अरण्य कांड चौपाई सम्पूर्ण अर्थ सहित

अरण्य कांड चौपाई सम्पूर्ण अर्थ सहित Aranya Kand Chaupai with complete meaning

चौपाई 
पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई॥
अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन॥1॥
यह चौपाई तुलसीदासजी के द्वारा रचित "रामचरितमानस" से ली गई है। इस चौपाई का अर्थ है:
"पुरुषों के लिए भरत ने प्रीति की गाथा गाई। उनकी विवेकानुसार अनूप वाणी सुहाई।। अब आप प्रभु का पावन चरित्र सुनिए, जो सुर, नर, और मुनियों को भी भाव विकसित करता है।।"
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस में प्रभु श्रीराम के भाई भरत की प्रीति को व्यक्त करती है और उन्हें ध्यान में लेने के लिए प्रेरित करती है। इसमें भरत की विवेकपूर्ण वाणी की प्रशंसा भी की गई है। इसके अलावा, इस चौपाई में श्रीरामचरितमानस के पवित्र चरित्र की महिमा भी व्यक्त की गई है, जो सभी जाति-वर्ग और समुदायों के लोगों को प्रेरित करता है।
एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए॥ 
सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुंदर॥2॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:
"एक बार मानों फूलों का चुनाव करके उन्हें सुंदर अभूषण बनाया। फिर सीता माता को आदरपूर्वक पहनाया, जो पत्थर की सुंदर चट्टान पर बैठी थीं।"
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस में श्रीराम और सीता माता के द्वारा एक दूसरे के साथ विशेष संबंध को दर्शाती है। यहां उन्होंने एक दूसरे को अभूषित किया और सीता माता को आदरपूर्वक अपने साथ बैठाया। यह स्थिरता और समर्पण का प्रतीक है जो उनके बीच संबंध को सूचित करता है।
सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा॥
जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मंदमति पावन चाहा॥3॥
यह भी श्रीरामचरितमानस से है। इस चौपाई का अर्थ है:
"सुरों के राजा इंद्र ने अपने पुत्र को भगवान विष्णु के रूप में देखा, जैसे की मधुकरी मधु को देखती है, और वह श्रीराम की शक्ति को देखना चाहता था।"
इस चौपाई में राजा इंद्र ने भगवान विष्णु के रूप में भगवान राम को देखा और उनकी अद्भुत शक्ति को महसूस किया। इससे उन्होंने राम के दिव्य स्वरूप की प्रशंसा की है।
सीता चरन चोंच हति भागा। मूढ़ मंदमति कारन कागा॥
चला रुधिर रघुनायक जाना। सींक धनुष सायक संधाना॥4॥
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:
"सीता ने करन का घमंड और मूर्खता को छोड़ दिया। कारण रावण की मानसिकता में मंदगति थी। राघव (श्रीराम) ने अपने धनुष को ताना और सायक को संभाला।"
यह चौपाई रावण और सीता के बीच हुए वार्तालाप को दर्शाती है। सीता ने अपनी बुद्धि का सदुपयोग करके अहंकार और मूर्खता को दूर किया और रावण की मानसिकता को मंदमति बताया गया है। इसके बाद, श्रीराम ने अपने धनुष को ताना और अपने सायक को तैयार करके रावण को संभालने की तैयारी की।
चौपाई :
प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा॥
धरि निज रूप गयउ पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीं॥1॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:
"ब्रह्मा के प्रेरणा से ब्रह्मसर (महर्षि विश्वामित्र) धावा। बायस (राम) ने भय को पाकर उसे दूर किया। जब उन्होंने अपनी स्वरूपता छोड़ी, तब पिता को प्राप्त किया, लेकिन वे राम की दिशा में नहीं थे।"
यह चौपाई रामायण के आरम्भिक घटनाक्रम को दर्शाती है। विश्वामित्र ने ब्रह्मा के प्रेरणा से राम को लेकर गए थे ताकि वे राक्षसों से लड़ाई में मदद कर सकें। राम ने भय को पाकर उसे पार किया, लेकिन जब वे अपनी दिव्य स्वरूपता छोड़ी और मानवीय रूप धारण किया, तो उन्होंने अपने पिता को प्राप्त किया, जोकि उनका प्रारंभिक लक्ष्य था, लेकिन वे अभी भी राम के दिशा में नहीं थे।
भा निरास उपजी मन त्रासा। जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा॥
ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका। फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका॥2॥
यह भी श्रीरामचरितमानस का श्लोक है। इसका अर्थ है:
"भरत ने निराशा से मन में त्रास उत्पन्न किया, जैसे कि चक्रवाती हवा ऋषि दुर्बासा की तरह भयंकर होती है। वह श्रीराम को ढूंढता रहा, लेकिन ब्रह्मलोक और शिवलोक सहित सभी लोक श्रमित और उदास थे।"
यह श्लोक महाकवि तुलसीदास द्वारा भरत के मन की अवस्था को व्यक्त करता है। भरत को श्रीराम की तलाश थी और उनकी अनुपस्थिति ने उसके मन में व्याकुलता और दुःख को उत्पन्न किया। इसके अलावा, इस श्लोक में यह भी दिखाया गया है कि भरत की खोज से लेकर सभी लोक उदास और व्याकुल थे।
काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥
मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना॥3॥
यह भी श्रीरामचरितमानस से है। इस चौपाई का अर्थ है:
"किसी भी स्थान में बैठने की जगह नहीं मिली। रावण को संहारने की शक्ति रखने वाले भगवान राम के लिए भी वह द्रोही बन गया। माँ और पिता के समान मृत्यु बन जाती है और जैसे शुद्ध जल को विष बना देता है, उसी तरह हरि (भगवान) भक्त को दुःख पहुंचा देता है।"
यह चौपाई दर्शाती है कि रावण के बल पर भी उसकी दुराचारी और दुर्वृत्ति ने उसे भगवान राम के खिलाफ खड़ा किया। यहां भी दिखाया गया है कि माता-पिता के समान मृत्यु और जीवन की सुख-दुख में भी हरि की भक्ति का महत्व उत्कृष्ट है।
मित्र करइ सत रिपु कै करनी। ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी॥
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता॥4॥
यह भी श्रीरामचरितमानस से ली गई चौपाई है। इसका अर्थ है:
"मित्र को भली तरह समझना चाहिए और शत्रु को भी। क्योंकि उसकी करनी में भेद नहीं होता, वह समुद्र के जल की तरह है, जो हर तरफ बहता है। सारी दुनिया भी उसी को नहीं समझ सकती, जो श्रीराम के विरुद्ध बातें सुनता है, भाई!"
यहां बताया गया है कि मित्र और शत्रु दोनों को समझना चाहिए, क्योंकि उनकी क्रियाओं में अक्सर अंतर नहीं होता। श्रीरामचरितमानस में भारतीय नीतिशास्त्र के महत्वपूर्ण सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है, जो हमें अच्छे और बुरे का विवेक करने की सीख देते हैं।
नारद देखा बिकल जयंता। लगि दया कोमल चित संता॥
पठवा तुरत राम पहिं ताही। कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही॥5॥
यह भी श्रीरामचरितमानस से ली गई चौपाई है। इसका अर्थ है:
"नारद ने देखा विचलित जगती, और उन्हें दया आई संतोष्मी सी चित्त से। उन्होंने तुरंत ही राम को भेजा, ताकि वे उसे पुकार कर प्रणाम कर सकें और अपने हित को प्राप्त कर सकें॥"
यहां बताया गया है कि नारद ऋषि ने देखा कि संसार में विचलितता और अस्थिरता है, और उन्होंने उसे दया और संतोष के साथ देखा। उन्होंने तत्काल भगवान राम को भेजा ताकि लोग उन्हें पुकारकर उनके द्वार से हित को प्राप्त कर सकें।
आतुर सभय गहेसि पद जाई। त्राहि त्राहि दयाल रघुराई॥
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मतिमंद जानि नहीं पाई॥6॥
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:
"आप सब भय से घिरे हुए हैं और पद को धारण कर जा रहे हैं। हे दयालु रघुराई (श्रीराम), कृपा करें, कृपा करें। आपकी शक्ति अनुपम है और आपका सामर्थ्य अतुलनीय है। मैं अज्ञानी हूँ और आपकी महिमा को समझ नहीं सकता।"
यहां बताया गया है कि भक्त अपने भयों में फंसे हुए हैं और वे भगवान की शरण में जा रहे हैं। उन्हें भगवान से रक्षा की प्रार्थना की जा रही है, जो अद्वितीय बल और अद्वितीय प्रभुता वाले हैं। यह चौपाई मानवीय सीमाओं के पार चलकर भगवान की अद्भुतता की महिमा को बताती है।
निज कृत कर्म जनित फल पायउँ। अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ॥
सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी॥7॥
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:
"जैसा-जैसा मैंने अपने कर्म किया, वैसा-वैसा ही फल प्राप्त किया। अब मैं भगवान की शरण में आता हूँ ताकि उनकी सेवा कर सकूँ। हे कृपालु भगवान, मैंने तुम्हारी अत्यंत आराधना भरी बातें सुनी है, कृपा करके मुझे इस संसार के बंधन से मुक्त करो।"
इस चौपाई में एक व्यक्ति अपने कर्मों के फल को स्वीकार करता है और अब भगवान की शरण में जाता है ताकि उनकी सेवा कर सके। यहां उन्हें मोक्ष की प्राप्ति के लिए भगवान से प्रार्थना की जा रही है।
चौपाई :
रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना॥
बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना॥1॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:
"राघव (श्रीराम) नाना स्थानों पर रहते हुए चित्रकूट पर्वत पर बसे थे और उनकी कथा वेदों के अमृत समान थी। बहुत से लोग राम के विचार करते रहे हैं, लेकिन मुझे लगता है कि वे सभी मेरे भय से ही इस बात को जानते हैं।"
यहां बताया गया है कि भगवान श्रीराम ने विभिन्न स्थानों पर रहते हुए चित्रकूट पर्वत पर विचरण किया था और उनकी कथा वेदों के अमृत समान थी, जिससे लोग उनके विचारों को समझने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन कई लोग अभी भी उनके भय से ही उसे समझ पाते हैं।
 सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई॥
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ। सुनत महामुनि हरषित भयऊ॥2॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:
"सभी मुनियों को विदा कहकर, श्रीराम और उनके भाई लक्ष्मण ने सीता के साथ यात्रा की। जब प्रभु श्रीराम अत्रि ऋषि के आश्रम गए, तो महान मुनि ने उनकी यात्रा सुनकर बहुत आनंदित और प्रसन्न हो गए।"
यहां बताया गया है कि श्रीराम, लक्ष्मण, और सीता ने सभी मुनियों को विदा कहकर उनके साथ अत्रि ऋषि के आश्रम की ओर यात्रा की, और जब वे आश्रम पहुंचे, तो वहां के महान मुनि बहुत खुश हो गए थे और उनकी यात्रा को देखकर प्रसन्न हुए थे।
पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए॥
करत दंडवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए॥3॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:
"अत्रि ऋषि को तात्पर्यपूर्वक गाते हुए देखकर राम उत्तेजित होकर उठे। मुनि ने दंडवत प्रणाम किया और प्रेमपूर्वक राम और सीता को अपने आगे आने के लिए बुलाया।"
इस चौपाई में दर्शाया गया है कि जब अत्रि ऋषि गाते हुए देखे गए, तो श्रीराम ने तत्परता से उठकर उनकी ओर चले आए। उसी समय मुनि ने उनको दंडवत प्रणाम किया और प्रेम से राम और सीता को बुलाया।
देखि राम छबि नयन जुड़ाने। सादर निज आश्रम तब आने॥
करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए॥4॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:
"राम ने अपनी छवि को देखकर नयनों को संगीत से जोड़ा। उन्होंने सम्मानपूर्वक अपने आश्रम में आने का निर्णय किया, पूजा की और बोले शब्द जो अत्यंत सुहावने थे। प्रभु ने मूलफल को दिया और मन भी बहुत आनंदित हुआ।"
यहां बताया गया है कि जब राम ने अपनी मूर्ति को देखा, तो उन्होंने अपने नयनों को संगीत से जोड़ा। उन्होंने आदरपूर्वक अपने आश्रम में आने का निर्णय किया, पूजा की और उनके बोले गए शब्द बहुत ही सुहावने थे। प्रभु ने मूलफल दिया और मन भी बहुत आनंदित हुआ।
चौपाई :
अनुसुइया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील बिनीता॥
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई॥1॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:
"सीता ने अनुसुइया के पादों को धरकर उनसे प्रार्थना की। वह बहुत ही सुसील और बिनीत थी। उन्होंने ऋषिपति के पत्नी के मन को अधिक सुख दिया और उनके निकट बैठकर आशीर्वाद दिया।"
यहां बताया गया है कि सीता ने अनुसुइया (ऋषि अत्रि की पत्नी) के पादों को धरकर उनसे बहुत ही सभ्यता और विनीतता से प्रार्थना की। वह ऋषिपति की पत्नी के मन को अधिक सुख देने के लिए उनके पास बैठकर आशीर्वाद दिया।
दिब्य बसन भूषन पहिराए। जे नित नूतन अमल सुहाए॥
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी॥2॥
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:
"सीता ने दिव्य वस्त्र और भूषण पहना था, जो हमेशा नवीनता और शुद्धता को सूचित करते थे। वह ऋषिपति की पत्नी सरस और मृदु वाणी से बोलीं, और महिलाओं के धर्म को कुछ व्याख्या की।"
यहां बताया गया है कि सीता ने दिव्य वस्त्र और आभूषण पहने थे जो हमेशा नवीनता और पवित्रता को दिखाते थे। वह ऋषिपति की पत्नी सरस और मृदु वाणी से बोलीं और महिलाओं के धर्म के बारे में कुछ बताया।
मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी॥
अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही॥3॥
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:
"माता, पिता, भाई और सम्पूर्ण हितकारी व्यक्ति होने के कारण, राजकुमारी को सभी को सुनना चाहिए। भली दानशील पति के बिना उस नारी को अधम माना जाता है जो उसकी सेवा नहीं करती।"
इस चौपाई में बताया गया है कि माता, पिता, भाई और सम्पूर्ण हितकारी व्यक्तियों के सुझावों को सुनना चाहिए, और एक अच्छे दानशील पति के बिना वह नारी अधम मानी जाती है जो उसकी सेवा नहीं करती।
धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:
"धैर्य, धर्म, मित्रता और नारी, ये चारों ही संकटकाल में सहायक होते हैं। बुढ़ापे, रोग, जड़ता, धनहीनता, अंधता, बधिरता, क्रोध और अत्यंत दीनता - ये सभी व्यक्तियों की अपेक्षा में कमजोरी के कारण होते हैं।"
यहां बताया गया है कि संकटकाल में धैर्य, धर्म, मित्रता और महिला सभी काम आती हैं। बुढ़ापा, रोग, जड़ता, धन की कमी, अंधता, बधिरता, क्रोध और अत्यंत दीनता - ये सभी व्यक्तियों की कमजोरी के कारण होते हैं।
ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना॥
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा॥5॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:
"पति जब ऐसा अपमान करता है, तो महिला को अनेक प्रकार के दुख सहने पड़ते हैं। एक ही धर्म, एक ही व्रत, और शरीर, वचन, और मन से पति के प्रेम में समर्पित रहना चाहिए।"
यहाँ बताया गया है कि जब पति ऐसा अपमान करता है, तो महिला को अनेक प्रकार के दुःख सहने पड़ते हैं। उन्हें एक ही धर्म, एक ही व्रत और पति के प्रेम में शरीर, वचन और मन से समर्पित रहना चाहिए।

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