अरण्यकांड के दोहे

अरण्यकांड के दोहे couplets of aranyakand

दोहा :  
सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ॥31॥
इस दोहे में कहा गया है कि अगर आपको पिता के साथ जाना है, तो सीता हरण का वाक्य बोलें। परन्तु, अगर आप राम के साथ समेट कर अपने वंश के साथ जाना चाहते हैं, तो रावण का वध करने का उपाय बताएं।
दोहा :  
अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम।
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम॥32॥
इस दोहे में कहा गया है कि कठिन भक्ति को मांगते हुए भक्त भगवान के धाम को प्राप्त हो गया। उसी के अनुरूप एवं योग्य क्रिया को किया गया है जिससे वह भगवान की प्रीति प्राप्त कर सके।
दोहा :  
मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव॥33॥
इस दोहे में कहा गया है कि जो व्यक्ति मन, वचन और क्रियाओं में छल छिद्र छोड़कर भगवान की सेवा करता है, वह ब्रह्मा, विष्णु और शिव समेत सभी देवताओं को प्रसन्न कर सकता है।
दोहा :  
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥34॥
इस दोहे में कहा गया है कि जैसे कदम मूल और फल हमें सुखदायक लगते हैं, ठीक उसी तरह श्रीरामचंद्रजी का नाम बोलकर आनंदित होते हैं। वे अपने प्रेम के साथ बार-बार श्रीराम का गुणगान करते हैं।
दोहा :  
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥
इस दोहे में कहा गया है कि गुरु के पाद पंकज की सेवा तीसरे प्रकार की भक्ति है, जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। चौथी भक्ति में मैं अपने गुणों का गुणान करता हूँ और कपट त्यागकर भगवान का गुणगान करता हूँ।
दोहा :  
जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि॥36॥
इस दोहे में कहा गया है कि किसी की जाति, सामाजिक स्थिति या पिछड़ापन उसके मुक्ति के रास्ते में बाधा नहीं बन सकती। जैसे कि भगवान की सेवा करने वाला व्यक्ति अपने मन की निर्ममता में आनंदित होता है, वैसे ही भगवान को भूल जाने वाला मनुष्य दुःख में डूबता है।
दोहा :  
बिरह बिकल बलहीन मोहि जानेसि निपट अकेल।
सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल॥37 क॥
इस दोहे में कहा गया है कि अलग होने में विवश, विवेकहीन, और बलहीन होकर मैं अकेला महसूस करता हूँ। जैसे कि वन में पेड़-पौधों, मधुमक्खियों, और पक्षियों का संगम होता है, वैसे ही कामदेव के तीर के अनुभव से भगवान की याद आती है।
देखि गयउ भ्राता सहित तासु दूत सुनि बात।
डेरा कीन्हेउ मनहुँ तब कटकु हटकि मनजात॥37 ख॥
इस दोहे में कहा गया है कि जब मैंने अपने भाई के साथ दूत की बात सुनी, तो मेरा मन व्याकुल हो गया। तब मेरा मन संजागर होकर उस वाणी से विचलित हो गया।
दोहा :  
तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ॥38 क॥
इस दोहे में कहा गया है कि इन तीनों, यानी काम, क्रोध और लोभ में अत्यधिक प्रबलता होती है। मुनिश्रेष्ठों के बिग्यानपूर्ण धाम में मन निमिषमात्र में छिप जाता है।
लोभ कें इच्छा दंभ बल काम कें केवल नारि।
क्रोध कें परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि॥38 ख॥
इस दोहे में कहा गया है कि लोभ की इच्छा, दंभ, बल और काम केवल नारकी होती है। क्रोध की तेज़ बातें और बल, मुनिश्रेष्ठों के द्वारा विचार की जाती है।
दोहा :  
पुरइनि सघन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म।
मायाछन्न न देखिऐ जैसें निर्गुन ब्रह्म॥39 क॥
इस दोहे में कहा गया है कि जैसे कि पुराने और घने वृक्षों के जंगल में तेज जल का रहस्य तुरंत नहीं मिलता, ठीक उसी तरह मायाआवरण से ढका हुआ मनुष्य निर्गुण ब्रह्म की तरह देखा नहीं जा सकता है।
सुखी मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं।
जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजुत जाहिं॥39 ख॥
इस दोहे में कहा गया है कि सभी मत्स्य सुखी ताजा जल में एक समान रूप से सुखी होते हैं, जैसे कि नैतिकता के पथ पर चलने वाले व्यक्ति के दिन सुख से भरपूर होते हैं।
दोहा :  
फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ।
पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ॥40॥
इस दोहे में कहा गया है कि बृक्ष फलों के भार से झुकते हैं, लेकिन उपकारी व्यक्ति की तरह जैसे वह नम्र रहते हैं, उसी तरह वे संपत्ति को प्राप्त करते हैं।
दोहा :  
नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियँ जानि।
नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि॥41॥
इस दोहे में कहा गया है कि भगवान के प्रसन्न होने के लिए अनेक प्रकार की बिनती की जाती है। जब नारद ने अपने वचनों से अपनी भावनाओं को व्यक्त किया, तब उनके वचनों में जल की बूँदों की तरह शक्ति थी।

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