भद्रकाली-शंखचूड़ युद्ध 'शिवजी द्वारा शंखचूड़ वध,तुलसी द्वारा विष्णुजी को शाप Bhadrakali-Shankchud war 'Shankhchud killed by Shiva, Vishnu cursed by Tulsi

भद्रकाली-शंखचूड़ युद्ध 'शिवजी द्वारा शंखचूड़ वध,तुलसी द्वारा विष्णुजी को शाप

भद्रकाली-शंखचूड़ युद्ध

सनत्कुमारजी बोले – हे व्यास जी ! देवी भद्रकाली ने युद्धभूमि में जाकर भयंकर सिंहनाद - किया, जिससे डरकर अनेकों दानव मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़े। भद्रकाली ने अपने तेज और नुकीले दांतों से दानवों का रक्त चूसना शुरू कर दिया। यह देखकर युद्धरत दानव भय से आतंकित हो उठे। वे डरकर इधर-उधर भागने लगे। यह देखकर दानवराज शंखचूड़ दौड़कर देवी भद्रकाली से युद्ध करने के लिए आगे आया। शंखचूड़ को सामने खड़ा देखकर भद्रकाली ने प्रलय अग्नि के समान भयंकर बाणों की वर्षा करनी शुरू कर दी परंतु शंखचूड़ ने वैष्णव नामक अस्त्र से उस वर्षा को शांत कर दिया। देवी भद्रकाली ने उसके जवाब में नारायण अस्त्र चलाया परंतु शंखचूड़ हाथ जोड़कर उस अस्त्र को प्रणाम करने लगा, जिससे वह नारायण अस्त्र वहीं पर शांत हो गया। दैत्यराज शंखचूड़ अपने भयानक बाणों से देवी पर प्रहार करता और देवी उन असंख्य बाणों को अपनी विकराल दाढ़ों से चबा जातीं। इस प्रकार देवी और शंखचूड़ में भयानक संग्राम होने लगा। तभी क्रोधित भद्रकाली ने पाशुपात नामक ब्रह्मास्त्र उठा लिया परंतु तभी आकाशवाणी हुई कि अभी दैत्येंद्र की मृत्यु का समय नहीं आया है और इसकी मृत्यु आपके हाथों से नहीं लिखी है। तब देवी ने पाशुपात अस्त्र को वापस कर दिया और उसे काटने के लिए दौड़ीं। यह देखकर असुरराज ने रौद्रास्त्र चलाकर उनकी गति को कम किया। तब भद्रकाली ने असुरराज द्वारा प्रयोग की गई सारी शक्तियों को तहस-नहस कर दिया और आगे बढ़कर शंखचूड़ की छाती पर अपने मुक्के का जोरदार प्रहार किया। इस प्रहार से शंखचूड़ बेहोश होकर धरती पर गिर पड़ा। लेकिन कुछ ही देर पश्चात पुनः उठकर वह भद्रकाली देवी से युद्ध करने लगा। तब देवी ने उसे कसकर पकड़ लिया और चारों ओर घुमाकर धरती पर फेंक दिया। शंखचूड़ कुछ समय तक ऐसे ही पड़ा रहा। तब देवी ने अन्य दानवों का वध करना शुरू कर दिया। शंखचूड़ चुपचाप उठा और जाकर अपने रथ पर धीरे से बैठ गया।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) अड़तीसवां अध्याय समाप्त

 शंखचूड़ की सेना का संहार

व्यास जी बोले- हे ब्रह्मापुत्र सनत्कुमार जी ! जब देवी भद्रकाली द्वारा युद्ध में घायल होकर शंखचूड़ पुनः अपने रथ पर जाकर बैठ गया, तब क्या हुआ? भगवान शिव ने, जो उस युद्ध में असुरराज शंखचूड़ का वध करने के लिए ही आए थे, क्या किया? कृपा कर मुझे इस कथा को सविस्तार सुनाइए । व्यास जी की इस जिज्ञासा को शांत करते हुए सनत्कुमार जी ने कहना आरंभ किया। वे बोले - हे महामुने! जब देवी भद्रकाली ने असुरराज शंखचूड़ को उठाकर बलपूर्वक जमीन पर पटक दिया तो कुछ समय तक शंखचूड़ इस प्रकार से धरती पर पड़ा रहा मानो मूर्च्छित हो गया हो। तब देवी जाकर दानवों पर प्रलय की भांति टूट पड़ीं। दूसरी ओर कुछ देवताओं ने भगवान शिव के पास जाकर उन्हें भद्रकाली और शंखचूड़ के इस भयानक युद्ध के बारे में बताया। ये सारी बातें सुनकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव स्वयं युद्ध करने के लिए आगे बढ़े। जब कल्याणकारी सर्वेश्वर देवाधिदेव भगवान शिव अपने वाहन नंदीश्वर पर चढ़कर आरूढ़ होकर युद्ध स्थल में पधारे तो उन्हें देखकर असुरराज शंखचूड़ ने उनका अभिवादन किया। तत्पश्चात शंखचूड़ अपने विमान पर चढ़ गया और भगवान शिव से युद्ध करने की तैयारी करने लगा। उसने अपना रक्षा कवच पहना और युद्ध करने के लिए अपने हाथ में धनुष-बाण उठा लिया। वह पूरे उत्साह के साथ भगवान शिव पर दिव्यास्त्रों का प्रहार कर रहा था। इस प्रकार त्रिलोकीनाथ भगवान शिव और असुरराज शंखचूड़ का भयानक युद्ध सौ वर्षों तक निरंतर चलता रहा। महावीर और पराक्रमी शंखचूड़ ने अनेक शक्तिशाली बाणों और असंख्य मायावी अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग शिवजी पर किया परंतु परमेश्वर शिव ने उन सबको पल भर में काट दिया। भगवान शिव ने क्रोधित होकर उस पर पुनः प्रहार किया। यह देखकर शंखचूड़ ने चतुराई से काम लेते हुए मन में सोचा कि यदि मैं भगवान शिव के वाहन को ही नुकसान पहुंचा दूं तो वे पल भर में ही जमीन पर आ गिरेंगे और इस प्रकार मैं उन पर झपटकर उन्हें अपने वश में कर लूंगा। यह विचार मन में आते ही शंखचूड़ ने शिवजी के वाहन नंदीश्वर के सिर पर तलवार से वार किया परंतु देवाधिदेव ने क्षणमात्र में ही उस तलवार के दो टुकड़े कर दिए। अपने प्रिय नंदीश्वर को युद्ध में निशाना बनता देखकर उनके सब्र का बांध टूट गया और उन्होंने अपने तेज बाणों से दैत्यराज की ढाल को भी काट दिया। जब तलवार और ढाल दोनों ही खराब हो गईं, तब शंखचूड़ ने अपनी गदा से युद्ध लड़ना आरंभ कर दिया परंतु गदा का भी हाल वही हुआ जो तलवार और ढाल का हुआ था। तभी देवी भद्रकाली वहां पहुंचकर राक्षसों को मारने-काटने लगीं। देखते ही देखते उन्होंने अनेकों वीर दैत्यों का संहार कर दिया।कई का रक्त चूस लिया और बहुतों को अपने मुख में डालकर जिंदा ही निगल लिया। अपनी विशाल दैत्य सेना का इस प्रकार सर्वनाश होता देखकर शंखचूड़ को अत्यधिक पीड़ा हुई। उसका दर्द तब और भी बढ़ गया जब उसने अपने साहसी वीर राक्षसों को प्राण बचाने के लिए जहां-तहां भागते हुए देखा।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) उन्तालीसवां अध्याय समाप्त

शिवजी द्वारा शंखचूड़ वध

सनत्कुमार जी बोले – हे व्यास जी ! अपनी विशाल सेना का इस प्रकार संहार होता देखकर असुरराज शंखचूड़ अत्यंत क्रोधित होकर निरंतर उन पर अस्त्रों का प्रहार करने लगा। तत्पश्चात उसने अपनी माया का प्रयोग करते हुए सभी देवताओं सहित देवाधिदेव महादेव को भयभीत करने का प्रयास किया परंतु इस जगत के स्वामी को इस प्रकार भला कोई डरा सकता है क्या? देवाधिदेव महादेव जी उसकी माया से तनिक भी भयभीत नहीं हुए और उन्होंने शंखचूड़ पर अनेक दिव्य शक्तियों से प्रहार किया। जिनके फलस्वरूप शंखचूड़ की माया पल भर में ही विलुप्त हो गई। क्रोधित महादेव जी ने दैत्येंद्र का वध करने के लिए अपने हाथ में त्रिशूल उठा लिया। जैसे ही वे त्रिशूल का प्रहार करने आगे बढ़े, तभी उन्हें एक आकाशवाणी सुनाई दी जो कि सिर्फ शिवजी के लिए ही थी। आकाशवाणी बोली- हे कल्याणकारी शिव! आप तो सर्वेश्वर हैं। इस जगत के स्वामी हैं। आपकी आज्ञा के बिना तो इस जगत में कुछ हो ही नहीं सकता। भगवन्! आप इस तुच्छ राक्षस का वध करने के लिए त्रिशूल का प्रयोग क्यों कर रहे हैं? इसे मारना आपके लिए बहुत ही आसान है। भगवन्! आप तो सब वेदों के परम ज्ञाता हैं तथा सबकुछ जानते हैं। जब तक शंखचूड़ के पास भगवान विष्णु का कवच और पतिव्रता स्त्री है, तब तक शास्त्रानुसार यह अवध्य है। आकाशवाणी सुनते ही भगवान शिव ने अपने त्रिशूल को तुरंत ही रोक दिया और मन में श्रीहरि विष्णु का स्मरण किया। श्रीहरि अगले ही क्षण हाथ जोड़े उनके सामने उपस्थित हो गए। तब शिवजी ने विष्णुजी को इस संकट को दूर करने का आदेश दिया। भगवान विष्णु ने  तुरंत एक ब्राह्मण का वेश धारण किया और भिक्षा मांगने के लिए दैत्यराज शंखचूड़ के पास पहुंच गए। वहां पहुंचकर विष्णुजी ने भिक्षा मांगी। तब शंखचूड़ ने पूछा - हे ब्राह्मण देव ! आपको क्या चाहिए? मैं अवश्य ही दूंगा। परंतु पहले यह बताइए तो सही कि आप क्या चाहते हैं? तब ब्राह्मण का रूप धारण किए हुए विष्णुजी बोले कि पहले प्रतिज्ञा करो कि मैं जो मांगूंगा, तुम मुझे दोगे । इस प्रकार जब शंखचूड़ ने ब्राह्मण को उसकी इच्छित वस्तु देने का वचन दे दिया, तब विष्णुजी ने उससे उसका कवच मांग लिया। कवच लेने के पश्चात वे ब्राह्मण के रूप में ही दैत्यराज की पत्नी देवी तुलसी के पास गए। मायावी विष्णुजी देवताओं के कार्य को पूरा करने के लिए देवी तुलसी के साथ भक्तिपर्वक विहार करने लगे। दूसरी ओर, जब भगवान शिव को अपनी दिव्य अलौकिक शक्ति द्वारा इस बात का ज्ञान हुआ कि शंखचूड़ की रक्षा करने वाला कवच और उसकी पतिव्रता स्त्री की शक्ति, अब उसके साथ नहीं रही, तो तुरंत ही उन्होंने अपना विजय नामक त्रिशूल उठा लिया और पूरी शक्ति से उस त्रिशूल का प्रहार दैत्यराज पर किया। उस दिव्य त्रिशूल के प्रहार से पल भर में ही शंखचूड़ के प्राण पखेरू उड़ गए। दैत्यराज शंखचूड़ के मरते ही आकाश में दुंदुभियां बजने लगीं। चारों दिशाओं में मंगल गान होने लगा और भगवान शिव पर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। वहां उपस्थित सभी देवता भगवान शिव की स्तुति करने लगे और उनको धन्यवाद कहने लगे। असुरराज शंखचूड़ भी भगवान शिव के हाथों मृत्यु को प्राप्त होकर अपने शाप से मुक्त हो गया। उसकी हड्डियों से एक विशेष शंख की जाति बनी। उस शंख में रखा गया जल अत्यंत शुद्ध माना जाता है और उसका प्रयोग देवताओं पर जल चढ़ाने के लिए तथा घरों को शुद्ध करने के लिए किया जाता है। वह जल देवी लक्ष्मी और श्रीहरि विष्णु को बहुत प्रिय है परंतु इस जल को भगवान शिव की पूजा में प्रयोग नहीं किया जाता। इस प्रकार दैत्यराज शंखचूड़ के वध के पश्चात कल्याणकारी भगवान शिव प्रसन्नतापूर्वक नंदीश्वर पर आरूढ़ होकर देवी भद्रकाली, कुमार कार्तिकेय और गणेश सहित अपने अनेकों गणों को साथ लेकर पुनः अपने निवास कैलाश पर्वत की ओर चल दिए। तत्पश्चात अन्य देवता भी प्रसन्न हृदय से अपने लोकों को चले गए।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) चालीसवां अध्याय समाप्त

तुलसी द्वारा विष्णुजी को शाप

व्यास जी बोले- हे सनत्कुमार जी ! भगवान विष्णु ने पतिव्रता तुलसी को किस प्रकार अपने अधीन कर लिया? किस प्रकार पतिव्रता धर्म का पालन करने वाली देवी तुलसी एकाएक धर्म से विमुख होकर अधर्म का आचरण करने लगीं? कृपा कर इस कथा को मुझे बताइए । व्यास जी के प्रश्न को सुनकर सनत्कुमार जी बोले- हे महामुने! देवताओं के हित का सदा ध्यान रखने वाले भगवान विष्णु ने अपने आराध्य भगवान शिव की आज्ञा पाकर उनके द्वारा बताए गए कार्यों को पूर्ण करना अपना ध्येय माना। तब तुरंत वे ब्राह्मण का वेश धरकर शंखचूड़ से उसका कवच ले आए। तत्पश्चात वे अतिशीघ्र दैत्यराज शंखचूड़ के नगर की ओर चल दिए। भगवान विष्णु ने दैत्येंद्र के नगर के समीप पहुंचने से पहले ही अपना रूप बदल लिया। उन्होंने शंखचूड़ का रूप धारण कर लिया। फिर वे देवी तुलसी के पास पहुंचे। अपने पति शंखचूड़ को सामने पाकर देवी तुलसी फूली नहीं समाई। वह उनके गले से लग गई। उसकी आंखों से अश्रुधारा बही जा रही थी। उसने अपने स्वामी को सिंहासन पर बैठाकर उनके चरणों को धोया और युद्ध का समाचार पूछा। शंखचूड़ का रूप धारण किए हुए भगवान विष्णु बोले - हे प्रिये ! युद्ध के मध्य में ही ब्रह्माजी ने मेरे और भगवान शिव के बीच संधि करा दी। इसलिए मैं वापस आ गया हूं। भगवान शिव भी वापस कैलाश पर्वत पर चले गए हैं। यह कहकर उन्होंने देवी तुलसी की जिज्ञासा को शांत कर दिया। तत्पश्चात शंखचूड़ बने भगवान विष्णु तुलसी के साथ आनंदपूर्वक रमण करने लगे परंतु झूठ की हांडी रोज नहीं चढ़ती। एक दिन देवी तुलसी को ज्ञात हुआ कि उसके साथ रमण करने वाला पुरुष उसका पति शंखचूड़ नहीं बल्कि कोई और है। यह पता चलते ही देवी तुलसी आत्मग्लानि से भर उठी। उन्हें स्वयं से घृणा होने लगी। वह क्रोध से वेश बदले श्रीविष्णु पर फट पड़ीं। उन्होंने श्रीविष्णु से पूछा- तू कौन है? मुझे सच- सच बता। क्यों तूने मुझ जैसी पतिव्रता स्त्री का पतिव्रत धर्म नष्ट कर दिया? मैं तुझे नहीं छोडूंगी। ये वचन सुनकर विष्णु भगवान ने भयभीत होकर अपने स्थान पर अपनी एक मूर्ति बना दी ताकि देवी तुलसी उनके विषय में कुछ न जान पाएं परंतु तुलसी ने उनके पदचिन्हों से विष्णुजी को पहचान लिया। तब गुस्से से उन्होंने भगवान विष्णु को शाप देते हुए कहा- हे विष्णो! लोग तुम्हें भगवान मानकर तुम्हारी पूजा करते हैं पर वास्तव में तुम पूजा के योग्य नहीं हो। तुम तो सिर्फ पत्थर हो। तुम्हारे मन में दयाभाव नाम की कोई वस्तु नहीं है। तुमने मेरे सतीत्व को भंग किया है और मेरे पति शंखचूड़ को मार डाला है। इसलिए मैं तुम्हें शाप देती हूं कि तुम आज, अभी से पत्थर के हो जाओगे। यह कहकर देवी तुलसी अत्यंत दुखी मन से रोने लगीं। देवी तुलसी का दिया शाप सुनकर भगवान विष्णु भी दुखी हुए और भगवान शिव का स्मरण करने लगे। विष्णुजी की पुकार सुनकर भक्तवत्सल भगवान शिव वहां प्रकट हो गए। उन्हें देखकर देवी तुलसी और विष्णुजी ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। तब वे देवी तुलसी को समझाने लगे। उन्होंने तुलसी को समझाया कि देवी तुलसी यह तो पूर्व निश्चित था। शंखचूड़ को मिले शाप के फलस्वरूप उसका जन्म दानव कुल में हुआ और इसी कारण उसे मेरे हाथों मृत्यु प्राप्त हुई है। देवी तुम्हारी मनोस्थिति में समझ सकता हूं परंतु यह संसार नश्वर है। अतः तुम अपने द्वारा की गई तपस्या का फल लो और इस शरीर को त्याग दो। मेरे आशीर्वाद के फलस्वरूप तुम्हें दिव्य देह की प्राप्ति होगी। तुम्हारी श्रीहरि में विशेष प्रीति होगी। इस शरीर को त्यागने के पश्चात जब तुम नया शरीर धारण करोगी तो तुम गण्डकी नाम की नदी होगी और सभी के द्वारा पूजित होने के कारण प्रधान रूपा तुलसी के नाम से विख्यात होगी। चाहे स्वर्ग हो या पाताल या फिर पृथ्वी तुम वनस्पतियों में श्रेष्ठ होगी तथा श्रीहरि की विशेष कृपा सदा तुम पर रहेगी। तुमने जो श्रीहरि को शाप दिया है, वह भी अवश्य पूरा होगा। गण्डकी के तट पर सदा भगवान विष्णु भी पाषाण के रूप में स्थित होंगे। तेज दांतों वाले अनेक कीड़े उस शिला को छेद छेदकर उसमें चक्र बना देंगे। उस शिला को इस जगत में शालिग्राम के नाम से प्रसिद्धि मिलेगी। यह कहकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए। तत्पश्चात देवी तुलसी ने अपना शरीर त्याग दिया और गण्डकी नदी बन गईं। तब श्रीविष्णु ने भी उस नदी के तट पर पाषाण के रूप में निवास किया।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) इकतालीसवां अध्याय समाप्त

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