बाणासुर की भुजाओं का विध्वंस "बाणासुर को गण पद की प्राप्ति"

 बाणासुर की भुजाओं का विध्वंस "बाणासुर को गण पद की प्राप्ति"

बाणासुर की भुजाओं का विध्वंस

व्यास जी ने सनत्कुमार जी से पूछा - हे ब्रह्मापुत्र सनत्कुमार जी ! जब भगवान शिव को श्रीकृष्ण ने जृम्भणास्त्र से मोहित कर दिया, तब वहां उस युद्ध में क्या हुआ? सनत्कुमार ने बताया - व्यास जी ! जब युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने जृम्भणास्त्र का प्रयोग किया तो देवाधिदेव भगवान शिव अपने शिवगणों सहित मोहित हो गए और संग्राम भूमि में ही सो गए। तब दैत्यराज बाणासुर अपने रथ पर बैठकर श्रीकृष्ण से युद्ध करने के लिए आया । बाणासुर के रथ के घोड़ों की लगाम उसके सेनापति कुष्माण्ड के हाथों में थी। अनेकों प्रकार के आयुधों से सुसज्जित होकर बाणासुर भीषण युद्ध करने लगा। दोनों पक्षों में काफी समय तक युद्ध चलता रहा। श्रीकृष्ण जी ने भगवान शिव का स्मरण करके हाथो में शार्गं धनुष उठा लिया और बाणासुर पर बाणों की वर्षा करने लगे परंतु बाणासुर भी वीर और पराक्रमी था। वह उन बाणों को अपने पास आने से पहले ही काट डालता। बाणासुर की वीरता से सारी कृष्ण सेना भयभीत होने लगी। उसके दैत्य भी बड़ी बहादुरी से लड़ रहे थे। बाणासुर ने देखते ही देखते संपूर्ण यादव वंश को मूर्च्छित कर दिया। यह दृश्य देखकर श्रीकृष्ण अत्यंत क्रोधित हो उठे। श्रीकृष्ण ने गर्जन करते हुए अनेक प्रचण्ड बाणों को चलाकर उसके रथ और धनुष को तोड़ दिया। तब बाणासुर गदा लेकर कृष्ण की ओर दौड़ा। फिर दोनों में गदा युद्ध होने लगा। बाणासुर ने श्रीकृष्ण पर गदा का भीषण प्रहार किया,

जिससे वे एक पल के लिए धरती पर गिर पड़े परंतु अगले ही क्षण उठकर पूरे वेग के साथ दैत्येंद्र से युद्ध करने लगे। उन दोनों के बीच इसी प्रकार भीषण युद्ध चलता रहा। तब एक दिन भगवान श्रीकृष्ण बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने मन में भगवान शिव का स्मरण करके हाथों में परम दिव्य सुदर्शन चक्र उठा लिया और दैत्यराज बाणासुर की भुजाएं लकड़ी की तरह काट डालीं। अब बाणासुर की केवल चार भुजाएं ही शेष थीं। तब क्रोधित श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र द्वारा ही बाणासुर का सिर काटनाउसी समय भगवान शिव मोहनिद्रा से जाग गए और बोले—हे देवकीनंदन! आप तो सदा ही मेरी आज्ञा का पालन करते हैं। मैंने आपको बाणासुर की भुजाओं को काटने की ही आज्ञा दी थी। यह मैंने अपने इस भक्त के गर्व को तोड़ने के लिए किया था। अपने भक्तों की सदा रक्षा करना मेरा धर्म है। इसलिए आप बाणासुर के वध की इच्छा त्याग दीजिए और अपनी शत्रुता को भूल जाइए। बाणासुर की पुत्री उषा और आपके पौत्र अनिरुद्ध एक-दूसरे के होकर जीना चाहते हैं। इसलिए उन दोनों को विवाह के पवित्र बंधन में बांधकर आप अपने साथ द्वारका ले जाइए। यह कहकर भगवान शिव ने बाणासुर और श्रीकृष्ण में मित्रता करा दी और स्वयं वहां से अंतर्धान होकर शिवलोक को चले गए। तब बाणासुर श्रीकृष्ण को आदर सहित अपने महल में ले गया और वहां उनका बहुत आदर-सत्कार किया। तत्पश्चात शुभ मुहूर्त में अपनी पुत्री उषा और श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का विवाह संपन्न कराके उन्हें अनेक बहुमूल्य रत्नों और हीरों-जवाहरातों के साथ विदा किया।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) पचपनवां अध्याय समाप्त

बाणासुर को गण पद की प्राप्ति
सनत्कुमार जी बोले- हे महामुनि व्यास जी ! जब भगवान शिव बाणासुर और श्रीकृष्ण में मित्रता करवाकर वहां से अंतर्धान हो गए तब बाणासुर ने श्रीकृष्ण के साथ आदरपूर्वक अपनी पुत्री व दामाद को विदा कर दिया। इस प्रकार जब वे चले गए, तब अकेले में बैठकर बाणासुर ने अपने आचरण के विषय में बहुत सोचा और उसे अपनी करनी पर बहुत पश्चाताप हुआ। तब वह सीधा अपने पूजागृह में चला गया और वहां जाकर भगवान शिव के देवालय के सामने बैठकर रोने लगा। फिर उसने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उनकी विधि- विधान सहित स्तुति करनी आरंभ कर दी। दैत्यराज बाणासुर ने अनेकों मंत्रों एवं स्तोत्रों द्वारा अपने आराध्य भगवान शिव की स्तुति की। तत्पश्चात भगवान शिव को प्रणाम करके बाणासुर ने ताण्डव नृत्य करना आरंभ कर दिया। अनेक प्रकार से ठुमका लगाकर और मुंह से बाजा बजाकर वह नृत्य करने लगा। उसके चेहरे के हाव-भाव और हाथों की विभिन्न मुद्राएं उसके नृत्य को और प्रभावशाली बना रहे थे। उसने अनेकों प्रकार के नृत्य किए। साथ ही अपने शरीर की रक्त धाराओं से वहां की भूमि को भी भिगो दिया। इस प्रकार दैत्यराज बाणासुर की भक्ति भावना और घोर आराधना देखकर भगवान शिव उस पर प्रसन्न हो गए और उसको दर्शन देने के लिए वहां प्रकट हुए। भगवान शिव को इस प्रकार अपने सामने पाकर दैत्येंद्र ने उन्हें प्रणाम किया और अनेकों प्रकार से उनकी स्तुति करने लगा। जिसे सुनकर भगवान शिव बोले- हे दैत्यराज बाणासुर ! मैं तुम्हारी उत्तम भक्तिभावना से बहुत प्रसन्न हूं। जो मांगना चाहते हो मांग लो। मैं तुम्हें आज तुम्हारी मनोवांछित वस्तु प्रदान करूंगा।
भगवान शिव द्वारा वरदान मांगने के लिए कहे जाने पर बाणासुर बोला- हे देवाधिदेव ! भगवान शिव ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे अपना कृपापात्र बनाइए। भगवन, मेरी पुत्री उषा और अनिरुद्ध का पुत्र ही मेरे शोणितपुर का राज्य संभाले। मेरा भगवान विष्णु से वैर-भाव मिट जाए। मेरे अंदर व्याप्त रजोगुण और तमोगुण का नाश हो जाए और पुनः दैत्यभाव उत्पन्न न हो। मुझे सभी शिव भक्तों से स्नेह हो। मुझे आपके गणनायकत्व की प्राप्ति हो। इस प्रकार के वचन सुनकर भगवान शिव बोले- तथास्तु! बाणासुर तुम्हें निश्चय ही मेरे गणनायक पद की प्राप्ति होगी। तुम्हारी सभी इच्छाएं अवश्य ही पूरी होंगी। यह कहकर भगवान शिव वहां से अंतर्धान हो गए। शिवजी के प्रसाद से बाणासुर ने महाकाल तत्व प्राप्त किया जिसे पाकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) छप्पनवां अध्याय समाप्त

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