की सेना भी शोभा पा रही थी। इस प्रकार वीरभद्र और महाकाली दोनों की विशाल सेनाएं उस दक्ष के यज्ञ का विनाश करने के लिए गाजे-बाजे के साथ आगे बढ़ने लगीं। उस समय अनेक शुभ शगुन होने लगे।
इस कथा से सिख मिलती है कि अधर्मिक और अवहेलना भरे कर्मों का परिणाम हमेशा होता है, और व्यक्ति को अपने कर्मों के लिए उत्तरदाता होना पड़ता है। भगवान की शरण में जाकर ही हम अपने पापों से मुक्ति पा सकते हैं।
श्रीरुद्र संकेत-लिपि द्वितीय खंड तैंतीसवां अध्याय समाप्त

दक्ष और देवताएं भयभीत होकर विष्णु जी से जीवन की रक्षा की प्रार्थना

कथा में सुंदर रूप से वर्णित है कि वीरभद्र और महाकाली दोनों ही भगवान शिव की भयंकर रूपों को प्रदर्शित करते हैं, और उनकी सेनाएं विशाल और अद्भुत हैं। इसके साथ ही, यह कथा भक्तों को धर्म और भक्ति की महत्वपूर्ण सिख देती है कि भगवान की आज्ञा का आदर करना और उसे पुरी श्रद्धा भाव से मानना कितना महत्वपूर्ण है।दक्ष और उनके सहित सभी देवताएं भयभीत होकर विष्णु जी की शरण में गईं और उनसे अपने जीवन की रक्षा की प्रार्थना की। यह कथा धर्म, अधर्म और भक्ति के महत्वपूर्ण तत्वों पर आधारित है और मनुष्य को अपने कर्मों के परिणामों का सावधानीपूर्वक विचार करने का सुझाव देती है।
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! जब वीरभद्र और महाकाली की विशाल चतुरंगिणी सेना अत्यंत तीव्र गति से दक्ष के यज्ञ की ओर बढ़ी तो यज्ञोत्सव में अनेक प्रकार के अपशकुन होने लगे। वीरभद्र के चलते ही यज्ञ में विध्वंस की सूचना देने वाला उत्पात होने लगा। दक्ष की बायीं आंख, बायीं भुजा और बायीं जांच फड़कने लगी। वाम अंगों का फड़कना बहुत अशुभ होता है। उस समय यज्ञशाला में भूकंप आ गया। दक्ष को कम दिखाई देने लगा। भरी दोपहर में उसे आसमान में तारे दिखने लगे। दिशाएं धुंधली हो गई। सूर्य में काले काले धब्बे दिखाई देने लगे। ये धब्बे बहुत डरावने लग रहे थे। बिजली और अग्नि के समान सारे नक्षत्र उन्हें टूट- टूटकर गिरते हुए दिखने लगे। वहां यज्ञशाला में हजारों गिद्ध दक्ष के सिर पर मंडराने लगे। उस यज्ञमण्डप को गिद्धों ने पूरा ढक दिया था। वहां एकत्र गीदड़ बड़ी भयानक और डरावनी आवाजें निकाल रहे थे। सभी दिशाएं अंधकारमय हो गई थीं। वहां अनेक प्रकार के अपशकुन होने लगे। फिर उसी समय वहां आकाशवाणी हुई- ओ महामूर्ख, दुष्ट दक्ष! तेरे जन्म को धिक्कार है। तू बहुत बड़ा पापी है। तूने भगवान शिव की बहुत अवहेलना की है। तूने देवी सती, जो कि साक्षात जगदंबा रूप हैं, का भी अनादर किया है। सती ने तेरी ही वजह से अपने शरीर को योगाग्नि में जलाकर भस्म कर दिया है। तुझे तेरे कर्मों का फल जरूर मिलेगा। आज तुझे तेरी करनी का फल अवश्य ही मिलेगा। साथ ही यहां उपस्थित सभी देवताओं और ऋषि-मुनियों को भी अवश्य ही उनकी करनी का फल मिलेगा। भगवान शिव तुम्हें तुम्हारे पापों का फल जरूर देंगे।  इस प्रकार कहकर वह आकाशवाणी मौन हो गई। उस आकाशवाणी को सुनकर और वहाँ यज्ञशाला में प्रकट हो रहे अनेक अशुभ लक्षणों को देखकर दक्ष तथा वहाँ उपस्थित सभी देवतागण भय से कांपने लगे। दक्ष को अपने द्वारा किए गए व्यवहार का स्मरण होने लगा। उसे अपने किए पर बहुत पछतावा होने लगा। तब दक्ष सहित सभी देवता श्रीहरि विष्णु की शरण में गए। वे डरे हुए थे। भय से कांपते हुए वे सभी लक्ष्मीपति विष्णुजी से अपने जीवन की रक्षा की प्रार्थना करने लगे। इस कथा से सिख मिलती है कि अधर्मिक और अवहेलना भरे कर्मों का परिणाम हमेशा होता है, और व्यक्ति को अपने कर्मों के लिए उत्तरदाता होना पड़ता है। भगवान की शरण में जाकर ही हम अपने पापों से मुक्ति पा सकते हैं।

श्रीरुद्र संकेत-लिपि द्वितीय खंड चौंतीसवां अध्याय समाप्त

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