शत्रुघ्न राम के भाई शत्रुघ्न ने ही क्यों मारा लवणासुर जानिए पूरी कहानी

शत्रुघ्न राम के भाई

शत्रुघ्न ने ही क्यों मारा लवणासुर जानिए पूरी कहानी

शत्रुघ्न, रामायण के अनुसार,

राजा दशरथ के सबसे छोटे पुत्र थे, उनकी माता सुमित्रा थी। वे राम के भाई थे, उनके अन्य भाई थे भरत और लक्ष्मण। शत्रुघ्न और लक्ष्मण जुड़वा भाई थे
उनके दो बेटे थे- सुबाहु और शत्रुघाती। शत्रुघ्न की पत्नी का नाम श्रुतकीर्ति था जो कुशध्वज की बेटी थी। 
पुराणों के अनुसार शत्रुघ्न भगवान नारायण के प्रमुख अस्त्र सुदर्शन चक्र के अवतार थे।श्रीराम को वनवास हो गया तो लक्ष्मण जी भी उनके साथ हो लिए भरत अपराध बोध से भर उठे और अयोध्या से बाहर नंदीग्राम में कुटी बनाकर तपस्वी का जीवन जीने लगे ,एक मात्र शत्रुघ्न थे जो अयोध्या का उत्तरदायित्व शासन प्रशासन संभाल रहे थे तो दूसरी तरफ माताओं की देखभाल कर रहे थे साथ ही अधिकांश समय भरत की सेवा भी कर रहे थे ऐसे महान त्यागी भाई का रामायण में पर्याप्त उल्लेख नहीं हो पाया क्योंकि 14 साल अयोध्या पूर्णत: सुरक्षित रही लगभग घटना शून्य,पूर्णत: शांत ,यह शत्रुघ्न का पराक्रम ही कहा जायेगा कि अयोध्या पूर्णत सुरक्षित रही।
रचनाकार
दशरथ (पिता), सुमित्रा (माता)
सम्बद्धता सुदर्शन चक्र के अवतार
उपाधि शत्रुओं एवं दुरचरियोन के परम वधकर्ता
परिवार राम , लक्ष्मण, भरत और शांता ,
जीवनसाथी श्रुतकीर्ति
शत्रुघ्न का काम यहीं नहीं रुका ,राम के वापस आने के लगभग एक साल बाद  मथुरा क्षेत्र के साधु संन्यासियों ने राम से शिकायत की मधुपुरी का राजा लवणासुर पूजा पाठ और यज्ञ आदि कर्म नहीं करने देता ,साधु संन्यासियों को क्रूरता पूर्वक मार देता है ।

शत्रुघ्न ने लवणासुर का वध करने का निर्णय लिया

शत्रुघ्न ने लवणासुर का वध करने का निर्णय लिया भगवान राम ने उन्हें दिव्यास्त्र प्रदान किये और शत्रुघ्न ने योजना बनाकर महाशक्तिशाली लवणासुर का वध कर दिया भगवान शिव के एक वरदान लवणासुर अजेय माना जाता था। वर्तमान में सप्तपुरियों में एक  मथुरापुरी की स्थापना राजकुमार शत्रुघ्न ने ही की थी । शत्रुघ्न के पुत्र वर्तमान विदिशा शहर के शासक रहे। अधिक उल्लेख तो नहीं मिलता। शत्रुघ्न लगभग 12 वर्ष तक मथुरा के शासक रहे
इस तरह अयोध्या और मथुरा को मिला कर लगभग 26 साल शासन कार्य देखते रहे बाद में भगवान राम के साथ तपस्या करने के लिए ऋषिकेश चले गये वहां मुनि की रेती नामक स्थान पर तपस्या करते हुये उन्होंने देह का त्याग किया । वर्तमान में देश भर में शत्रुघ्न के अनेक मंदिर हैं इन मंदिरों में लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण होती है। भगवान राम के ये अनुज राम के परमभक्त और आदर्शों में में उन्हीं के समान महान चरित्र से संपन्न रहे है।शत्रुघ्न के बारे में भगवान श्री राम के वनवास के दौरान की गतिविधियो का कोई उल्लेख नहीं है

लवणासुर कितना ताकतवर था? उसे शत्रुघ्न ने ही क्यों मारा जानिए

जब श्रीराम अपने दरबार में बैठे थे, उसी समय यमुना तट निवासी कुछ ऋषि-महर्षि च्यवन ऋषि के साथ दरबार में पधारे। कुशल क्षेम के पश्‍चात् उन्होंने बताया, "महाराज! इस समय हम बड़े दुःखी हैं। लवण नामक एक भयंकर राक्षस ने यमुना तट पर भीषण उत्पात मचा रखा है। उसके अत्याचारों से त्राण पाने के लिये हम बड़े-बड़े राजाओं के पास गये परन्तु कोई भी हमारी रक्षा न कर सका, आपकी यशो-गाथा सुनकर, अब हम आपकी शरण में आये हैं। हमें आशा है आप निश्‍चय ही हमारा भय दूर करेंगे।" ऋषियों के यह वचन सुनकर सत्य-प्रतिज्ञ श्री राम बोले, "हे महर्षियों! यह समस्त राज्य और मेरे प्राण भी आपके लिये ही हैं। मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं उस दुष्ट के वध का उपाय शीघ्र ही करूँगा, आप मुझे उसके विषय में विस्तार से बतायें।"
च्यवन ऋषि बोले, "हे राजन्! सतयुग में लीला नामक दैत्य का पुत्र मधु बड़ा शक्‍तिशाली और बुद्धिमान राक्षस था। उसने भगवान शंकर की तपस्या करके उनसे अपने तथा अपने वंश के लिये एक ऐसा शूल प्राप्त किया था, जो शत्रु का विनाश करके वापस उसके पास आ जाता था। उन्होंने यह भी वर दिया कि जिसके हाथ में जब तक यह शूल रहेगा, तब तक वह अवध्य रहेगा, उसी मधु का पुत्र लवण है, जो अत्यन्त दुष्टात्मा है और उस शूल के बल पर हमें निरन्तर कष्ट देता है। वह प्रायः किसी न किसी ऋषि, मुनि, तपस्वी को अपना आहार बनाता है। वन के प्राणियों, मनुष्यादि किसी को भी वह नहीं छोड़ता।"
यह सुनकर राम ने सब भाइयों को बुलाकर पूछा, "इस राक्षस को मारने का भार कौन अपने ऊपर लेना चाहता है?"यह सुनकर शत्रुघ्न बोले, "प्रभो! लक्ष्मण ने आपके साथ रहते हुये बहुत से राक्षसों का संहार किया है। भैया भरत ने भी आपकी अनुपस्थिति में नन्दीग्राम में रहते हुये अनेक दैत्यों को मौत के घाट उतारा है। इसलिये लवणासुर से निपटने का कार्य मुझे सौंपने की कृपा करें।" श्री राम बोले, "ठीक है, तुम ही लवणासुर का संहार करो और उसे मार के मधुपुर में अपना राज्य सथापित करो, मैं तुम्हें वहाँ का राजसिंहासन सौंपता हूँ।"फिर उन्होंने शत्रुघ्न को एक अद्‍भुत अमोघ बाण देकर कहा,"इस अद्‍भुत बाण से ही मधु और कैटभ नामक राक्षसों का, विष्णु ने वध किया था। इससे लवणासुर अवश्य मारा जायेगा। एक बात का ध्यान रखना कि वह अपने शूल को महल के अन्दर एक प्रकोष्ठ में रखकर नित्य उसका पूजन करता है। जब वह तुम्हें अपने महल के बाहर दिखाई दे तभी तुम उसे युद्ध के लिये ललकारना? अभिमान के कारण वह तुमसे युद्ध करने लगेगा और शूल के लिये महल के अन्दर जाना भूल जायेगा। इस प्रकार वह रणभूमि में तुम्हारे हाथ से मारा जायेगा।" बड़े भाई की आज्ञा पाकर शत्रुघ्न ने विशाल सेना लेकर श्रीराम द्वारा दिय गये निर्देशों के अनुसार लवणासुर को मारने की योजना बनाई, उन्होंने सेना को ऋषियों के साथ आगे भेज दिया। एक माह पश्‍चात् उन्होंने अपनी माताओं, गुरुओं और भाइयों की परिक्रमा एवं प्रणाम कर अकेले ही प्रस्थान किया।
लवणासुर अपने पुर से बाहर निकला, तब ही शत्रुघ्न हाथ में धनुष बाण ले मधुपुरी को घेर कर खड़े हो गये। दोपहर होने पर वह क्रूर राक्षस हजारों मरे हुये जीवों को लेकर वहाँ आया तो शत्रुघ्न ने उसे द्वन्द्व युद्ध के लिये ललकारा। अभिमानी लवण तत्काल उनसे युद्ध करने के लिये तैयार हो गया और बोला, "तेरे भाई ने रावण को मारा था जो मेरी मौसी शूर्पणखा का भाई था, आज मैं उसका बदला तुझसे लूँगा। तुझे पता नहीं, अब तक मैं बड़े-बड़े शूरवीरों को धराशायी कर चुका हूँ तेरी भला क्या गिनती है?" यह सुनकर शत्रुघ्न बोले,"नराधम! जब तूने उन वीरों को धराशायी किया होगा तब शत्रुघ्न का जन्म नहीं हुआ था। आज मैं तुझे अपने तीक्ष्ण बाणों से सीधा यमलोक का रास्ता दिखाउँगा।" यह सुनते ही लवण ने क्रोध कर एक वृक्ष उखाड़ कर शत्रुघ्न को मारा, परन्तु उन्होंने मार्ग में ही उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये। फिर उन्होंने उस पर बाणों की झड़ी लगा दी, किन्तु लवण इस आक्रमण से तनिक भी विचलित नहीं हुआ।
उल्टे उसने शीघ्रता से एक भारी वृक्ष उखाड़ कर उनके सिर पर मारा जिससे उन्हें क्षणिक मूर्छा आ गई। मूर्छित शत्रुघ्न को मरा हुआ समझ, वह अपना आहार जुटाने और सैनिकों को खाने लग गया। अपना शूल लेने नहीं गया। मूर्छा भंग होते ही शत्रुघ्न ने रघुनाथजी द्वारा दिया हुआ अमोघ बाण लेकर उसके वक्षस्थल पर छोड़ दिया, वह बाण लवण का हृदय चीरता हुआ रसातल में घुस गया और फिर शत्रुघ्न के पास लौट आया, उधर लवणासुर ने भयंकर चीत्कार करके अपने प्राण त्याग दिये।
शत्रुघ्न ने उस नगर को फिर से बसाकर उसका नाम मधुपुरी रखा, थोड़े ही दिनों में नगर सब प्रकार से सुख सम्पन्न हो गया। इस नगर को नवीन रूप पाने में बारह वर्ष लग गये। फिर एक सप्ताह के लिये शत्रुघ्न अयोध्या चले गए।

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