चौपाई अरण्यकाण्ड का समापन

चौपाई अरण्यकाण्ड का समापन End of Chaupai Aranyakaand

ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए। चहु दिसि कानन बिटप सुहाए॥
 चंपक बकुल कदंब तमाला। पाटल पनस परास रसाला॥3॥
यह चौपाई इस प्रकार है:
"ताल के पास संतों के आश्रम हैं, जहां प्राकृतिक सुंदरता चारों ओर से प्रशांति और सुखद वातावरण प्रदान करती है। चंपक, बकुल, कदंब और तमाल के पेड़, पाटल, पनस, परास और रसाले के पेड़ सुंदर और सुगंधित होते हैं।"
यहाँ बताया गया है कि संतों के आश्रम प्राकृतिक और सुंदर होते हैं, जो लोगों को शांति और सुखद वातावरण में विश्राम प्रदान करते हैं। चौपाई में विभिन्न प्रकार के पेड़ों की सुंदरता और सुगंध का भी उल्लेख किया गया है।
नव पल्लव कुसुमित तरु नाना। चंचरीक पटली कर गाना॥
सीतल मंद सुगंध सुभाऊ। संतत बहइ मनोहर बाऊ॥4॥
 यह चौपाई इस प्रकार है:
"नए पल्लवों वाले फूलदार वृक्ष और बहुत से विविध पेड़ों के पत्तों में चिरकुटी चिरोंजीवी पक्षियों का संगीत होता है। वे शीतल, मंद और सुगंधित होते हैं, जो सदैव मनोहर तरीके से बहते हैं।"
इस चौपाई में प्राकृतिक रूप से सुंदर और सुगंधित वातावरण का वर्णन किया गया है, जो बहुत से प्रकार के पौधों और पेड़ों के साथ विविधता में होता है।
कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं। सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं॥5॥
यह चौपाई इस प्रकार है:
"कोकिला की कुहू-कुहू ध्वनि सुनकर, सूर्य की किरणों को सुनाते हुए मुनि ध्यान में लगे रहते हैं।"
यहाँ चौपाई में कोकिल की मधुर ध्वनि को बताया गया है, जो कि मानव और तपस्वियों के ध्यान को आकर्षित करती है। इसमें ध्यान की शक्ति और उसका महत्त्व व्यक्त किया गया है, जो सामान्य ध्यान करने वाले के मन को शांति और सुकून प्रदान करता है।
चौपाई :  
देखि राम अति रुचिर तलावा। मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा॥
देखी सुंदर तरुबर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया॥1॥
 यह चौपाई इस प्रकार है:
"राम को बहुत ही सुंदर तालाब देखकर, मैंने उनमें स्नान किया और परम सुख प्राप्त किया। मैंने एक सुंदर वृक्ष की छाया देखी, जहां भगवान राम अपने भ्राताओं के साथ बैठे थे।"
यहाँ चौपाई में व्यक्त किया गया है कि भक्त ने भगवान राम की अत्यंत सुंदर तालाब को देखा और वहां बैठकर उनके साथ समय बिताया। इससे उन्होंने अपने अंतरात्मा को शुद्धि, शांति और सुख की प्राप्ति हुई।
तहँ पुनि सकल देव मुनि आए। अस्तुति करि निज धाम सिधाए॥
बैठे परम प्रसन्न कृपाला। कहत अनुज सन कथा रसाला॥2॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"तब फिर सभी देवता और मुनि वहाँ आए, अपने अस्तुति करके अपने धाम में स्थिति की। भगवान राम बहुत ही दयालु और परम प्रसन्न बैठे थे, जो अपने भ्राताओं के साथ रसिक कथाओं को सुना रहे थे।"
यहाँ चौपाई में बताया गया है कि भगवान राम अपने भक्तों और देवताओं की स्तुति को सुनते हैं और उनकी कथाएं सुनाते हैं, जो उन्हें आनंद और संतोष प्रदान करती हैं।
बिरहवंत भगवंतहि देखी। नारद मन भा सोच बिसेषी॥
 मोर साप करि अंगीकारा। सहत राम नाना दुख भारा॥3॥
 यह चौपाई इस प्रकार है:
"विरहवान नारद भगवान राम को देखकर, उनके चिन्हों को सोचते हुए मन हर्षित हो गया। मोर ने साप के रूप में अपनी पहचान जाहिर की, और वह राम के साथ अनेक दुःखों को सहा।"
यहाँ चौपाई में भगवान राम के दर्शन से नारद मुनि को आनंद और प्रसन्नता मिली, जो उन्हें धन्य महसूस कराता है। साथ ही, एक पक्षी मोर ने भी अपने पहचान का द्योतक बताते हुए भगवान राम के साथ दुःखों का अनुभव किया।
ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई। पुनि न बनिहि अस अवसरु आई॥
यह बिचारि नारद कर बीना। गए जहाँ प्रभु सुख आसीना॥4॥
इस चौपाई का अर्थ निम्नलिखित है:
ऐसे प्रभु, मैंने तुम्हें देखा है, फिर भी तुम्हारी अवस्था में कोई बदलाव नहीं हुआ है। इस पुनरावृत्ति में, मैं इस समय का एक बहुत अच्छा अवसर समझता हूँ॥ नारद ने इस विषय पर विचार किया है, और वह प्रभु के साथ बैठे हैं, जहां सुख है॥4॥
गावत राम चरित मृदु बानी। प्रेम सहित बहु भाँति बखानी॥
करत दंडवत लिए उठाई। राखे बहुत बार उर लाई॥5॥
इस चौपाई का अर्थ निम्नलिखित है:
गावत है रामचरित्र मृदु बानी, जो प्रेम के साथ विभिन्न रूपों में वर्णन किया गया है॥ वह भक्त प्रेम से सहित है और विभिन्न भांतियों में व्यक्त किया गया है॥ उन्होंने दंडवत करते हुए उठाया और बहुत बार अपने हृदय में राम को सुरक्षित रखा है॥5॥
स्वागत पूँछि निकट बैठारे। लछिमन सादर चरन पखारे॥6॥
इस चौपाई का अर्थ निम्नलिखित है:
स्वागत करते हुए, हनुमान ने आसपास बैठे सभी को सवागत किया। लक्ष्मण ने सम्मानपूर्वक हनुमान के चरणों को छूकर उनका स्वागत किया॥6॥
चौपाई :  
सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुंदर अगम सुगम बर दायक॥
देहु एक बर मागउँ स्वामी। जद्यपि जानत अंतरजामी॥1॥
अर्थ: ओ उदार और सहज रघुनाथ, सुनो। तुम्हारा सौंदर्य, अगम्यता और सुगमता हैं, जो सभी को आशीर्वाद देते हैं॥
एक बार मैं स्वामी से एक मंग करता हूँ। यहाँ तक कि वह अंतर्ज्ञानी हो, मेरी इच्छाओं को जानता हो॥1॥
इस चौपाई में, तुलसीदास जी श्रीराम चंद्र जी से उनके उदारता, सुन्दरता, अगम्यता, और सुगमता का वर्णन कर रहे हैं और उनसे एक बार मात्र अपनी सेवा करने का आग्रह कर रहे हैं। उनका यह भक्तिपूर्ण भाव चौपाई के माध्यम से अद्वितीय परमेश्वर के प्रति अपने भक्ति भावना को व्यक्त करता है।
जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ। जन सन कबहुँ कि करऊँ दुराऊ॥
कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिबर न सकहुँ तुम्ह मागी॥2॥
 इस चौपाई का अर्थ है:
"जानो, हे मुनिश्रेष्ठ! तुम मेरे लिए सुखद बताओ। कभी-कभी तो ऐसा कार्य करो, जिससे मैं दुःखिनी हो जाऊँ॥ मुझे यह बताओ कि वह कौन-कौन सी वस्तु है जो तुम्हें प्रिय है, जिसकी मुझे आकांक्षा है, वह वस्तु जो मुनिश्रेष्ठ नहीं कह सकते हो॥"
जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें। अस बिस्वास तजहु जनि भोरें॥
तब नारद बोले हरषाई। अस बर मागउँ करउँ ढिठाई॥3॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"हे जन, मैं कुछ अदायगी नहीं मांगता हूँ। तुम इस विश्वास को छोड़कर सुबह-सुबह जागो॥ तब नारद ने हर्षित होकर कहा, 'ऐसा करने पर मैं तुमसे कुछ मांगता हूँ, तुम ध्यान से सुनो॥'"
जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक तें एका॥
राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका॥4॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"यद्यपि प्रभु के नाम अनेक हैं, श्रुति (वेद) कहती है कि एक ही नाम सबसे अधिक है। राम, सभी नामों में श्रेष्ठ हैं, वह सर्वनाथ, अघभोक्षक, खगवाहन, गणकों को बढ़ा कर अधिक है॥"
चौपाई :  
अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी। पुनि नारद बोले मृदु बानी॥
राम जबहिं प्रेरेउ निज माया मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया॥1॥
 इस चौपाई का अर्थ  है:
"रघुकुल नायक श्रीराम को बहुत आनंदित जानकर फिर नारद ने कहा, 'श्रीराम, जब से तुमने मुझे प्रेरित किया है, मेरा मोह तुमपर बढ़ गया है। हे रघुराज, मेरी बातें सुनो॥'"
तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा। प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा॥
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा॥2॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"तब मैं बिवाह के लिए इच्छा करता हूँ, पर भगवान इसके लिए कोई कारण नहीं बताते॥ मुनिश्रेष्ठ, मैं तुमसे यह कहता हूँ कि जो भजते हैं, उन्हें मैंने सम्पूर्ण आशा दी है, इसलिए जो कुछ भी मुझपर आश्रित है, उससे बाहर न करो॥"
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥
गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई। तहँ राखइ जननी अरगाई॥3॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"मैं सदा उनकी सेवा करता हूँ, जैसे बच्चा अपनी माँ की देखभाल करता है। वह अग्नि और सर्प को बच्चा अपनी बालकी के सामने रखता है, ठीक उसी तरह मैं अपनी जननी (देवी) की रक्षा करता हूँ॥"
प्रौढ़ भएँ तेहि सुत पर माता। प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता॥
 मोरें प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। बालक सुत सम दास अमानी॥4॥
इस चौपाई का अर्थ  है:
"जब पुत्र प्रौढ़ हो जाता है, माता उससे पहले की बातों में प्रीति नहीं करती है। मेरा पुत्र बहुत बलवान और ज्ञानी है, वह एक छोटा से सेवक की भाँति निर्माण हो गया है, लेकिन उसमें अहंकार नहीं है॥"
जनहि मोर बल निज बल ताही। दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही॥
यह बिचारि पंडित मोहि भजहीं। पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं॥5॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"मैं अपनी शक्ति को अपने ही बल में जानता हूँ, क्योंकि क्रोध और काम रुपी शत्रु मेरे ही बल में हैं। इसे ध्यान से विचारकर पंडित मुझे भजते हैं, लेकिन वह ज्ञान और भक्ति को नहीं त्यागते॥"
चौपाई :  
सुनु मुनि कह पुरान श्रुति संता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता॥
जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी ॥1॥
इस चौपाई का अर्थ हिंदी में निम्नलिखित है:
"मुनिश्रेष्ठ, सुनो, पुराण और श्रुति में कहा गया है कि नारी बसंत के रूप में मोह का वन है। जप, तप, और नेम की शक्ति से जल का अश्रय लेने वाली नारी भी गर्मी में सूखती है॥1॥"
काम क्रोध मद मत्सर भेका। इन्हहि हरषप्रद बरषा एका॥
 दुर्बासना कुमुद समुदाई। तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई॥2॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"काम, क्रोध, मद, मत्सर - इन बातों से भरी एक ही बौछार होती है। इन बुरी वासनाओं को त्यागकर सदा सुखद और सर्वदा हर्षदायक भावना में रहने वाला व्यक्ति दुर्बासना के समान होता है, और उसे सदा सुख प्राप्त होता है॥2॥"
धर्म सकल सरसीरुह बृंदा। होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा॥
पुनि ममता जवास बहुताई। पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई॥3॥
 इस चौपाई का अर्थ है:
"धर्म सभी शरीरों की जड़ है, और इन तीनों को हिमाचल समान देखकर सुख मिलता है। फिर ममता फलाकर बहुता करती है, जिससे नारी को सिसिर ऋतु की प्राप्ति होती है॥3॥"
पाप उलूक निकर सुखकारी। नारि निबिड़ रजनी अँधियारी॥
बुधि बल सील सत्य सब मीना। बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना॥4॥
इस चौपाई का अर्थ है:
"पाप उल्लू की तरह रात में सुखदाई है, जबकि रात्रि अँधियारी और नारी निबीड़ होती है। बुद्धि, बल, सील, और सत्य - इन सबको मीना में समा लो, तब तुम एक सच्चे ज्ञानी कहलाओगे॥4॥"
चौपाई :  
सुनि रघुपति के बचन सुहाए। मुनि तन पुलक नयन भरि आए॥
कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती॥1॥
इस चौपाई का अर्थ हिंदी में निम्नलिखित है:
"रघुपति (श्रीराम) के वचनों को सुनकर मुनि के शरीर में भी ताकत का अनुभव हुआ, और उनके आँसुओं से नयनों में भरी उत्साहित भावना उत्पन्न हुई॥ मुनिश्रेष्ठ, कृपया बताइए, प्रभु के इस प्रकार के भक्ति भाव को देखकर आपमें कैसी भक्ति और प्रीति उत्पन्न होती है?॥1॥"
जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी। ग्यान रंक नर मंद अभागी॥
 पुनि सादर बोले मुनि नारद। सुनहु राम बिग्यान बिसारद॥2॥
 इस चौपाई का अर्थ हिंदी में निम्नलिखित है:
"जो भक्त प्रभु की भक्ति नहीं करते और भ्रांति में हैं, वे व्यक्ति ज्ञानरंग में मंद और अभाग्यशाली होते हैं। फिर मुनि नारद ने भगवान श्रीराम से कहा, 'हे राम, इस बिग्यान को भूलने वाले ग्रंथों का अर्थ सुनो॥2॥"
संतन्ह के लच्छन रघुबीरा। कहहु नाथ भव भंजन भीरा॥
सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ। जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ॥3॥
यह चौपाई इस प्रकार है:
"हे रघुवीर (श्रीराम), संतों के लक्षण बताइए, हे भव भंजन भीर (भक्तों के भय का नाश करने वाले नाथ), आप उनके गुण सुनिए। सुनिए, मुनिराज, मैं संतों के गुण बताता हूँ, जिनसे मैं बसता हूँ।"
इस चौपाई में भक्त श्रीराम से कह रहे हैं कि वे संतों के लक्षण (गुण) और कारणों को बताएं ताकि वे उनके गुणों की महिमा सुन सकें और उनके भक्त बन सकें। 
षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा॥
अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी॥4॥
यह चौपाई इस प्रकार है:
"जो षड़्बीजों को जीतता है और अनघ, अकामा, अचल, अकिंचन, सुचि, और सुखदाता है। जो अनंत बुद्धिमान, अहंकाररहित, मितभोगी, सत्य के रहस्य को जानने वाला है, वह सच्ची सार्थक जीवन-साधना में योग्य है।"
यह चौपाई भगवान के गुणों, सच्चाई के मार्ग, और आध्यात्मिक साधनाओं के बारे में बताती है। इसमें जीवन के मूल्यों और अनंत ज्ञान के महत्त्व को उजागर किया गया है।
सावधान मानद मदहीना। धीर धर्म गति परम प्रबीना॥5॥
यह चौपाई इस प्रकार है:
"संयमी होकर सावधान रहो, मदहीन रहो। धीरे-धीरे धर्म की पथ पर प्रबीण हो जाओ।"
यहाँ बताया गया है कि धर्म के मार्ग पर चलने के लिए धीरज से और संयम से रहना बहुत महत्त्वपूर्ण है। मदहीनता यानी मानोविशेषों से दूर रहना और धीरज से धर्म के पथ पर अग्रसर होना।
चौपाई :  
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥1॥
यह चौपाई इस प्रकार है:
"अपने गुणों को सुनकर मन प्रसन्न हो सकता है, लेकिन दूसरों के गुण सुनकर अधिक आनंदित होता है। समता और शीतलता को त्यागने में नीतिमान रहो, सरलता से सभी के साथ प्रेम रखो।"
यहाँ बताया गया है कि अपने गुणों को सुनकर भी आनंद मिलता है, लेकिन दूसरों के गुणों को सुनकर और उनसे प्रेरणा लेकर अधिक आनंद मिलता है। साथ ही, यह चौपाई सरलता, समता, और प्रेम के महत्त्व को बताती है।
जप तप ब्रत दम संजम नेमा। गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा॥
श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया॥2॥
यह चौपाई इस प्रकार है:
"जप (मंत्र जाप), तप (तपस्या), ब्रत (व्रत), दम (संयम), संजम (नियमितता), नेम (धार्मिक नियमों का पालन)। गुरु को प्रेम करना ही ब्राह्मणों के पद का प्रेम है। श्रद्धा, छमा (क्षमा), मैत्री (मित्रता), दान (दया)। मेरी प्रेम अमर भावना से है मेरे प्रेमिक पद की।"
यहाँ बताया गया है कि गुरु को प्रेम करना ब्राह्मणों के पद का प्रेम है और इसके अलावा धार्मिक क्रियाओं के अलावा भी, क्षमा, मैत्री, दान आदि मानवीय गुणों को भी प्रेम की भावना से किया जाना चाहिए।
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना॥
दंभ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥3॥
यह चौपाई इस प्रकार है:
"विवेक, बिबेक, विनय, विज्ञान। वेद, शास्त्र, और अर्थवाचीन ज्ञान। अहंकार, अभिमान, मद को त्याग। बच्चों को भूलकर न करो गलती।"
यहाँ बताया गया है कि जीवन में विवेक, विनय, विज्ञान, और समझ की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही, अहंकार, अभिमान, और मद को छोड़ना चाहिए, और बच्चों की भूल नहीं करनी चाहिए।
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला॥
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सादर श्रुति तेते॥4॥
यह चौपाई इस प्रकार है:
"मेरी लीलाएं सदा गाते और सुनाते हैं। मेरा कार्य हेतु रहित और परहित में रमण करता है। मुनिराज, साधुओं के गुण सुनो जितने हो सके, परन्तु उनकी महिमा को समझना श्रुतियों के साधन से संभव नहीं है।"
यहाँ बताया गया है कि भगवान की लीलाएं नित्य गाते हैं और सुनाते हैं, जो परहित और हेतु रहित कार्यों में रमण करते हैं। साथ ही, मुनिराजों और साधुओं के गुणों को सुनना महत्त्वपूर्ण है, लेकिन वे श्रुतियों से समझा नहीं जा सकता।

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