दक्ष के सिर को वीरभद्र ने अग्निकुंड में डाल दधीचि क्षुव विवाद

दक्ष के सिर को वीरभद्र ने अग्निकुंड में डाल दधीचि क्षुव विवाद

यह कथा वीरभद्र के महाकाली रूप में यज्ञशाला में हुई विजय की घटना को वर्णित करती है, जिसमें उन्होंने दक्ष को प्रहार कर यज्ञ का संपूर्ण विनाश किया। इस समय वीरभद्र को भगवान शिव के अवतार के रूप में देखा जाता है, जो भक्तों की रक्षा के लिए अपने गणों के साथ आएं हैं।

दक्ष के सिर को वीरभद्र ने अग्निकुंड में डाल


हे नारद! यज्ञशाला में उपस्थित सभी देवताओं को डराकर और मारकर वीरभद्र ने वहां से भगा दिया और जो बाकी बचे उनको भी मार डाला। तब उन्होंने यज्ञ के आयोजक दक्ष को, जो कि भय के मारे अंतर्वेदी में छिपा था, बलपूर्वक पकड़ लिया। वीरभद्र ने दक्ष के शरीर पर अनेकों वार किए। वे दक्ष का सिर तलवार से काटने लगे। परंतु दक्ष के योग के प्रभाव से वह सिर काटने में असफल रहे। वीरभद्र ने दक्ष की छाती पर पैर रखकर दोनों हाथों से उसकी गरदन मरोड़कर तोड़ दी। तत्पश्चात दक्ष के सिर को वीरभद्र ने अग्निकुंड में डाल दिया। उस महान यज्ञ का संपूर्ण विनाश करने के उपरांत वीरभद्र और सभी गण जीत की खुशी के साथ कैलाश पर्वत पर चले गए और शिवजी को अपनी विजय की सूचना दी। इस समाचार को पाकर महादेव जी बहुत प्रसन्न हुए।
इस कथा से हमें भक्ति, श्रद्धा, और देवता के आदेश का पालन करने के महत्व का सिखने को मिलता है, और यह भी दिखाता है कि भगवान के भक्त को कैसे अपने अद्भुत रूप में उद्दीपित किया जा सकता है।
श्रीरुद्र संकेत-लिपि द्वितीय खंड सैंतीसवां अध्याय  समाप्त

दधीचि क्षुव विवाद

सूत जी कहते हैं - हे महर्षियो! ब्रह्माजी के द्वारा कही हुई कथा को सुनकर नारद जी आचर्यचकित हो गए तथा उन्होंने ब्रह्माजी से पूछा कि भगवान विष्णु शिवजी को छोड़कर अन्य देवताओं के साथ दक्ष के यज्ञ में क्यों चले गए? क्या वे अद्भुत पराक्रम वाले भगवान शिव को नहीं जानते थे? क्यों श्रीहरि ने रुद्रगणों के साथ युद्ध किया? कृपया कर मेरे अंदर उठने वाले इन प्रश्नों के उत्तर देकर मेरी शंकाओं का समाधान कीजिए। ब्रह्माजी ने नारद जी के प्रश्नों के उत्तर देते हुए कहा- हे मुनिश्रेष्ठ नारद। पूर्व काल में राजा की सहायता करने वाले श्रीहरि को दधीचि मुनि ने शाप दे दिया था। इसलिए वे भूल गए और दक्ष के यज्ञ में चले गए। प्राचीन काल में दधीचि मुनि महातेजस्वी राजा क्षुव के मित्र थे परंतु बाद में उन दोनों के बीच बहुत विवाद खड़ा हो गया। विवाद का कारण मुनि दधीचि का चार वर्णो-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में ब्राह्मणों को श्रेष्ठ बताना था परंतु राजा क्षुव जो कि धन वैभव के अभिमान में डूबे हुए थे, इस बात से पूर्णतः असहमत थे। क्षुव सभी से वर्णों में राजा को ही श्रेष्ठ मानते थे। राजा को सर्वश्रेष्ठ और सर्ववेदमय माना जाता है। यह श्रुति भी कहती है। इसलिए ब्राह्मण से ज्यादा राजा श्रेष्ठ है। हे दधीचि! आप मेरे लिए आदरणीय है। राजा क्षुव के कथन को सुनकर दधीचि को क्रोध आ गया। उन्होंने इसे अपना अपमान समझा और क्षुव के सिर पर मुक्के का प्रहार कर दिया। दधीचि के इस व्यवहार से मद में चूर क्षुव को और अधिक क्रोध आ गया। उन्होंने वज्र से दधीचि पर प्रहार कर दिया। वज्र से घायल हुए दधीचि मुनि ने पृथ्वी पर गिरते हुए योगी शुक्राचार्य का स्मरण किया। शुक्राचार्य ने तुरंत आकर दधीचि मुनि के शरीर को पूर्ववत कर दिया। शुक्राचार्य ने दधीचि से कहा कि में तुम्हें महामृत्युंजय का मंत्र प्रदान करता हूँ। 'त्रयम्बकं यजामहे' अर्थात हम तीनों लोकों के पिता भगवान शिव, जो सूर्य, सोम और अग्नि तीनों मण्डलों के पिता है, सत्व, रज और तम आदि तीनों गुणों के महेश्वर हैं, जो आत्मतत्व, विद्यातत्व और शिव तत्व, पृथ्वी, जल व तेज सभी के स्रोत हैं। जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों आधारभूत देवताओं के भी ईश्वर महादेव हैं, उनकी आराधना करते हैं। 'सुगंधिम् पुष्टिवर्धनम्' अर्थात जिस प्रकार फूलों में खुशबू होती है, उसी प्रकार भगवान शिव भूतों में, गुणों में, सभी कार्यों में इंद्रियों में, अन्य देवताओं में और अपने प्रिय गणों में क्षारभूत आत्मा के रूप में समाए हैं। उनकी सुगंध से ही सबकी ख्याति एवं प्रसिद्धि है। 'पुष्टिवर्धनम्' अर्थात वे भगवान शिव ही प्रकृति का पोषण करते हैं। वे ही ब्रह्मा, विष्णु, मुनियों एवं सभी देवताओं का पोषण करते हैं। उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्' अर्थात जिस प्रकार खरबूजा पक जाने पर लता से टूटकर अलग हो जाता है उसी प्रकार में भी मृत्युरूपी बंधन से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करूं। हे रुद्रदेव! आपका स्वरूप अमृत के समान है। जो पुण्यकर्म, तपस्या, स्वाध्याय, योग और ध्यान से उनकी आराधना करता है, उसे नया जीवन प्राप्त होता है। भगवान शिव अपने भक्त को मृत्यु के बंधनों से मुक्त कर देते हैं और उसे मोक्ष प्रदान करते हैं। जैसे उर्वारुक अर्थात ककड़ी को उसकी बेल अपने बंधन में बांधे रखती है। और पक जाने पर स्वयं ही उसे बंधन मुक्त कर देती है। यह महामृत्युंजय मंत्र संजीवनी मंत्र है। तुम नियमपूर्वक भगवान शिव का स्मरण करके इस मंत्र का जाप करो। इस मंत्र से अभिमंत्रित जल को पियो इस मंत्र का जाप करने से मृत्यु का भय नहीं रहता। इसके विधिवत पूजन करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं। वे सभी कार्यों की सिद्धि करते हैं तथा सभी बंधनों से मुक्त कर मोक्ष प्रदान करते हैं। ब्रह्माजी बोले- नारद! दधीचि मुनि को इस प्रकार उपदेश देकर शुक्राचार्य अपने निवास पर चले गए। उनकी बातों का दधीचि मुनि पर बड़ा प्रभाव पड़ा और वे भगवान शिव का स्मरण कर उन्हें प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने वन में चले गए। वन में उन्होंने प्रेमपूर्वक भगवान शिव का चिंतन करते हुए उनकी तपस्या आरंभ कर दी। दीर्घकाल तक वे महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते रहे। उनकी इस निःस्वार्थ भक्ति से भक्तवत्सल भगवान शिव प्रसन्न होकर उनके सामने प्रकट हो गए। दधीचि ने दोनों हाथ जोड़कर शिवजी को प्रणाम किया। उन्होंने महादेव जी की बहुत स्तुति की। शिव ने कहा- मुनिश्रेष्ठ दधीचि में तुम्हारी इस उत्तम आराधना से बहुत प्रसन्न हुआ हूं। तुम वर मांगों में तुम्हें मनोवांछित वस्तु प्रदान करूंगा। यह सुनकर दधीचि हाथ जोड़े नतमस्तक होकर कहने लगे- हे देवाधिदेव ! करुणानिधान! महादेव जी! अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे तीन वर प्रदान करें। पहला यह कि मेरी अस्थियां वज्र के समान हो जाएं। दूसरा कोई मेरा वध न कर सके अर्थात में हमेशा अवध्य रहूं और तीसरा कि में हमेशा आदीन रहूं। कभी दीन न होऊं। शिवजी ने 'तथास्तु' कहकर तीनों वर दधीचि को प्रदान कर दिए। तीनों मनचाहे वरदान मिल जाने पर दधीचि मुनि बहुत प्रसन्न थे। वे आनंदमग्न होकर राजा क्षुव के स्थान की ओर चल दिए। वहां पहुंचकर दधीचि ने क्षुव के सिर पर लात मारी। क्षुव विष्णु जी का परम भक्त था राजा होने के कारण वह भी अहंकारी था। उसने क्रोधित हो तुरंत दधीचि पर वज्र से प्रहार कर दिया परंतु क्षुव के प्रहार से दधीचि मुनि का बाल भी बांका नहीं हुआ। यह सब महादेव जी के वरदान से ही हुआ था। यह देखकर क्षुव को बड़ा आश्चर्य हुआ। तब उन्होंने वन में जाकर इंद्र के भाई मुकुंद की आराधना शुरू कर दी। तब विष्णुजी ने प्रसन्न होकर क्षुव को दिव्य दृष्टि प्रदान की। क्षुव ने विष्णुजी को प्रणाम कर उनकी भक्तिभाव से स्तुति की। तत्पश्चात क्षुव बोले- भगवन, मुनिश्रेष्ठ दधीचि पहले मेरे मित्र थे परंतु बाद में हम दोनों के बीच में विवाद उत्पन्न हो गया। दधीचि ने परम पूजनीय भगवान शिव की तपस्या महामृत्युंजय मंत्र से कर उन्हें प्रसन्न किया तथा अवध्य रहने का वरदान प्राप्त कर लिया। तब उन्होंने मेरी राजसभा में मेरे समस्त दरबारियों के बीच मेरा घोर अपमान किया। उन्होंने सबके सामने मेरे मस्तक पर अपने पैरों से आघात किया। साथ ही उन्होंने कहा कि में किसी से नहीं डरता। भगवन्! मुनि दधीचि को बहुत घमंड हो गया है। ब्रह्माजी बोले- नारद! जब श्रीहरि को इस बात का ज्ञान हुआ कि दधीचि मुनि को महादेव जी द्वारा अवध्य होने का आशीर्वाद प्राप्त है, तो वे कहने लगे कि क्षुव महादेव जी के भक्तों को कभी भी किसी प्रकार का भी भय नहीं होता है। यदि में इस विषय में कुछ करूं तो दधीचि को बुरा लगेगा और वे शाप भी दे सकते हैं। उन्हीं दधीचि के शाप से दक्ष यज्ञ में मेरी शिवजी से पराजय होगी इसलिए में इस संबंध में कुछ नहीं करना चाहता परंतु ऐसा कुछ जरूर करूंगा, जिससे आपको विजय प्राप्त हो। भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर राजा चुप हो गए।

श्रीरुद्र संकेत-लिपि द्वितीय खंड अड़तीसवां अध्याय समाप्त

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