शिव-विष्णु समर्थन और समर्पण, दक्ष का भगवान शिव को शाप देना

शिव-विष्णु समर्थन और समर्पण, दक्ष का भगवान शिव को शाप देना 

यह एक पौराणिक कथा है जो भगवान शिव और भगवान विष्णु के अद्भुत मिलन को वर्णित करती है। इस कथा के अनुसार, भगवान शिव ने विश्वकर्मा को बुलाकर एक मनोहर गोशाला बनवाई और उसमें एक दिव्य भवन तथा उत्कृष्ट सिंहासन और छत्र बनवाए। उन्होंने देवों, ऋषियों, उपदेवताओं, नागों, गंधर्वों, अप्सराओं, और अन्य देवी-देवताओं को भी बुलवाया और एक महत्वपूर्ण उत्सव का आयोजन किया।

शिव-विष्णु समर्थन और समर्पण

श्रीराम बोले- हे देवी सती प्राचीनकाल की बात है। एक बार भगवान शिव ने अपने लोक में विश्वकर्मा को बुलाकर उसमें एक मनोहर गोशाला बनवाई, जो बहुत बड़ी थी। उसमें उन्होंने एक मनोहर विस्तृत भवन का भी निर्माण करवाया। उसमें एक दिव्य सिंहासन तथा एक दिव्य श्रेष्ठ छत्र भी बनवाया। यह बहुत ही अद्भुत और परम उत्तम था। तत्पश्चात उन्होंने सब ओर से इंद्र, देवगणों, सिद्धों, गंधव, समस्त उपदेवों तथा नाग आदि को भी शीघ्र ही उस मनोहर भवन में बुलवाया। सभी वेदों और आगमों को, पुत्रों सहित ब्रह्माजी को मुनियों, अप्सराओं सहित समस्त देवियों सहित सोलह नाग कन्याओं आदि सभी को उसमें आमंत्रित किया, जो कि अनेक मांगलिक वस्तुओं के साथ वहां आई। संगीतज्ञों ने वीणा-मृदंग आदि बाजे बजाकर अपूर्व संगीत का गान किया। इस प्रकार यह एक बड़ा समारोह और उत्सव था राज्याभिषेक की सारी सामग्रियां एकत्रित हुई और तीर्थों के जल से भरे घड़े मंगाए गए अनेक दिव्य सामग्रियां भी गण द्वारा मंगवाई गई। फिर उच्च स्वरों में वेदमंत्रों का घोष कराया गया। हे देवी! भगवान श्रीहरि विष्णु की उत्तम भक्ति से भगवान शिव सदा प्रसन्न रहते थे। उन्होंने बड़े प्रसन्न होकर श्रीहरि को बैकुंठ से बुलवाया और शुभ मुहूर्त में श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठाया। महादेव जी ने स्वयं अपने हाथों से उन्हें बहुत से आभूषण और अलंकार पहनाए। उन्होंने भगवान विष्णु के सिर पर मुकुट पहनाकर उनका अभिषेक किया। उस समय वहां अनेक मंगल गान गाए गए। तब भगवान शिव ने अपना सारा ऐश्वर्य, जो कि किसी के पास भी नहीं था, उन्हें प्रेमपूर्वक प्रदान किया। इसके पश्चात भगवान शंकर ने उनकी बहुत स्तुति की और जगतकर्ता ब्रह्माजी से बोले- हे लोकेश! आज से श्रीहरि विष्णु मेरे वंदनीय हुए। यह सुनकर सभी देवता स्तब्ध रह गए। तब वे पुनः बोले कि आप सहित सभी देवी-देवता भगवान विष्णु को प्रणाम कर उनकी स्तुति करें तथा सभी वेद मेरे साथ-साथ श्रीविष्णु जी का भी वर्णन करें।
Shiva-Vishnu support and dedication, Daksha cursing Lord Shiva

श्रीराम का सती के संदेह को दूर करना

श्री रामचंद्र जी बोले- हे देवी! भगवान शिव अपने भक्तों के ही अधीन हैं। वे अत्यंत दयालु और कृपानिधान हैं। वे सदा ही भक्तों के वश में रहते हैं। इसलिए भगवान विष्णु की शिव भक्ति से प्रसन्न होकर भक्तवत्सल शिव ने यह सबकुछ किया तथा इसके उपरांत उन्होंने विष्णुजी के वाहन गरुड़ध्वज को भी प्रणाम किया। तत्पश्चात सभी देवी-देवताओं और ऋषि- मुनियों ने भी श्रीहरि की सच्चे मन से स्तुति की। तब भगवान शिव विष्णुजी को बहुत से वरदान दिए तथा कहा— श्रीहरि ! आप मेरी आज्ञा के अनुसार संपूर्ण लोकों के कर्ता, पालक और संहारक हों। धर्म, अर्थ और काम के दाता तथा बुरे अथवा अन्याय करने वाले दुष्टों को दंड तथा उनका नाश करने वाले हों। आप पूरे जगत में पूजित हों तथा सभी मनुष्य सदैव आपका पूजन करें। तुम कभी भी पराजित नहीं होगे। मैं तुम्हें इच्छा की सिद्धि, लीला करने की शक्ति और सदेव स्वतंत्रता का वरदान प्रदान करता हे हरे जो तुमसे बैर रखेंगे उनको अवश्य ही दंड मिलेगा। मैं तुम्हारे भक्तों को भी मोक्ष प्रदान करूंगा तथा उनके सभी को का भी निवारण करूंगा। तुम मेरी बायीं भुजा से और ब्रह्माजी मेरी दायीं भुजा से प्रकट हुए हो। रुद्र देव, जो साक्षात मेरा ही रूप है, मेरे ही हृदय से प्रकट हुए है। है विष्णो! आप सदा सबकी रक्षा करेंगे। मेरे धाम में तुम्हारा स्थान उज्ज्वल एवं वैभवशाली है। वह गोलोक नाम से जाना जाएगा। तुम्हारे द्वारा धारण किए गए सभी अवतार सबके रक्षक और मेरे परम भक्त होंगे। में उनका दर्शन करूंगा।  
श्री रामचंद्र जी कहते हे देवी! श्रीहरि को अपना अखंड ऐश्वर्य सोपकर भगवान शिव स्वयं कैलाश पर्वत पर रहते हुए अपने पार्षदों के साथ क्रीड़ा करते हैं। तभी भगवान लक्ष्मीपति विष्णु गोपवेश धारण करके आए और गोप-गोपी तथा गौओं के स्वामी बनकर प्रसन्नतापूर्वक विचरने लगे तथा जगत की रक्षा करने लगे। वे अनेक प्रकार के अवतार ग्रहण करते हुए जगत का पालन करने लगे। वे ही भगवान शिव की आज्ञा से चार भाइयों के रूप में प्रकट हुए। अब इस समय में (विष्णु) ही अवतार रूप में प्रकट होकर चार भाइयों में सबसे बड़ा राम हूँ। दूसरे भरत हैं, तीसरे लक्ष्मण हैं और चौथे भाई शत्रुघ्न है में अपनी माता के आदेशानुसार वनवास भोगने के लिए लक्ष्मण और सीता के साथ इस वन में आया था। किसी राक्षस ने मेरी पत्नी सीता का अपहरण कर लिया है और में यहां-वहां भटकता हुआ अपनी पत्नी को ही ढूंढ़ रहा हूँ। सौभाग्यवश मुझे आपके दर्शन हो गए। अब निश्चय ही मुझे मेरे कार्य में सफलता मिलेगी। हे माता! आप मुझ पर कृपादृष्टि करें और मुझे यह वरदान दें कि में उस पापी राक्षस को मारकर अपनी पत्नी सीता को उसके चंगुल से मुक्त कर सकूं। मेरा यह महान सौभाग्य है कि मुझे आपके दर्शन प्राप्त हुए। मैं धन्य हो गया। इस प्रकार देवी की अनेक प्रकार से स्तुति करके श्रीराम जी ने उन्हें अनेकों बार प्रणाम किया। श्रीराम की बातें सुनकर सती मन ही मन बहुत प्रसन्न हुई और भक्तवत्सल भगवान शिव की स्तुति एवं चिंतन करने लगी। अपनी भूल पर उन्हें लज्जा आ रही थी। वे उदास मन से शिवजी के पास चल दीं। वे रास्ते में सोच रही थीं कि मैंने अपने पति महादेव जी की बात न मानकर बहुत बुरा किया और श्रीराम जी के प्रति भी बुरे विचार अपने मन में लाई अब में भगवान शिव को क्या उत्तर दूंगी? उन्हें अपनी करनी पर बहुत पश्चाताप हो रहा था। वे शिवजी के समीप गई और चुपचाप खड़ी हो गई। सती को इस प्रकार चुपचाप और दुखी देखकर भगवान शंकर ने पूछा- देवी! आपने श्रीराम की परीक्षा किस प्रकार ली? यह प्रश्न सुनकर देवी सती चुपचाप सिर झुकाकर खड़ी हो गई। उन्होंने शिवजी को कोई उत्तर नहीं दिया। वे असमंजस में थीं कि क्या उत्तर दें। लेकिन महायोगी शिव ने ध्यान से सारा विवरण जान लिया और उनका मन से त्याग कर दिया। भगवान शिव ने सोचा, अब यदि में सती को पहले जैसा ही स्नेह करूं तो मेरी प्रतिज्ञा भंग हो जाएगी। वेद धर्म के पालक शिवजी ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी करते हुए सती का मन से त्याग कर दिया। फिर सती से कुछ न कहकर वे कैलाश की ओर बढ़े। मार्ग में सबको, विशेषकर सती जी को सुनाने के लिए आकाशवाण हुई कि महायोगी शिव आप धन्य है। 
आपके समान तीनों लोक में कोई भी प्रतिज्ञा-पालक नहीं है। इस आकाशवाणी को सुनते ही देवी सती शांत हो गई। उनकी कांति फीकी पड़ गई। तब उन्होंने भगवान शिव से पूछा- हे प्राणनाथ! आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है ? कृपया आप मुझे बताइए परंतु भगवान शिव ने विवाह के समय भगवान विष्णु के समक्ष जो प्रतिज्ञा की थी, उसे सती को नहीं बताया। तब देवी सती ने भगवान शिव का ध्यान करके उन सभी कारणों को जान लिया, जिसके कारण भगवन ने उनका त्याग कर दिया था। त्याग देने की बात जानकर देवी सती अत्यंत दुखी हो गई। दुख बढ़ने के कारण उनकी आखों में आंसू आ गए और वह सिसकने लगीं। उनके मनोभावों को समझकर और देवी सती की ऐसी हालत देखकर भगवान शिव ने अपनी प्रतिज्ञा की बात उनके सामने नहीं कही। तब सती का मन बहलाने के लिए शिवजी उन्हें अनेकानेक कथाएं सुनाते हुए कैलाश की ओर चल दिए। कैलाश पर पहुंचकर, शिवजी अपने स्थान पर बैठकर समाधि लगाकर ध्यान करने लगे। सती ने दुखी मन से अपने धाम में रहना शुरू कर दिया।  भगवान शिव को समाधि में बैठे बहुत समय बीत गया। तत्पश्चात शिवजी ने अपनी समाधि तोड़ी। जब देवी सती को पता चला तो वे तुरंत शिवजी के पास दौड़ी चली आई। वहां आकर उन्होंने शिवजी के चरणों में प्रणाम किया। भगवान शिव ने उन्हें अपने सम्मुख आसन दिया और उन्हें प्रेमपूर्वक बहुत सी कथाएं सुनाई। इससे देवी सती का शोक दूर हो गया परंतु शिवजी ने अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी है नारद ऋषि-मुनि आदि सभी शिव और सती की इन कथाओं को उनकी लीला का ही रूप मानते हैं क्योंकि वे तो साक्षात परमेश्वर हैं। एक-दूसरे के पूरक हैं। भला उनमें वियोग कैसे संभव हो सकता है। सती और शिव वाणी और अर्थ की भांति एक-दूसरे से मिले हुए हैं उनमें वियोग होना असंभव है। उनकी इच्छाओं और लीलाओं से ही उनमें वियोग हो सकता है।
श्रीरुद्र संकेत-लिपि द्वितीय खंड पच्चीसवां अध्याय समाप्त

दक्ष का भगवान शिव को शाप देना( छब्बीसवां अध्याय)

ब्रह्माजी बोले- हे नारद! पूर्वकाल में समस्त महात्मा और ऋषि प्रयाग में इकट्ठा हुए। वहां पर उन्होंने एक बहुत विशाल यज्ञ का आयोजन किया था। उस यज्ञ में देवर्षि, देवता, ऋषि- मुनि, साधु-संत, सिद्धगण तथा ब्रह्म का साक्षात्कार करने वाले महान ज्ञानी पधारे। जिसमें में स्वयं अपने महातेजस्वी निगमों-आगमों सहित परिवार को लेकर वहां पहुंचा। वहां बहुत बड़ा उत्सव हो रहा था। अनेक शास्त्रों में ज्ञान की चर्चा एवं वाद-विवाद हो रहा था। उस यज्ञ में त्रिलोकीनाथ भगवान शिव भी देवी सती और अपने गणों सहित पधारे थे। भगवान शिव को वहां आया देख मैंने सभी देवताओं, ऋषियों-मुनियों ने उन्हें झुककर, भक्तिभाव से प्रणाम किया तथा अनेक प्रकार से उनकी स्तुति की। शिवजी की आज्ञा पाकर सभी ने अपना आसन ग्रहण कर लिया। इसी समय प्रजापति दक्ष भी वहां आ पहुंचे। वे बड़े ही तेजस्वी थे। प्रजापति दक्ष ने मुझे प्रणाम करके अपना आसन ग्रहण कर लिया। वे ब्रह्माण्ड के अधिपति थे। इसी कारण उन्हें अपने पद का घमंड हो गया था। उनके मन में अहंकार ने घर कर लिया था। ब्रह्माण्ड के अधिपति होने के कारण वे सभी देवताओं के वंदनीय थे। सभी ऋषि-मुनियों सहित देवर्षियों ने भी मस्तक झुकाकर प्रजापति दक्ष को प्रणाम किया और उनकी स्तुति कर उनका आदर-सत्कार किया। परंतु त्रिलोकीनाथ भगवान शिव शंभु ने न तो उन्हें प्रणाम किया और न ही अपने आसन से उठकर दक्ष का स्वागत किया। इस बात पर दक्ष क्रोधित हो गए। ज्ञानशून्य होने के कारण प्रजापति दक्ष ने क्रोधित नेत्रों से महादेव जी को देखा और सबको सुनाते हुए उच्च स्वर में कहने लगे। प्रजापति दक्ष बोले- सभी देवता, असुर, ब्राह्मण, ऋषि-मुनि सभी मुझे नम्रतापूर्वक प्रणाम कर मेरे आगे सिर झुकाते हैं। ये सभी उत्तम भक्ति भाव से मेरी आराधना करते हैं परंतु सदैव प्रेतों और पिशाचों से घिरा रहने वाला यह दुष्ट मनुष्य क्यों मुझे देखकर अनदेखा कर रहा है?
Daksha's curse on Lord Shiva

स्मशान में निवास करने वाला यह निर्लज्ज जीव क्यों मेरे सामने मस्तक नहीं झुकाता? भूत-पिशाचों का साथ करने के कारण क्या यह शास्त्रों की विधि भी भूल गया है। इसने नीति के मार्ग को भी कलंकित किया है। इसके साथ रहने वाले या इसकी बातों का अनुसरण करने वाले मनुष्य पाखण्डी, दुष्ट और पाप का आचरण करने वाले होते हैं। वे ब्राह्मणों की बुराई करते हैं तथा स्त्रियों के प्रति आकर्षित होते हैं। यह रुद्र चारों वर्णों से पृथक और कुरूप है। इसलिए इस पावन यज्ञ से इसे बहिष्कृत कर दिया जाए। यह उत्तम कुल और जन्म से हीन है। अतः इसे यज्ञ में भाग न लेने दिया जाए। पुत्र! क्रोध से विवेक समाप्त हो जाता है। दक्ष ने शिव के लिए अपशब्द कहते समय उसके परिणाम पर तनिक भी विचार नहीं किया। अहंकार के कारण वह शिव के स्वरूप को भूल गया। वह यह भी भूल गया कि आदिशक्ति ने जिसका तप द्वारा वरण किया है, वह कोई साधारण मनुष्य, ऋषि या देव नहीं है। ब्रह्माजी बोले- हे नारद! दक्ष की ये बातें सुनकर भृगु आदि बहुत महर्षि रुद्रदेव को दुष्ट मानकर उनकी निंदा करने लगे ये बातें सुनकर नंदी को बुरा लगा। उनका क्रोध बढ़ने लगा और वे दक्ष को शाप देते हुए बोले कि हे महामूढ़! दुबुद्धि दक्ष! तू मेरे स्वामी देवाधिदेव महेश्वर को यज्ञ से निकालने वाला कौन होता है? जिनके स्मरण मात्र से यज्ञ सफल हो जाते हैं और तीर्थ पवित्र हो जाते हैं तू उन महादेव जी को कैसे शाप दे सकता है? मेरे स्वामी तू निर्दोष हैं और तूने अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए उन्हें शाप दिया है और उनका मजाक उड़ाया है। जिन सदाशिव ने इस जगत की सृष्टि की, इसका पालन किया और जो इसका संहार करते हैं, तू उन्हीं महेश्वर को शाप देता है। नंदी के ऐसे वचनों को सुनकर प्रजापति दक्ष के क्रोध की कोई सीमा न रही। वे आग- बबूला हो गए और नंदी समेत सभी रुद्रगणों को शाप देते हुए बोले- अरे दुष्ट रुद्रगणो में तुम्हें शाप देता हूं कि तुम सब वेदों से बहिष्कृत हो जाओ। तुम वैदिक मार्ग से भटक जाओ और सभी ज्ञानी मनुष्य तुम्हारा त्याग कर दें। तुम शिष्ट आचरण न करो और पाखंडी हो जाओ सिर पर जटा, शरीर पर भस्म एवं हड्डियों के आभूषण धारण कर मद्यपान (शराब का (सेवन) करो। जब दक्ष ने शिवजी के प्रिय पार्षदों को इस प्रकार शाप दे दिया तो नंदी बहुत क्रुद्ध हो गए। नंदी भगवान शिव के प्रिय पार्षद है। वे बड़े गर्व से दक्ष को उत्तर देते हुए बोले। नंदीश्वर ने कहा- हे दुर्बुद्धि दक्ष ! तुझे शिव तत्व का ज्ञान नहीं है। तूने अहंकार में शिवगणों को शाप दे दिया है। तेरे कहने पर भृगु आदि ब्राह्मणों ने भी अभिमान के कारण भगवान शिव का मजाक उड़ाया है। अतः में भगवान शिव के तेज के प्रभाव से तुझे शाप देता हूं कि तुझ जैसे अहंकारी मनुष्य, जो सिर्फ कर्मों के फल को देखते हैं, वेदवाद में फंसकर रह जाएंगे। उनका वेद तत्वज्ञान शून्य हो जाएगा। वे सदैव मोह-माया में ही लिप्त रहेंगे। वे पुरुषार्थ विहीन होंगे और स्वर्ग को ही महत्व देंगे। वे क्रोधी व लोभी होंगे। वे सदा ही दान लेने मैं लगे रहेंगे। हे दक्ष ! जो भी भगवान शिव को सामान्य देवता समझकर उनका अनादर करेगा, वह सदैव के लिए तत्वज्ञान से विमुख हो जाएगा। वह आत्मज्ञान को भूलकर पशु के समान हो जाएगा तथा यह दक्ष, जो कि कर्मों से भ्रष्ट हो चुका है, इसका मुख बकरे के समान हो जाएगा। इस प्रकार बहुत गुस्से से भरे नंदी ने जब दक्ष और ब्राह्मणों को शाप दिया तो वहां बहुत शोर मच गया। भगवान शिव मधुर वाणी में नदी को समझाने लगे कि वे शांत हो जाएं। प्रभु शिव बोले- नंदी! तुम तो परम ज्ञानी हो। तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिए। तुमने बिना कुछ जाने और समझे ही दक्ष तथा समस्त ब्राह्मण कुल को शाप दे दिया है। सच्चाई तो यह है कि मुझे कोई भी शाप छू ही नहीं सकता है। इसलिए तुम्हें अपने क्रोध पर नियंत्रण रखना चाहिए था। किसी की बुद्धि कितनी ही दूषित क्यों न हो, वह कभी वेदों को शाप नहीं दे सकता। नंदी! तुम तो सिद्धों को भी तत्वज्ञान का उपदेश देने वाले हो। तुम तो जानते हो कि में ही यज्ञ हूं, मैं ही यज्ञकर्म हूं। यज्ञ की आत्मा में हूं, यज्ञपरायण यजमान भी में हूं। फिर में कैसे यज्ञ से बहिष्कृत हो सकता हूँ? तुमने व्यर्थ ही ब्राह्मणों को शाप दे दिया है। ब्रह्माजी बोले- नारद! जब भगवान शिव ने अनेक प्रकार से नंदी को समझाया तो उनका क्रोध शांत हो गया। तब शिवजी अपने अन्य गणों व पार्षदों के साथ अपने निवास स्थान कैलाश पर्वत पर चले गए। क्रोध से भरे दक्ष भी ब्राह्मणों के साथ अपने स्थान पर चले गए परंतु उनके मन में महादेव जी के लिए क्रोध एवं ईर्ष्या का भाव ऐसा ही रहा। उन्होंने शिवजी के प्रति श्रद्धा को त्याग दिया और उनकी निंदा करने लगे। दिन-ब-दिन उनकी ईर्ष्या बढ़ती जा रही थी।
श्रीरुद्र संकेत-लिपि द्वितीय खंड छब्बीसवां अध्याय समाप्त

Comments