तारकासुर की वीरता ,तारकासुर-वध, बाणासुर और दैत्य प्रलंब का वध Bravery of Tarakasur, killing of Tarakasur, killing of Banasur and demon Pralamb

तारकासुर की वीरता ,तारकासुर-वध, बाणासुर और दैत्य प्रलंब का वध

तारकासुर की वीरता

ह्माजी बोले-नारद! इस प्रकार देवताओं और दानवों में बड़ा विनाशकारी युद्ध होने लगा। तारकासुर ने अपनी विशेष शक्ति चलाकर इंद्रदेव को घायल कर दिया। इसी प्रकार दानवों की सेना के वीर और बलवान राक्षसों ने देवताओं की सेना को बहुत नुकसान पहुंचाया। उन्होंने कई लोकपालों को युद्ध में हरा दिया और देवगणों को मार-मारकर भगा लगे। असुर सैनिकों को देवताओं पर हावी होते देखकर असुर खुशी में झूम उठे और भयंकर गर्जना करने लगे। तब देवताओं की ओर से लड़ रहे वीरभद्र क्रोधित होकर तारकासुर के निकट पहुंचे। असुरों ने वीरभद्र को चारों ओर से घेर लिया। उन्होंने परस्पर पाश, खड्ग, फरसा और पट्टिश आदि आयुधों का प्रयोग किया। देवता और असुर आपस में गुत्थम- गुत्था होकर लड़ने लगे। तभी देवताओं की ओर से वीरभद्र तारकासुर से लड़ने लगे। वीरभद्र ने पूरी शक्ति से तारकासुर पर आक्रमण किया और उसको त्रिशूल के प्रहार से घायल कर दिया। घायल होकर तारक जमीन पर गिर पड़ा परंतु अगले ही पल उसने स्वयं को संभाल लिया और पुनः खड़े होकर वीरभद्र से युद्ध करने लगा। महाकौतुकी तारक ने भीषण मार से वीरभद्र को घायल करके वहां से भगा दिया। तत्पश्चात उसने वहां युद्ध कर रहे देवताओं को अपने क्रोध का निशाना बनाया। तारक देवताओं पर अपने बाणों की बरसात करने लगा। तारकासुर के इस अनायास बाणों की वर्षा से देवता भयभीत हो गए। तब स्वयं श्रीहरि विष्णु तारकासुर से लड़ने के लिए आगे आए। श्रीहरि ने गदा से तारकासुर पर ज्यों ही प्रहार किया उसने विशित्व बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए। तब क्रोधित होकर विष्णुजी ने शारंग धनुष उठाया और तारक को मारने के लिए बढ़े। तभी तारक ने प्रहार करके उन्हें गिरा दिया तो श्रीविष्णु ने गुस्से से सुदर्शन चक्र चला दिया। नारद! तब मैंने कुमार कार्तिकेय के पास जाकर उनसे कहा कि मेरे दिए हुए वरदान के अनुसार तारकासुर का वध आपके श्रीहाथों से ही होगा। इसलिए कोई भी देवता तारक का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है। यह सुनकर कार्तिकेय रथ से नीचे उतर गए और पैदल ही तारक को मारने के लिए दौड़े। उनके हाथ में उनकी शक्ति थी, जो लपटों के समान चमकती हुई उल्का की तरह लग रही थी। छः मुख वाले कुमार कार्तिकेय को देखकर तारकासुर बोला -देवताओ! क्या यही बालक है तुम्हारा वीर, पराक्रमी कुमार, जो शत्रुओं का पल में विनाश - कर देता है? यह कहकर तारकासुर जोर से अट्टहास करने लगा और बोला कि इस बालक के साथ तुम सभी को मार दूंगा।
तुम इस बालक की मेरे हाथों हत्या कराओगे। ऐसा बोलते हुए भयानक गर्जना करता हुआ वह कुमार कार्तिकेय की ओर पलटा और बोला कि हे बालक! ये मूर्ख देवता तो व्यर्थ में तुझे बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। पर मैं इतना कठोर नहीं हूं कि बिना किसी अपराध के एक मासूम बालक पर वार करूं। इसलिए जा तू भाग जा। मैं तेरे प्राणों को छोड़ देता हूं। देवराज इंद्र और भगवान श्रीहरि विष्णु की निंदा करने से तारक द्वारा कमाया गया तपस्या का सारा पुण्य नष्ट हो गया था। तभी इंद्र ने उस पर वज्र का प्रहार किया, जिससे वह धरती पर गिर पड़ा। तब कुछ ही देर में तारकासुर पूरे उत्साह के साथ पुनः उठ खड़ा हुआ और अपने भीषण प्रहार से उसने देवराज इंद्र को घायल कर दिया और उन पर अपने पैर का प्रहार किया। यह देखकर देवता भयभीत हो गए और इधर-उधर भागने लगे। तभी श्रीहरि विष्णु ने इस स्थिति को संभालने के लिए तारकासुर पर अपना सुदर्शन चक्र चला दिया। चक्र ने तारकासुर को धराशायी कर दिया परंतु तारकासुर इतनी आसानी से हार मानने वाला नहीं था। वह अपनी पूरी शक्ति के साथ पुनः उठकर खड़ा हो गया। तब उसने अपनी प्रचंड शक्ति हाथ में लेकर भगवान विष्णु को ललकारा और उन्हें अपने भीषण प्रहार से घायल कर दिया। विष्णुजी मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। वहां का यह दृश्य देखकर सभी देवताओं में कोहराम मच गया। सब अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए इधर-उधर भागने लगे। सारी सेना तितर-बितर होने लगी। यह देख वीरभद्र ने तारकासुर पर आक्रमण किया। उसने त्रिशूल उठाया और तारकासुर पर वार किया, जिससे तारकासुर भूमि पर गिर पड़ा, किंतु उसी क्षण उठकर उसने वीरभद्र को अपनी शक्ति से घायल करके मूर्छित कर दिया और जोर-जोर से हंसने लगा।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड) नवा अध्याय समाप्त

तारकासुर-वध

ब्रह्माजी बोले-नारद! यह सब देखकर कुमार कार्तिकेय को तारकासुर पर बड़ा क्रोध आया और वे अपने पिता भगवान शिव के श्रीचरणों का स्मरण कर अपने असंख्य गणों को साथ लेकर तारकासुर को मारने के लिए आगे बढ़े। यह देखकर सभी देवताओं में उत्साह की एक लहर दौड़ गई और वे प्रसन्न मन से कार्तिकेय की जय-जयकार का उद्घोष करने लगे। ऋषि-मुनियों ने अपनी वाणी से कुमार कार्तिकेय की स्तुति की। तत्पश्चात तारकासुर और कार्तिकेय का बड़ा भयानक, दुस्सह युद्ध हुआ। दोनों परमवीर और बलशाली एक-दूसरे पर भीषण प्रहार करने लगे। दोनों अनेक प्रकार के दांवपेचों का प्रयोग कर रहे थे। कार्तिकेय और तारकासुर के बीच मंत्रों से भी युद्ध हो रहा था। दोनों अपनी पूरी शक्ति और सामर्थ्य का प्रयोग एक-दूसरे को मारने के लिए कर रहे थे। इस भयानक युद्ध में दोनों ही घायल हो रहे थे। युद्ध भयानक रूप लेता जा रहा था। उस भीषण युद्ध को सब देवता, गंधर्व बैठकर देखने लगे। वह अद्भुत युद्ध अनायास ही सबके आकर्षण का केंद्र बन गया। हवा चलना भूल गई। सूर्य की किरणें ठहर गईं। यहां तक कि सभी पर्वत इस युद्ध को देखकर अत्यंत भयभीत हो उठे। वे शिव-पार्वती के इस पुत्र की रक्षा करने के लिए तुरंत उधर आ गए। यह देखकर कार्तिकेय बोले- हे पर्वतो ! आप कोई चिंता न करें। आज इस महापापी को मैं सबके सामने मौत के घाट उतारकर भय से मुक्ति दिलाऊंगा। जब कार्तिकेय पर्वतों से बात करने में निमग्न थे, उसी समय तारक ने अपनी शक्ति हाथ में लेकर उन पर धावा बोल दिया। उस शक्ति के प्रहार के आघात से शिवपुत्र कार्तिकेय भूमि पर गिर पड़े परंतु अगले ही क्षण वे अपनी पूरी शक्ति के साथ पुनः उठ खड़े हुए और लड़ने के लिए तैयार हो गए। कार्तिकेय ने अपने मन में अपने माता-पिता पार्वती जी व भगवान शिव को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लिया और अपनी प्रबल शक्ति से तारकासुर की छाती पर आघात किया। उसकी चोट से तारकासुर का शरीर विदीर्ण होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। सबके देखते ही देखते वह महाबली असुर पल भर में ढेर हो गया। महाबली तारकासुर के मारे जाते ही चारों ओर कार्तिकेय की जय-जयकार गूंज उठी। तारकासुर के वध से सभी देवता बहुत प्रसन्न थे। तब अपने महाराज तारकासुर को मरा जानकर असुरों की विशाल सेना में भयानक कोलाहल मच गया। अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए सभी असुर इधर-उधर भाग रहे थे। देवताओं ने मिलकर सभी असुरों को मार गिराया। कुछ असुर डरकर मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए थे। तो बहुत से दैत्य और राक्षस हाथ जोड़कर कुमार कार्तिकेय की शरण में आ गए और उनसे क्षमा मांगने लगे। तब कुमार ने प्रेमपूर्वक उन्हें क्षमा कर दिया और उन दानवों को आदेश दिया कि वे सदैव के लिए पाताल में चले जाएं। इस प्रकार तारकासुर के मारे जाने पर उसकी सारी सेना पल भर में नष्ट हो गई। यह देखकर देवराज इंद्र के साथ-साथ समस्त देवताओं और संसार के प्राणियों में खुशी की लहर दौड़ पड़ी। पूरा त्रिलोक आनंद में डूब गया। जैसे ही कुमार कार्तिकेय की विजय का समाचार भगवान शिव-पार्वती के पास पहुंचा वे तुरंत अपने गणों को साथ लेकर युद्ध स्थल पर पधारे। श्री पार्वती जी ने अपने प्राणप्रिय पुत्र को अपने हृदय से लगा लिया और अपनी गोद में बिठाकर बहुत देर तक उसे चूमती रहीं। तभी वहां पर पर्वतराज हिमालय भी पहुंच गए और उन्होंने अपनी पुत्री पार्वती, भगवान शिव और कार्तिकेय की स्तुति की। चारों दिशाओं से उन पर फूलों की वर्षा होने लगी। मंगल ध्वनि हर ओर गूंजने लगी। हर तरफ उनकी ही जय- जयकार हो रही थी। देवताओं के स्वामी देवराज इंद्र ने अपने साथी देवताओं के साथ कुमार कार्तिकेय की हाथ जोड़कर स्तुति की। तत्पश्चात भगवान शिव अपनी पत्नी पार्वती को साथ लेकर शिवगणों सहित कैलाश पर्वत पर लौट गए।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड) दसवां अध्याय समाप्त

बाणासुर और दैत्य प्रलंब का वध

ब्रह्माजी बोले- नारद! जब तारकासुर कुमार कार्तिकेय के द्वारा मारा गया तब यह देखकर सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों सहित जन साधारण में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। सभी खुश थे। सभी देवताओं ने मिलकर भक्तिभाव से कार्तिकेय की स्तुति की। तभी क्रौंच नामक एक पर्वत दुखी होकर कार्तिकेय के पास आया। वह क्रौंच बाणासुर नामक दैत्य द्वारा सताया गया था। वह कुमार के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और भक्तिभाव से स्वामी कार्तिकेय की स्तुति करने लगा। तत्पश्चात बोला- हे प्रभो ! बाणासुर मुझे बहुत कष्ट दे रहा है, आप उससे मेरी रक्षा कीजिए। तब कार्तिकेय ने पर्वतराज क्रौंच की स्तुति से प्रसन्न होकर क्रौंच को सांत्वना दी। जब पर्वतराज क्रौंच शांत हो गए तब कुमार कार्तिकेय ने उन्हें उनके दुखों और कष्टों से छुटकारा दिलाने हेतु भगवान शिव का स्मरण करके वहीं से अपनी अद्भुत शक्ति का परिचय देते हुए एक अनोखी शक्ति छोड़ी। इस शक्ति का प्रयोग कुमार कार्तिकेय ने उस दुष्ट राक्षस बाणासुर पर किया था। तब वह शक्ति दैत्यराज बाणासुर को भस्म करके शीघ्र ही कार्तिकेय के पास वापिस लौट आई। यह शक्ति जब उनके पास वापस पहुंच गई तब वे क्रौंच से बोले - हे पर्वतराज क्रौंच! अब आपको बाणासुर नामक दैत्य से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैंने बाणासुर को मारकर तुम्हारी इस परेशानी को सदा-सदा के लिए हल कर दिया है। अतः अब तुम अपने भय को छोड़कर हमेशा के लिए निर्भय हो जाओ। अब तुम प्रसन्नतापूर्वक अपने घर की ओर प्रस्थान करो। बाणासुर के भय से मुक्ति का समाचार पाकर पर्वतराज क्रौंच बहुत प्रसन्न हुआ और उसने भक्तिभाव से कार्तिकेय की स्तुति की। तत्पश्चात वह उनसे विदा लेकर अपने गृह स्थान की ओर चल दिया। वहां पहुंचकर क्रौंच ने अपने स्वामी कार्तिकेय की प्रसन्नता के लिए भगवान शिव के तीन शिवलिंगों की स्थापना की। प्रतिज्ञेश्वर, कपालेश्वर और कुमारेश्वर नामक ये तीन शिवलिंग विश्व विख्यात हैं और लोगों की आस्था और भक्ति का जीता-जागता उदाहरण हैं। ये शिवलिंग सिद्धिदायक हैं और सोलह महान ज्योर्तिलिंगों में सम्मिलित हैं। पर्वतराज क्रौंच के अपने स्थान पर वापिस लौट जाने के उपरांत देवताओं के गुरु बृहस्पति ने कुमार कार्तिकेय से कहा कि कुमार ! देवताओं द्वारा आपको शिव-पार्वती की आज्ञा से यहां महाबली तारकासुर का वध करने के लिए लाया गया था। इस अभीष्ट कार्य की पूर्ति हो चुकी है। अत: अब आपको कैलाश पर्वत पर लौट जाना चाहिए। गुरु बृहस्पति की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि तभी प्रलंबासुर नामक दैत्य ने बहुत उपद्रव मचाना शुरू कर दिया और लोगों को कष्ट देना आरंभ कर दिया। तब शेष जी के पुत्र कुमुद दुखी अवस्था में कुमार कार्तिकेय के पास आए। वहां आकर कुमुद ने कार्तिकेय की स्तुति की और कहा- हे प्रभु! मैं आपकी शरण में आया हूं। हे गिरिजापुत्र ! मुझे प्रलंबासुर की प्रताड़ना से मुक्ति दिलाइए । तब कुमार कार्तिकेय ने प्रसन्नतापूर्वक कुमुद को प्रलंबासुर द्वारा दिए गए कष्टों से मुक्ति दिलाने हेतु अपनी शक्ति द्वारा उसका भी संहार कर दिया। उस प्रलंबासुर को उसके साथियों सहित मरा जानकर उसके शेष पुत्र कुमुद ने कार्तिकेय की बहुत स्तुति की और अपने निवास स्थान पाताल को चला गया।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड) ग्यारहवां अध्याय समाप्त

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