धात्री, मालती और तुलसी का आविर्भाव ! शंखचूर्ण की उत्पत्ति ,Appearance of Dhatri, Malti and Tulsi! Origin of conch powder,

धात्री, मालती और तुलसी का आविर्भाव ! शंखचूर्ण की उत्पत्ति

धात्री, मालती और तुलसी का आविर्भाव

व्यास जी बोले- हे ब्रह्मापुत्र सनत्कुमार जी ! जब भगवान श्रीहरि विष्णु की माया से मोहित होकर जलंधर पत्नी वृंदा छद्म भेष धारण किए विष्णुजी को अपना पति मानकर उनके साथ रमण करने लगी तब श्रीहरि की भी उनसे प्रीति जुड़ गई। सच्चाई जान लेने के बाद कि जलंधर के रूप में भगवान श्रीहरि ने उसके साथ छल किया है, उसने अग्नि में जलकर अपने प्राणों की आहुति दे दी। तब फिर आगे क्या हुआ? भगवान विष्णु कहां गए और उन्होंने क्या किया? तुलसी के रूप में वृंदा का जन्म कैसे और कब हुआ ? कृपया वह कथा मुझे बताइए । सनत्कुमार जी बोले – हे महर्षे! मैं आपके सभी प्रश्नों का उत्तर देता हूं। मेरी कथा सुनिए, आपकी सभी जिज्ञासाएं दूर हो जाएंगी। जब वृंदा ने विष्णुजी द्वारा ठगे जाने पर अपने शरीर का त्याग कर दिया तो भगवान विष्णु को बहुत दुख हुआ और वे वृंदा की चिता की राख को अपने शरीर पर लपेट कर इधर-उधर मारे-मारे फिरने लगे। इधर, जब देवताओं को भगवान श्रीहरि विष्णु की इस हालत के बारे में पता चला तो सब बहुत चिंतित हुए। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें? जगत के पालनकर्ता भगवान विष्णु को इस तरह दर-दर भटकना शोभा नहीं देता। जब देवताओं को इस समस्या का कोई हल नहीं सूझा तब वे देवाधिदेव भगवान शिव की शरण में गए। ब्रह्माजी को साथ लेकर देवराज इंद्र देवताओं सहित कैलाश पर्वत पर पहुंचे। वहां उन्होंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे। तत्पश्चात शिव के पूछने पर देवताओं ने वहां आने का प्रयोजन शिवजी को बताया। देवताओं ने कहा- हे देवाधिदेव ! करुणानिधान! भक्तवत्सल शिव! आप तो सर्वेश्वर हैं, सर्वज्ञाता हैं। इस संसार की कोई बात आपसे छिपी नहीं है। भगवन्! भगवान श्रीहरि विष्णु ने दैत्यराज जलंधर की पत्नी वृंदा को जलंधर का रूप लेकर ठगा परंतु उसके साथ-साथ रहते श्रीविष्णु की उनमें प्रीति हो गई और अब वे उनका वियोग सह नहीं पा रहे हैं। वे अपने शरीर पर वृंदा की चिता की आग लपेटकर जोगी बनकर इधर-उधर घूम रहे हैं। प्रभो! आप उन्हें समझाइए कि वे ऐसा न करें। भगवन्! यह जगत आपके अधीन है और आपको ही इस समय उनकी मदद करनी है, ताकि वे पहले की भांति होकर अपने कार्यों को पूरा करें। देवताओं की इस प्रकार की प्रार्थना सुनकर भगवान शिव बोले- हे ब्रह्माजी! हे देवराज इंद्र व अन्य देवताओ! यह सारा जगत माया के अधीन है परंतु इस जगत की जननी मूल प्रकृति परम मनोहर महादेवी पार्वती इस माया के वशीभूत नहीं हैं। उन पर इस माया जाल का कोई असर नहीं पड़ता। 

इसलिए आप भगवान श्रीहरि विष्णु के इस मोहमाया के जाल को दूर करने के लिए आदि देवी प्रकृति की आधारभूत देवी पार्वती की शरण में जाइए। यदि आपके द्वारा वे प्रसन्न हो गईं तो आपकी हर एक समस्या का समाधान हो जाएगा और वे आपके कार्यों को पूर्ण करेंगी। देवाधिदेव महादेव भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर सभी देवताओं को अत्यंत प्रसन्नता हुई और वे भगवान शिव से आज्ञा लेकर मूल प्रकृति की शरण में चले गए। इस प्रकार जब देवता प्रकृति देवी की शरण में जा रहे थे, उस समय वहां आकाशवाणी हुई- हे देवताओ! मैं ही तीन प्रकार से तीनों प्रकार के गुणों से अलग होकर निवास करती हूं। मैं सत्यगुण में गौरा बनकर, रजोगुण में लक्ष्मी और तमोगुण में ज्योति बनकर इस जगत को आलोकित करती हूं। इसलिए आप अपनी इच्छापूर्ति हेतु देवी जगदंबा की शरण में जाओ। वे अवश्य ही तुम्हारी मनोकामना पूरी करेंगी। यह आकाशवाणी सुनते ही सभी देवता गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती को हाथ जोड़कर प्रणाम करने लगे और मन में उनका वंदन और स्तुति करने लगे। इस प्रकार जब देवताओं ने शुद्ध हृदय से तीनों देवियों का स्मरण किया। तब वे तीनों देवियां वहां प्रकट हो गईं। देवियों को साक्षात अपने सामने पाकर देवता बहुत हर्षित हुए और गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती की वंदना और पूजन-अर्चन करने लगे।
तब तीनों देवियों ने मुस्कराकर कहा - हे देवताओ ! हम तीनों देवियां तुम्हारी स्तुति से बहुत प्रसन्न हैं। तुम जो कुछ चाहते हो, हमें बताओ। हम तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूर्ण करेंगी। देवियों के इस कथन को सुनकर देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हुए देवराज इंद्र ने भगवान श्रीहरि विष्णु के बारे में सबकुछ गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती देवी को बता दिया। तब उन्होंने कुछ बीज देवताओं को दिए और कहा कि ये बीज ले जाकर तुम देवी वृंदा की चिता की राख में बो दो। ऐसा करने से तुम्हारे अभीष्ट कार्यों की सिद्धि होगी। उन बीजों को लेकर देवताओं ने तीनों देवियों का धन्यवाद व्यक्त किया। तब देवियां वहां से अंतर्धान हो गईं। तत्पश्चात ब्रह्माजी सहित सभी देवता उस स्थान पर पहुंचे, जहां देवी वृंदा ने अपने प्राणों की आहुति अग्नि में दी थी। वहां पहुंचकर उन्होंने देवी द्वारा दिए गए उन बीजों को वृंदा की चिता की राख में डाल दिया। तब उन बीजों में से कुछ दिन पश्चात धात्री, मालती और तुलसी नामक वनस्पतियां पैदा हुईं। देवी सरस्वती द्वारा दिए गए बीजों से धात्री, देवी महालक्ष्मी के बीजों से मालती और देवी गौरी के बीजों से तुलसी का आविर्भाव हुआ। जैसे ही धात्री, मालती और तुलसी नामक ये स्त्री रूपी वनस्पतियां उत्पन्न हुई और भगवान श्रीहरि विष्णु ने उन्हें देखा तो उन पर से माया का परदा हट गया और वे पहले की भांति हो गए। वे उन वनस्पतियों पर अपनी कृपादृष्टि रखने लगे और तभी से धात्री, मालती और तुलसी नामक इन वनस्पतियों को भी विष्णुजी से विशेष अनुराग हो गया। तब भगवान श्रीहरि विष्णु पुनः बैकुण्ठ लोक को चले गए।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (पंचम खंड) छब्बीसवां अध्याय  समाप्त

शंखचूर्ण की उत्पत्ति

सनत्कुमार जी बोले- हे महामुने! शंखचूर्ण नाम का एक दैत्य था। जिसका वध भगवान शिव ने स्वयं अपने हाथों से त्रिशूल मारकर किया था। अब मैं आपको उस शंखचूर्ण नामक दैत्य के विषय में बताता हूं। हे मुने! आप यह जानते ही हैं कि विधाता के पुत्र मरीचि हु हैं और उनके पुत्र महर्षि कश्यप हुए। मरीचि के पुत्र कश्यप मुनि बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति के संत थे। वे बड़े ही धर्मात्मा थे और इस सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्माजी की हर आज्ञा को शिरोधार्य मानकर उसका पालन किया करते थे। प्रजापति दक्ष ने उनके व्यवहार और गुणों से प्रसन्न होकर अपनी तेरह कन्याओं का विवाह महर्षि कश्यप से कर दिया था। इन्हीं की संतानों से यह पूरा संसार भर गया। कश्यप मुनि की तेरह पत्नियों में से एक पत्नी का नाम दनु था। दनु रूपवती, गुणवती होने के साथ-साथ परम सौभाग्यवती थी। वह एक अत्यंत शांत साध्वी भी थी। उन्हीं दनु के अनेकों पुत्र हुए। उनका विप्रचित नाम का पुत्र बहुत ही बलशाली और पराक्रमी था। उसका भी दंभ नाम का एक पुत्र हुआ। दंभ भी अपने पिता की तरह धार्मिक विचारों को मानने वाला था। दंभ भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था। इतना धार्मिक होने के पश्चात भी उसके कोई संतान नहीं हुई। तब वह बड़ा निराश हो गया और उसने शुक्राचार्य को अपना गुरु बनाया। उसने उनसे कृष्ण मंत्र ग्रहण किया। तत्पश्चात दंभ पुष्कर नामक तीर्थ में चला गया और वहां एक लाख वर्ष तक कठोर तपस्या करता रहा। उसकी इस कठोर तपस्या को देखकर सभी देवता ब्रह्माजी को अपने साथ लेकर भगवान विष्णु के पास गए। भगवान विष्णु के पास पहुंचकर सभी देवताओं ने उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम किया और दंभ के भीषण तप के बारे में भी बताया। तब सारी बातें जानकर भगवान श्रीहरि बोले-हें देवताओ! मैं जानता हूं कि दंभ मेरा अनन्य भक्त है। वह अपने मन में पुत्र प्राप्ति की कामना लेकर पिछले एक लाख वर्षों से मेरी कठोर तपस्या कर रहा है। मैं अवश्य ही अपने प्रिय भक्त दंभ की इच्छापूर्ति करूंगा। आप निश्चिंत होकर अपने स्थान पर चले जाइए। भगवान श्रीहरि के इन वचनों को सुनकर ब्रह्माजी और देवराज इंद्र तथा सभी देवता उन्हें प्रणाम करके अपने-अपने लोकों को चले गए। तब भगवान विष्णु भी अपने भक्त दंभ को उसकी तपस्या का फल देने के लिए पुष्कर गए। वहां उन्हें अपने सामने पाकर दंभ बहुत प्रसन्न हुआ और उनके चरणों में लेटकर उन्हें प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगा। तब श्रीविष्णु बोले—हे दंभ! मैं तुम्हारी इस कठोर तपस्या से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम अपना अभीष्ट वर मांग सकते हो। आज मैं तुम्हारी हर मनोकामना पूर्ण करूंगा।भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर दंभ हाथ जोड़कर बोला- हे देव! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे अपने जैसा वीर और पराक्रमी पुत्र प्रदान कीजिए। तब श्रीहरि विष्णु 'तथास्तु' कहकर वहां से अंतर्धान हो गए। इसके बाद दंभ भी प्रसन्नतापूर्वक अपने घर लौट आया । कुछ समय पश्चात दंभ की पत्नी गर्भवती हुई। तब दंभ के घर में एक अलौकिक तेज विद्यमान था। समय आने पर दंभ की पत्नी के गर्भ से एक पुत्र का जन्म हुआ। मुनियों ने उसका नामकरण-संस्कार करके उसका नाम शंखचूड़ रखा।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (पंचम खंड) सत्ताईसवां अध्याय  समाप्त

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