दक्ष ने भगवान शिव की अनेकों बार स्तुति ,यज्ञ को पूर्ण करना Daksh praised Lord Shiva many times and completed the yagya

दक्ष ने भगवान शिव की अनेकों बार स्तुति ,यज्ञ को पूर्ण करना

यह कथा विष्णु पुराण में विविध रूप से वर्णित है, जिसमें भगवान शिव की महिमा और उनके भक्त प्रजापति दक्ष के प्रति कृपा का वर्णन है। इसमें यह भी बताया गया है कि ज्ञानी भक्तों के लिए भगवान का साक्षात्कार संभव है और उन्हें भगवान के स्वरूप का अनुभव होता है। यह कथा धर्म, भक्ति, और ज्ञान के महत्त्व को सार्थक रूप से प्रस्तुत करती है।

"दक्ष का यज्ञ को पूर्ण करना"

Daksh praised Lord Shiva many times and completed the yagya

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद मुनि! इस प्रकार श्रीहरि, मेरे देवताओं और ऋषि-मुनियों की स्तुति से भगवान शंकर बहुत प्रसन्न हुए। वे हम सबको कृपादृष्टि से देखते हुए बोले- प्रजापति दक्ष में तुम सभी पर प्रसन्न हूँ। मेरा अस्तित्व सबसे अलग है में स्वतंत्र ईश्वर हूँ। फिर भी मैं सदैव अपने भक्तों के अधीन ही रहता हूं। चार प्रकार के पुण्यात्मा मनुष्य ही मेरा भजन करते हैं। उनमें पहला आर्त, दूसरा जिज्ञासु, तीसरा अर्थार्थी और चौथा ज्ञानी है। परंतु ज्ञानी को ही मेरा खास सान्निध्य प्राप्त होता है उसे मेरा ही स्वरूप माना जाता है। वेदों को जानने वाले परम ज्ञानी ही मेरे स्वरूप को जानकर मुझे समझ सकते हैं। जो मनुष्य कर्मों के अधीन रहते हैं, वे मेरे स्वरूप को नहीं पा सकते। इसलिए तुम ज्ञान को जानकर शुद्ध हृदय एवं बुद्धि से मेरा स्मरण कर उत्तम कर्म करो हे दक्ष! में ही ब्रह्मा और विष्णु का रक्षक हूं। में ही आत्मा हूं। मैंने ही इस संसार की सृष्टि की है। में ही संसार का पालनकर्ता हूँ। में ही दुष्टों का नाश करने के लिए संहारक बन उनका विनाश करता हूं। बुद्धिहीन मनुष्य, जो कि सदैव सांसारिक बंधनों और मोह-माया में फंसे रहते हैं, कभी भी मेरा साक्षात्कार नहीं कर सकते। मेरे भक्त सदैव मेरे ही स्वरूप का चिंतन और ध्यान करते हैं। हम तीनों अर्थात ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रदेव एक ही हैं। जो मनुष्य हमें अलग न मानकर हमारा एक ही स्वरूप मानता है, उसे सुख-शांति और समृद्धि की प्राप्ति होती है परंतु जो अज्ञानी मनुष्य हम तीनों को अलग-अलग मानकर हममें भेदभाव करते हैं, वे नरक के भागी होते हैं। हे प्रजापति दक्ष यदि कोई श्रीहरि का परम भक्त मेरी निंदा या आलोचना करेगा या मेरा भक्त होकर ब्रह्मा और विष्णु का अपमान करेगा, उसे निश्चय ही मेरे कोप का भागी होना पड़ेगा। तुम्हें दिए गए सभी शाप उसको लग जाएंगे। भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों तथा श्रेष्ठ विद्वानों को हर्ष हुआ तथा दक्ष भी प्रभु की आज्ञा मानकर अपने परिवार सहित शिवजी की भक्ति में मग्न हो गया। सब देवता भी महादेव जी का ही गुणगान करने लगे। वे शिवभक्ति में लीन हो गए और उनके भजनों को गाने लगे। इस प्रकार जिसने जिस प्रकार से भगवान शिव की स्तुति और आराधना की, भगवान शिव ने प्रसन्नतापूर्वक उसे ऐसा ही वरदान प्रदान दिया। तत्पश्चात, भक्तवत्सल भगवान शंकर जी से आज्ञा लेकर प्रजापति दक्ष ने अपना यज्ञ पुनः आरंभ किया। उस यज्ञ में उन्होंने सर्वप्रथम शिवजी का भाग दिया। सब देवताओं को भी उचित भाग दिया गया। यज्ञ में उपस्थित सभी ब्राह्मणों को दक्ष ने सामर्थ्य के अनुसार दान दिया। महादेव जी का गुणगान करते हुए दक्ष ने यज्ञ के सभी कर्मों को भक्तिपूर्वक संपन्न किया। इस प्रकार सभी देवताओं, मुनियों और ऋत्विजों के सहयोग से दक्ष का यज्ञ सानंद संपन्न हुआ। तत्पश्चात सभी देवताओं और ऋषि-मुनियों ने महादेव जी के यश का गान किया और अपने-अपने निवास की ओर चले गए। वहां उपस्थित अन्य लोगों ने भी शिवजी से आज्ञा मांगकर वहां से प्रस्थान किया। तब मैं और विष्णुजी भी शिव वंदना करते हुए अपने-अपने लोक को चल दिए । दक्ष ने करुणानिधान भगवान शिव की अनेकों बार स्तुति की और शिवजी को बहुत सम्मान दिया। तब वे भी प्रसन्न होकर अपने गणों को साथ लेकर कैलाश पर्वत पर चल दिए। कैलाश पर्वत पर पहुंचकर शिवजी को अपनी प्रिय पत्नी देवी सती की याद आने लगी। महादेव जी ने वहां उपस्थित गणों से उनके बारे में अनेक बातें कीं। वे उनको याद करके व्याकुल हो गए। हे नारद! मैंने तुम्हें सती के परम अद्भुत और दिव्य चरित्र का वर्णन सुनाया। यह कथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है। यह उत्तम वृत्तांत सभी कामनाओं को अवश्य पूरा करता है। इस प्रकार इस चरित्र को पढ़ने व सुनने वाला ज्ञानी मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है। उसे यश, स्वर्ग और आयु की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य भक्तिभाव से इस कथा को पढ़ता है, उसे अपने सभी सत्कर्मों के फलों की प्राप्ति होती है।

इस कथा से हमें यह भी सिखने को मिलता है कि भगवान का भक्त उनके सामर्थ्य और महिमा को समझकर उन्हें एक मात्र सत्य और परम सत्य मानता है।

श्रीरुद्र संहिता द्वितीय खंड बयालीसवां अध्याय समाप्त

॥ श्रीरुद्र संहिता (सती खण्ड) संपूर्ण ।।

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