अरण्य काण्ड चौपाई

अरण्य काण्ड चौपाई Aranya Kand Chaupai

जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अंतरजामी॥
जो कोसलपति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना॥10॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"जो बाहर से जानते हैं, मैं उन्हें जानता हूँ, हे स्वामी! वे भगवान के साथ साकार और निराकार रूपों को मेरे हृदय और अंतर्दृष्टि में देखते हैं। जो सीतापति राम, अर्थात् अयोध्याधीश श्रीराम जिनके नेत्र नीले हैं, वही मेरे हृदय का आश्रय हैं।॥10॥"
इस चौपाई में तुलसीदासजी ने भगवान राम के साकार और निराकार रूपों के विशेष अनुभव का वर्णन किया है। उन्होंने राम को अपने हृदय का आधार माना है।
अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥
सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए॥11॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"इस अभिमान को तुम जल्दी छोड़ दो, हे मेरे मन! मैं रामचंद्रजी का सेवक हूँ, जो रघुकुल के पति हैं। मुनियों के बचन को सुनकर राम को मन पसंद है, जिससे मुनियों के हृदय में बार-बार हर्ष उत्पन्न होता है॥11॥"
इस चौपाई में भक्त अपने अभिमान को छोड़ने की प्रेरणा दे रहे हैं और भगवान राम की सेवा का मार्ग चुन रहे हैं। वे चाहते हैं कि उनका मन हमेशा भगवान की सेवा में लगा रहे।
परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर मागहु देउँ सो तोही॥
मुनि कह मैं बर कबहुँ न जाचा। समुझि न परइ झूठ का साचा॥12॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"हे मुनि! मुझे अत्यंत प्रसन्न जानो, क्योंकि जो वस्तु मैं से मांगता हूँ, वही तुम मुझसे प्राप्त करते हो। मुनि कहते हैं कि मैंने कभी भी वस्तु मांगने की प्रार्थना नहीं की, यह समझते नहीं कि झूठ का सत्य को ही समझना चाहिए॥12॥"
इस चौपाई में भक्त भगवान के प्रसन्नता के बारे में बताते हैं और यह स्पष्ट करते हैं कि भगवान वही देते हैं जो हम मांगते हैं, और मुनि उनकी भविष्यवाणियों को स्वीकार करते हैं।
तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई॥
अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना॥13॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"हे रघुराय, तुम्हारा दर्शन करना मुझे सुखदायी लगता है। कृपया मुझे वह भक्ति और ज्ञान दो, जिससे मैं तुम्हारे सभी गुणों को समझ सकूँ।॥13॥"
इस चौपाई में भक्त भगवान से अपने दर्शन की प्रार्थना करते हैं और उन्हें भक्ति और ज्ञान की बेहद अवांछितता की प्रार्थना करते हैं, ताकि वे सभी गुणों को समझ सकें।
प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा। अब सो देहु मोहि जो भावा॥14॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"हे प्रभु, जो कुछ भी आपने दिया है, उसी को मैंने पाया है। अब वही कुछ मुझे दीजिए जो आपको प्रिय है॥14॥"
इस चौपाई में भक्त भगवान से अपने हृदय की प्रार्थना करते हैं कि वे उन्हें वह सब कुछ दें जो उन्हें प्रिय है। यहाँ भक्त भगवान की इच्छाओं और आशाओं को प्रकट कर रहे हैं।
चौपाई :
एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुंभज रिषि पासा॥
बहुत दिवस गुर दरसनु पाएँ। भए मोहि एहिं आश्रम आएँ॥1॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"ऐसा हो। राम के निवास स्थान में जाकर, मुनि कुम्भज को हर्षित होकर जाते हैं। बहुत दिनों तक गुरु के दर्शन की प्रतीक्षा करते हुए, मुझे इस आश्रम में पहुंचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।॥1॥"
इस चौपाई में भक्त रामचंद्रजी के निवास स्थान के प्राप्ति के बाद गुरु के दर्शन की खुशी का वर्णन कर रहे हैं और उनके आश्रम में पहुंचने की खुशी का वर्णन कर रहे हैं।
अब प्रभु संग जाउँ गुर पाहीं। तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं॥
देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए संग बिहसे द्वौ भाई॥2॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"अब मैं प्रभु के साथ जाऊं, गुरु को प्राप्त हुआ है। तुम कहते हो कि नाथ के बिना कुछ नहीं है। कृपानिधि भगवान को देखकर मुनि चतुराई, उन दो भाइयों ने भी संग में बैठकर खुशी से हंसना शुरू कर दिया॥2॥"
इस चौपाई में भक्त अपने गुरु के साथ भगवान के दर्शन के लिए जाने की आशा और संतोष का वर्णन कर रहे हैं। वे गुरु के उपदेश को मानते हैं और उनकी उपस्थिति में प्रभु की अनुभूति करना चाहते हैं।
पंथ कहत निज भगति अनूपा। मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा॥
तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ। करि दंडवत कहत अस भयऊ॥3॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"मुनियों ने अपने आश्रम को अत्यंत अनूप और अद्वितीय माना है। समर्थ और परम भक्ति के स्वामी के आश्रम में पहुंचे। तुरत गुरु के पास जाकर भक्त ने दंडवत प्रणाम किया और भयभीत होकर बोला॥3॥"
इस चौपाई में भक्त अपने गुरु के पास जाकर वास्तविक समर्थता और उनकी भक्ति को मानते हैं। उनके आश्रम की महिमा को सराहते हैं और उनके सामने होने का आदर करते हैं।
नाथ कोसलाधीस कुमारा। आए मिलन जगत आधारा॥
राम अनुज समेत बैदेही। निसि दिनु देव जपत हहु जेही॥4॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"कोसलाधीश्वर भगवान राम, जगत के आधार बने, आए हैं। राम जी, सीता जी के साथ, दिन-रात जपते हैं, जैसे देवताओं के देव जपते हैं॥4॥"
इस चौपाई में भक्त भगवान राम के आगमन की खुशी का वर्णन कर रहे हैं। वे बता रहे हैं कि भगवान राम और उनके भाई लक्ष्मण सहित मिथिला (सीता) में रात और दिन में मन्त्र जप करते हैं, जैसे कि देवताओं के देव भी जपते हैं।
सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए॥
मुनि पद कमल परे द्वौ भाई। रिषि अति प्रीति लिए उर लाई॥5॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"अगस्ति मुनि जल्दी से सुनते ही उठकर भागे, और उनके नेत्रों में हरि की दर्शन से आंसू टपक आए। मुनि के पादकमल पर दो भाइयों ने अत्यंत प्रेम से प्रणाम किया, और उनके हृदय में प्रेम और आदर लिया॥5॥"
इस चौपाई में मुनि अगस्ति की भगवान राम के दर्शन के प्रति उनकी अत्यंत प्रेम और आदर की भावना व्यक्त की गई है। वे दोनों भाई रामचंद्रजी के पास प्रेम और आदर के साथ प्रणाम करते हैं।
सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी। आसन बर बैठारे आनी॥
पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा। मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा॥6॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"वे मुनि ज्ञानी सम्मान सहित सवाल करते हैं, और मुझे आसन पर बैठाते हैं। फिर बहुत से तरीकों से प्रभु की पूजा करके, मैं उनमें से भाग्यशाली हूं, कोई दूसरा नहीं॥6॥"
इस चौपाई में भक्त व्यक्तिगत आदर्शों और उपासना के बारे में बता रहे हैं। वे मुनियों से सम्मानपूर्वक सलाह लेते हैं और प्रभु की पूजा के विभिन्न तरीकों को अपनाते हैं। वे अपने भाग्यशाली होने पर गर्व करते हैं, क्योंकि वे किसी और से अलग हैं।
जहँ लगि रहे अपर मुनि बृंदा। हरषे सब बिलोकि सुखकंदा॥7॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"जहाँ पर भी वे अपर मुनियों की समूह हो, वहां सभी लोग हर्षित होकर उन्हें देखकर सुखानुभव में प्रवेश करते हैं॥7॥"
इस चौपाई में भक्त बता रहे हैं कि जहाँ पर भी उन अपर मुनियों की समूह होती है, वहां लोग उन्हें देखकर खुश हो जाते हैं और सुखी अनुभव करते हैं।
चौपाई :
तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाहीं॥
तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ। ताते तात न कहि समुझायउँ॥1॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"तब रघुवीर (श्रीराम) ने मुनि को कहा, 'तुम्हारी संगत में, हे मुनि, मुझे कोई अशुभता नहीं लगती है। तुम्हे जो भी कारण आता है, उसे मैं समझाने की कोशिश नहीं कर सकता।'"
इस चौपाई में भगवान राम ने मुनि को समझाया कि उन्हें मुनि की संगत में कोई अशुभता नहीं लगती है और वे जो भी कारण आता है, उसे समझने की कोशिश नहीं कर सकते।
अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही। जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही॥
मुनि मुसुकाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ मोहि का जानी॥2॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"अब मुझे ऐसा मंत्र दीजिए, हे प्रभु, जिससे मैं मुनिद्रोही को जैसे भी मार सकूँ। सुनकर मुनियों की हंसी, प्रभु ने पूछा, 'ओ नाथ, मुझसे तुम्हें क्या जानना है?'॥2॥"
इस चौपाई में भक्त रामजी से एक ऐसे मंत्र की मांग कर रहे हैं, जिससे वे मुनिद्रोही को किसी भी तरीके से मार सकें। इस पर भगवान राम ने उनसे पूछा कि उन्हें इसकी आवश्यकता क्यों है।
तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी। जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी॥
ऊमरि तरु बिसाल तव माया। फल ब्रह्मांड अनेक निकाया॥3॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"तुम्हारे भजन से ही प्रभाव उत्पन्न होता है, मैं तुम्हारी कुछ अलौकिक महिमा को जानता हूं। तुम्हारी माया बहुत विशाल है, जिसके फलस्वरूप ब्रह्मांड अनेक रूपों में व्याप्त है।"
जीव चराचर जंतु समाना। भीतर बसहिं न जानहिं आना॥
ते फल भच्छक कठिन कराला। तव भयँ डरत सदा सोउ काला॥4॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"जीव और अजीव, सभी जीवन्त प्राणियों को समान मानकर और उनकी अंतर्दृष्टि में न जानने की वजह से, वे भी भयभीत और कठिन और कराल (भयंकर) फलों को प्राप्त करते हैं। तुम्हारा भय सदा सोने की तरह काला (भयंकर) लगता है।॥4॥"
इस चौपाई में भक्त बता रहे हैं कि सभी जीवन्त प्राणियों को समान मानने के कारण वे भी भयभीत होते हैं और उन्हें कठिन और डरावने फलों का सामना करना पड़ता है। और उनका सदा से भय उन्हें काला (भयंकर) लगता है।
ते तुम्ह सकल लोकपति साईं। पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं॥
यह बर मागउँ कृपानिकेता। बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता॥5॥
इसका अर्थ है:
"आप सभी लोकों के स्वामी हैं, हे साईं। मुझसे पूछो, ओ मानव, तुम्हारी आवश्यकता क्या है? हे कृपानिधि, इस वर में मैं आपसे विनती करता हूँ, मेरे हृदय में श्रीराम और उनके भाई सहित विराजमान हों।॥5॥"
इस चौपाई में भक्त भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं कि वे सभी लोकों के स्वामी हैं और उनसे मानवता की आवश्यकता के बारे में पूछ रहे हैं। वे कृपानिधि से अनुरोध कर रहे हैं कि भगवान श्रीराम और उनके भाई उनके हृदय में विराजमान हों।
अबिरल भगति बिरति सतसंगा। चरन सरोरुह प्रीति अभंगा॥
जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता। अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता।6॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"भक्ति अबिरल होने पर भी सतसंग की वास्तविकता, प्रेम से चरणों को अनवरत चूमने का अभाव होता है। यद्यपि ब्रह्म अखण्ड और अनंत है, भक्तों को उस संत की भक्ति करनी चाहिए जो वह अनुभव कर सकता है।॥6॥"
इस चौपाई में भक्त बता रहे हैं कि भक्ति का असली सत्य और महत्त्व सतसंग और अनवरत चरणों को प्रेम से चूमने में है। यद्यपि ब्रह्म अखण्ड और अनंत है, लेकिन भक्तों को उस गुरु या संत की भक्ति करनी चाहिए जो उस अनुभव को समझ सकता है।
अस तव रूप बखानउँ जानउँ। फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ॥
संतत दासन्ह देहु बड़ाई। तातें मोहि पूँछेहु रघुराई॥7॥
इसका अर्थ है:
"मैं तुम्हारे रूप का वर्णन करता हूँ और तुम्हें जानता हूँ, फिर फिर सगुन और ब्रह्म की रति मानता हूँ। उन सदा तुम्हारे दास होकर मुझे बड़ाई दो, ताकि हे रघुराई, वह तुमसे मुझे पूछे।॥7॥"
इस चौपाई में भक्त बता रहे हैं कि वह भगवान के रूप का वर्णन करता है और उसे जानता है, और फिर फिर वह सगुन और ब्रह्म की प्रेम राग मानता है। वह चाहता है कि भगवान हे रघुराई, उनको उनके दास होने की बड़ाई दे ताकि वह उनसे कुछ पूछ सके।
है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ। पावन पंचबटी तेहि नाऊँ॥
दंडक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू॥8॥
इसका अर्थ है:
"हे प्रभु, आपकी स्थानस्थान बहुत ही मनोहर है। आपकी पावन पंचवटी को मैं वही नाम दूँ। आपने दंडक वन को पवित्र किया, और मुनियों जैसे उग्र सांप को भी आपने हर दिया॥8॥"
इस चौपाई में भक्त भगवान से प्रार्थना कर रहा है कि वह प्रभु के पवित्र स्थान और उनके कृपाशाली स्वरूप को स्तुति दे। वह भगवान की शक्ति को स्तुति दे रहा है, जिन्होंने दंडक वन को पवित्र बनाया और वहाँ उग्र सांप जैसे भयानक संताप को भी समाप्त किया।
बास करहु तहँ रघुकुल राया। कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया॥
चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहिं पंचबटी निअराई॥9॥
इसका अर्थ है:
"हे रामराजा, आप वहीं रहें और सभी मुनियों की रक्षा करें। जब राम आते हैं, मुनियों को उनसे दया प्राप्त होती है। तुरंत ही पंचवटी स्थल को उन्होंने पाया॥9॥"
इस चौपाई में भक्त भगवान से प्रार्थना कर रहा है कि भगवान राम राजा के रूप में रहें और सभी मुनियों को उनकी कृपा प्राप्त हो। जब भगवान राम आते हैं, तो मुनियों को उनसे उत्कृष्ट अनुभव होता है और वे तत्परता से पंचवटी स्थल को खोजते हैं।
चौपाई :
जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भए मुनि बीती त्रासा॥
गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति होहिं सुहाए॥1॥
इसका अर्थ है:
"जब से राम वहाँ बसे, तब से मुनि सुखी हो गए और उनकी सभी कठिनाइयाँ दूर हो गई। पहाड़ों, वनों, नदियों और तालाबों की छवि से आस्था और सुख होता है, और दिन-दिन वहाँ अत्यंत ही अच्छा वातावरण होता है।"
खग मृग बृंद अनंदित रहहीं। मधुप मधुर गुंजत छबि लहहीं॥
सो बन बरनि न सक अहिराजा। जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा॥2॥
इसका अर्थ है:
"पंछी, मृग और अन्य जीवन्त प्राणियाँ आनंदित रहती हैं। वे मधुर स्वर में गाती हैं और उनकी छवि बहुत मधुरता से बनी होती है। उस जंगल का वर्णन नहीं किया जा सकता, जहाँ रघुबीर (राम) की प्रतिमा प्रकट होती है।"
एक बार प्रभु सुख आसीना। लछिमन बचन कहे छलहीना॥
सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं॥3॥
इसका अर्थ है:
"एक बार जब प्रभु आराम से बैठे थे, तब लक्ष्मण ने बिना कोई चालाकी की कही। सूर्य, मनुष्य, मुनि और सभी जीवन्त प्राणियों को, मैं अपने प्रभु की वाणी को पूछता हूँ।"
 मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा॥
कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥4॥
इसका अर्थ है:
"मुझे बताओ, वही देवा कौन हैं, जिन्होंने मुझे समझाया है। मैं सब छोड़कर उनके चरणों की सेवा करना चाहता हूँ। कहो ग्यान, वैराग्य और माया को छोड़कर कौनसी भक्ति करनी चाहिए।"
चौपाई :
थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई॥
मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥1॥
इसका अर्थ है:
"मैं सबको थोड़ा-थोड़ा बताकर सबको समझाने की कोशिश कर रहा हूँ। ताता (प्रभु), मेरी बातें सुनिए और अपनी बुद्धि, मन और चित्त को लगाकर सुनिए। मैं और मेरी माया अलग-अलग हैं, जिससे जीवन को बांधकर रखा है।"
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥2॥
इसका अर्थ है:
"जहाँ जाकर मन का आकर्षण होता है, वहाँ सब माया को जानो। उसी प्रकार को भेद समझो, बिद्या और अविद्या दोनों को।"
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकूपा॥
एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें॥3॥
इसका अर्थ है:
"एक अत्यंत दुष्टता से युक्त जो जीव भवसागर में फंसा हुआ है, वह अत्यंत दुःखदायी होता है। जिस जगह गुणों का बसने वाला है, वहाँ ईश्वर अपने बल से प्रेरित नहीं होता।"
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं॥
कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥4॥
इसका अर्थ है:
"जहाँ कोई व्यक्ति ज्ञान को एकमात्र मानकर नहीं देखता, वहाँ वह ब्रह्मा को ही समान समझता है। वह परम बिरागी कहलाता है जो सब कुछ को समान मानता है और तीनों गुणों को भी तृण समान मानता है।"
चौपाई
धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई॥1॥
यह चौपाई "रामचरितमानस" के श्लोकों से है। इसका अर्थ है:
"जो धर्म की बिरादरी और ज्ञान की बिरादरी से ऊपर है, जो बेदों को त्याग देता है। जो शीघ्रता से मुझे प्राप्त होता है, वही मेरी भक्ति में सुखदायी होता है।"
सो सुतंत्र अवलंब न आना। तेहि आधीन ग्यान बिग्याना॥
भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो संत होइँ अनुकूला॥2॥
यह चौपाई "रामचरितमानस" में स्थित है। इसका अर्थ है:
"वह सच्चाई स्वतंत्र नहीं होता, वह केवल उस ज्ञान और विज्ञान के अधीन होता है। भक्ति ही उस सच्चे सुख की जड़ होती है, जो संतों से मिलकर अनुकूल होती है।"

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