सृष्टि की उत्पत्ति दक्ष और प्रसूति से चौबीस कन्या का विवाह धर्म से कर दिया

सृष्टि की उत्पत्ति दक्ष और प्रसूति से चौबीस कन्या का विवाह

सृष्टि की उत्पत्ति 

ब्रह्माजी बोले-नारद! शब्द आदि पंचभूतों द्वारा पंचकरण करके उनके स्थूल, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी, पर्वत, समुद्र, वृक्ष और कला आदि से युगों और कालों की मैंने रचना की तथा और भी कई पदार्थ मैंने बनाए। उत्पत्ति और विनाश वाले पदार्थों का भी मैंने निर्माण किया है परंतु जब इससे भी मुझे संतोष नहीं हुआ तो मैंने मां अंबा सहित भगवान शिव का ध्यान करके सृष्टि के अन्य पदार्थों की रचना की और अपने नेत्रों से मरीच को, हृदय से भृगु को, सिर से अंगिरा को, कान से मुनिश्रेष्ठ पुलह को, उदान से पुलस्त्य को, समान से वशिष्ठ को, अपान से कृतु को, दोनों कानों से अत्री को, प्राण से दक्ष को और गोद से तुमको, छाया से कर्दम मुनि को उत्पन्न किया। सब साधनाओं के साधन धर्म को भी मैंने अपने संकल्प से प्रकट किया। मुनिश्रेष्ठ! इस तरह साधकों की रचना करके, महादेव जी की कृपा से मैंने अपने को कृतार्थ माना। मेरे संकल्प से उत्पन्न धर्म मेरी आज्ञा से मानव का रूप धारण कर साधन में लग गए। इसके उपरांत मैंने अपने शरीर के विभिन्न अंगों से देवता व असुरों के रूप में अनेक पुत्रों की रचना करके उन्हें विभिन्न शरीर प्रदान किए। तत्पश्चात भगवान शिव की प्रेरणा से मैं अपने शरीर को दो भागों में विभक्त कर दो रूपों वाला हो गया। मैं आधे शरीर से पुरुष व आधे से नारी हो गया। पुरुष स्वयंभुव मनु नाम से प्रसिद्ध हुए एवं उच्चकोटि के साधक कहलाए। नारी रूप से शतरूपा नाम वाली योगिनी एवं परम तपस्विनी स्त्री उत्पन्न हुई। मनु ने वैवाहिक विधि से अत्यंत सुंदरी, शतरूपा का पाणिग्रहण किया और मैथुन द्वारा सृष्टि को उत्पन्न करने लगे। उन्होंने शतरूपा से प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र तथा आकूति, देवहूति और प्रसूति नामक तीन पुत्रियां प्राप्त कीं। आकूति का 'रुचि' मुनि से, देवहूति का 'कर्दम' मुनि से तथा प्रसूति का 'दक्ष प्रजापति' के साथ विवाह कर दिया गया। इनकी संतानों से पूरा जगत चराचर हो गया। रुचि और आकूति के वैवाहिक संबंध में यज्ञ और दक्षिणा नामक स्त्री-पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ। यज्ञ की दक्षिणा से बारह पुत्र हुए। मुने! कर्दम और देवहूति के संबंध से बहुत सी पुत्रियां पैदा हुई।

दक्ष और प्रसूति से चौबीस कन्या 

दक्ष और प्रसूति से चौबीस कन्याएं हुईं। दक्ष ने तेरह कन्याओं का विवाह धर्म से कर दिया। 
ये तेरह कन्याएं -
  1. श्रद्धा,
  2. लक्ष्मी,
  3. धृति, 
  4. तुष्टि, 
  5. पुष्टि, 
  6. मेधा,
  7. क्रिया,
  8. बुद्धि, 
  9. लज्जा,
  10. वसु, 
  11. शांति, 
सिद्धि और कीर्ति हैं। अन्य ग्यारह कन्याओं - ख्याति, सती, संभूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, संनति, अनसूया, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा का विवाह भृगु, शिव, मरीचि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अत्रि, वशिष्ठ, अग्नि और पितर नामक मुनियों से संपन्न हुआ। इनकी संतानों से पूरा त्रिलोक भर गया। अंबिका पति महादेव जी की आज्ञा से बहुत से प्राणी श्रेष्ठ मुनियों के रूप में उत्पन्न हुए। कल्पभेद से दक्ष की साठ कन्याएं हुईं। उनमें से दस कन्याओं का विवाह धर्म से, सत्ताईस का चंद्रमा से, तेरह कन्याओं का विवाह कश्यप ऋषि से संपन्न हुआ । नारद! उन्होंने चार कन्याएं अरिष्टनेमि को ब्याह दीं। भृगु, अंगिरा और कुशाश्व से दो-दो कन्याओं का विवाह कर दिया। कश्यप ऋषि की संतानों से संपूर्ण त्रिलोक आलोकित है। देवता, ऋषि, दैत्य, वृक्ष, पक्षी, पर्वत तथा लताएं आदि कश्यप पत्नियों से पैदा हुए हैं। इस तरह भगवान शंकर की आज्ञा से ब्रह्माजी ने पूरी सृष्टि की रचना की । सर्वव्यापी शिवजी द्वारा तपस्या के लिए प्रकट देवी, जिन्हें रुद्रदेव ने त्रिशूल के अग्रभाग पर रखकर उनकी रक्षा की वे सती देवी ही दक्ष से प्रकट हुई थीं। उन्होंने भक्तों का उद्धार करने के लिए अनेक लीलाएं कीं। इस प्रकार देवी शिवा ही सती के रूप में भगवान शंकर की अर्धांगिनी बनीं। परंतु अपने पिता के यज्ञ में अपने पति का अपमान देखकर उन्होंने अपने शरीर को यज्ञ की अग्नि में भस्म कर दिया। देवताओं की प्रार्थना पर ही वे मां सती पार्वती के रूप में प्रकट हुईं और कठिन तपस्या करके उन्होंने पुनः भगवान भोलेनाथ को प्राप्त कर लिया। वे इस संसार में कालिका, चण्डिका, भद्रा, चामुण्डा, विजया, जया, जयंती, भद्रकाली, दुर्गा, भगवती, कामाख्या, कामदा, अंबा, मृडानी और सर्वमंगला आदि अनेक नामों से पूजी जाती हैं। देवी के ये नाम भोग और मोक्ष को देने वाले हैं। मुनि नारद! इस प्रकार मैंने तुम्हें सृष्टि की उत्पत्ति की कथा सुनाई है। पूरा ब्रह्माण्ड भगवान शिव की आज्ञा से मेरे द्वारा रचा गया है। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र आदि तीनों देवता उन्हीं महादेव के अंश हैं। भगवान शिव निर्गुण और सगुण हैं। वे शिवलोक में शिवा के साथ निवास करते हैं।
श्रीरुद्र संहिता सोलहवां अध्याय  समाप्त

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