कार्तिकेय का कैलाश-गमन 'पार्वती द्वारा गणेश की उत्पत्ति' Kartikeya's journey to Kailash 'Origin of Ganesha by Parvati'

कार्तिकेय का कैलाश-गमन 'पार्वती द्वारा गणेश की उत्पत्ति'

कार्तिकेय का कैलाश-गमन

ब्रह्माजी बोले- हे नारद! इस प्रकार जब कार्तिकेय द्वारा दैत्यराज बाणासुर और प्रलंबासुर को भस्म कर दिया गया तब सभी देवताओं ने सहर्ष कुमार कार्तिकेय का स्तवन किया। देवता बोले- हे देव ! हम राक्षसराज तारक का वध करने वाले आपको नमस्कार करते हैं। हे शंकर नंदन! हे गिरिजापुत्र ! आपने बाणासुर और प्रलंबासुर नामक राक्षसों को मारकर इस त्रिलोक के संकटों को दूर किया है। आपकी भक्ति पवित्र है तथा आपका स्वरूप विघ्नों का नाश कर अभय प्रदान करने वाला है। हम सब स्वच्छ मन से आपकी स्तुति करते हैं। आप हमारी इस स्तुति को स्वीकार करें। कुमार ! हम आशा करते हैं कि आप इसी प्रकार सदैव हमारे कष्टों और संकटों को दूर करने में हमारी सहायता करेंगे। देवताओं द्वारा की गई इस अनन्य स्तुति को सुनकर कुमार कार्तिकेय का हृदय प्रसन्नता से खिल उठा। उन्होंने सभी देवताओं को सहर्ष उत्तम वरदान प्रदान किए तथा भविष्य में सदैव सहायता करने का उन्हें वचन दिया। पर्वतों द्वारा की गई स्तुति से प्रसन्न होकर कार्तिकेय बोले —हे भूधरो! आप सदा से उत्तम और श्रेष्ठ हैं। आज से आप सभी साधु-संतों और तपस्या में लीन रहने वाले साधकों द्वारा पूजनीय होंगे। पर्वतों में श्रेष्ठ मेरे नाना हिमालय इन ज्ञानियों और तपस्वियों के लिए फलदाता सिद्ध होंगे। श्रीहरि विष्णु बोले- हे कुमार! महाबली तारक का वध करके आपने इस चराचर जगत को सुखी कर दिया है। अब आप अपना पुत्र होने का कर्तव्य भी निभाएं। अब आपको अपने माता-पिता भगवान शिव और पार्वती की प्रसन्नता के लिए उनके पास कैलाश पर्वत पर जाना चाहिए। तत्पश्चात कुमार सभी देवताओं के साथ दिव्य विमान में बैठकर अपने माता-पिता के पास कैलाश पर्वत की ओर चल दिए। वे सब आनंद ध्वनि करते हुए भगवान शिव के पास पहुंचे। विष्णुजी सहित सभी देवताओं ने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को प्रणाम करके उनकी स्तुति की। कुमार कार्तिकेय ने भी अपने माता-पिता को सेवा भाव से प्रणाम किया। भगवान शिव ने प्रसन्नता से अपने पुत्र का मुंह चूम लिया और बहुत स्नेह किया। देवी पार्वती ने कुमार को अपनी गोद में बिठाकर खूब चूमा। यह देखकर सभी देवता आनंद में मगन होकर शिव- पार्वती और कार्तिकेय की जय-जयकार करने लगे। तत्पश्चात सभी देवताओं सहित श्रीहरि विष्णु और मैंने देवाधिदेव शिवजी से जाने की आज्ञा मांगी और अपने-अपने लोक को चले गए। तब भगवान शिव अपनी प्राणप्रिया देवी पार्वती और पुत्र कार्तिकेय के साथ आनंदपूर्वक कैलाश पर निवास करने लगे।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड) बारहवां अध्याय समाप्त

पार्वती द्वारा गणेश की उत्पत्ति

सूत जी कहते हैं-कुमार कार्तिकेय के उत्तम चरित को सुनकर नारद जी बहुत प्रसन्न हुए और प्रसन्नतापूर्वक ब्रह्माजी से बोले - हे विधाता! आप ज्ञान के अथाह सागर हैं तथा करुणानिधान भगवान शिव के विषय में सबकुछ जानते हैं। आपने शिवपुत्र स्वामी कार्तिकेय के अमृतमय चरित को सुनाकर मुझ पर बड़ी कृपा की है। भगवन्! अब मैं विघ्न विनाशक श्रीगणेश के विषय में जानना चाहता हूं। उनके दिव्य चरित, उनकी उत्पत्ति के विषय में, सबकुछ सविस्तार बताकर मुझे कृतार्थ कीजिए । मुनिश्रेष्ठ नारद के ये उत्तम वचन सुनकर ब्रह्माजी हर्षपूर्वक बोले- नारद! तुम गणेश उत्पत्ति की कथा सुनना चाहते हो। अतएव तुम्हारी प्रसन्नता के लिए मैं तुम्हें उनके जन्म के विषय में बताता हूं। एक बार की बात है। देवी पार्वती की दो सखियां जया और विजया, जो सदा से ही उनके पास रहती थीं, उनके पास आईं और बोलीं- हे सखी! यहां कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के असंख्य गण हैं। वे सदा भगवान शिव की आज्ञा का प्रसन्नता से पालन करते हैं। वे सदा भगवान शिव की आज्ञा को ही सर्वोपरि मानते हैं। इसलिए आपको भी अपने लिए किसी एक विशेष ऐसे गण की रचना करनी चाहिए, जिसके लिए आपकी ही आज्ञा सर्वोच्च हो और वह किसी अन्य के सामने न झुके। अपनी सखियों की बात यद्यपि पार्वती को एक बार को अच्छी लगी परंतु अगले ही पल वे बोलीं कि भला मुझमें और मेरे पति में क्या भेद है? हम दोनों एक ही हैं और सभी शिवगण मुझमें और सदाशिव में कोई अंतर नहीं समझते। वे हम दोनों की ही आज्ञाओं का सदा पालन करते हैं। पार्वती जी के ये वचन सुनकर उनकी सखियां आगे कुछ नहीं बोलीं और वहां से चली गई। एक दिन की बात है, देवी पार्वती अपने कक्ष में स्नान कर रही थीं। वे नंदी को द्वारपाल बनाकर द्वार पर बैठाकर गई थीं। तभी कक्ष में भगवान शिव का प्रवेश हो गया क्योंकि नंदी अपने आराध्य शिव को अंदर आने से रोक न पाए। देवी पार्वती को उस समय बड़ी लज्जा महसूस हुई। इस घटना के उपरांत पार्वती को अपनी सखियों द्वारा दिए गए सुझाव का स्मरण हुआ। तब उन्होंने सोचा कि मेरा भी कोई ऐसा सेवक होना चाहिए जो कार्यकुशल हो और मेरी आज्ञा का सदैव पालन करे। अपने कर्तव्य से कभी भी विचलित न हो। ऐसा विचार करके उन्होंने अपने शरीर के मैल से शुभ लक्षणों से युक्त उत्तम बालक की रचना की। वह बालक शोभा संपन्न, महाबली, पराक्रमी और सुंदर था। पार्वती जी ने उसे सुंदर वस्त्र और आभूषणों से विभूषित करके उसे अनेक आशीर्वाद दिए। पार्वती ने कहा कि तुम मेरे पुत्र हो। तुम्हारा नाम गणेश है। पार्वती जी के ये वचन सुनकर वह तेजस्वी बालक गणेश बोला- हे माता ! हे जननी ! आज आपने मुझे इस जगत में उत्पन्न किया है। आज से मैं आपका पुत्र हूं। मैं आपको बारंबार नमस्कार करता हूं। मेरे लिए अब क्या कार्य है? बताइए, मैं उसे अवश्य पूरा करूंगा। तब देवी पार्वती बोलीं - हे पुत्र गणेश! आज से तुम मेरे द्वारपाल बन जाओ। मेरी यह आज्ञा है कि मेरे महल में कोई मेरी अनुमति के बिना प्रविष्ट न हो। कोई कितना भी हठ क्यों न करे, तुम उसे अंदर नहीं आने देना। यह कहकर पार्वती ने एक छड़ी गणेश के हाथ में पकड़ा दी और प्रेमपूर्वक उनका मुख चूमकर अंदर स्नान करने के लिए चली गईं। गणेश सजगता से हाथ में छड़ी लेकर महल के द्वार पर पहरा देने लगे। उसी समय भगवान शिव देवी पार्वती से मिलने की इच्छा लेकर महल में आ गए। जब वे द्वार पर पहुंचे तो गणेश ने उनसे कहा - हे देव! इस समय मेरी माता अंदर स्नान कर रही हैं। अतः आप यहां से चले जाएं तथा बाद में आएं। यह कहकर उन्होंने भगवान शिव के सामने छड़ी अड़ा दी। चूंकि गणेश जी ने भगवान शिव को पहले कभी नहीं देखा था इसलिए उन्हें वे नहीं पहचान सके। यह देखकर भगवान शिव को क्रोध आ गया और वे बोले – ओ मूर्ख ! तू मुझको अंदर जाने से रोक रहा है। तू नहीं जानता कि मैं कौन हूं? मैं शिव हूं। मैं ही पार्वती का पति हूं और अपने ही घर में जा रहा हूं। यह कहकर जैसे ही भगवान शिव आगे बढ़े, गणेश जी ने उन पर छड़ी से प्रहार कर दिया। यह देखकर भगवान शिव को क्रोध आ गया। उन्होंने अपने गणों को गणेश को वहां से हटाने की आज्ञा दी और स्वयं बाहर खड़े हो गए।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड) तेरहवां अध्याय समाप्त

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