किष्किन्धा काण्ड चौपाई

किष्किन्धा काण्ड चौपाई Kishkindha scandal Chaupai

रामचरितमानस के किष्किंधा कांड में 1 श्लोक, 30 दोहे, 1 सोरठा, 2 छंद और 30 चौपाइयां हैं. किष्किंधा कांड  के चौपाई 11-15 अर्थ सहित हैं:
चौपाई 
उमा राम सम हित जग माहीं, गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ||
सुर नर मुनि सब कै यह रीती, स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ||१||
अर्थ: "जगत में ऊपरी देवता भी, मानव भी, और साधु-संत भी, सभी का हित राम से ही है। गुरु, पिता, माता, और बंधु तो सिर्फ भगवान के ही रूप हैं, इसलिए उनसे भी सुप्रभात है। सभी देवता, मनुष्य, और मुनियों का यही धर्म है कि सब कुछ अपने स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि सब कुछ प्रेम के साथ किया जाए।"
यह चौपाई भगवान श्रीराम की भक्ति और सेवा की महत्वपूर्णता को बताती है और सामाजिक संबंधों में प्रेम और सेवा की महत्वपूर्ण बातें सुझाती है।
बालि त्रास ब्याकुल दिन राती, तन बहु ब्रन चिंताँ जर छाती ||
सोइ सुग्रीव कीन्ह कपिराऊ, अति कृपाल रघुबीर सुभाऊ ||२||
अर्थ: "
बाली को दिन और रात बहुत्रास होता था, उसकी छाती पर बहुत ब्रन्दाने होते थे। उसी समय सुग्रीव ने राम भगवान की आशीर्वाद से उस पर कृपा की और उसे कपिराज बना दिया। रघुकुल श्रीराम बहुत कृपालु और सुभावशाली थे।"
यह चौपाई वानरराज सुग्रीव और बाली के विवाद को और भगवान राम के साथ सुग्रीव के मित्रता को वर्णित करती है। इसमें भगवान राम की कृपा और दया की महत्वपूर्ण बातें हैं।
जानतहुँ अस प्रभु परिहरहीं, काहे न बिपति जाल नर परहीं ||
पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई, बहु प्रकार नृपनीति सिखाई ||३||
अर्थ: "
उस श्रीराम को जानते हुए वह भगवान को त्यागने की क्यों कोशिश कर रहा है? मनुष्यों का जाल क्यों परा है? फिर सुग्रीव ने बोला, और उसने अनेक प्रकार की राजनीति की शिक्षा दी।"
इस चौपाई में, भगवान श्रीराम के प्रति विश्वास की महत्वपूर्णता बताई जा रही है। यह भी सुग्रीव के द्वारा कहा जा रहा है कि उसने भगवान राम को जानकर क्यों उससे दूरी बनाई है। सुग्रीव ने अपने अनुभवों के आधार पर राजनीतिक और धार्मिक सिखाए जो उसने बहुत प्रकार से सीखी थीं।
कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा, पुर न जाउँ दस चारि बरीसा ||
गत ग्रीषम बरषा रितु आई, रहिहउँ निकट सैल पर छाई ||४||
अर्थ: "
हे प्रभु, सुग्रीव बोला, मेरी सुनो। मैं दस चार (बीस) वर्ष तक पुर में नहीं जा सकता हूँ। गत ग्रीष्मकाल और बरसात का ऋतु आ गया है, मैं यहाँ से निकट स्थित पर्वत शिखर पर हूँ, जहाँ छाया हुआ है।"
इस चौपाई में, सुग्रीव भगवान राम से अपनी स्थिति की बयानी कर रहा है और उसे यह सूचित कर रहा है कि उसका पुर में प्रवेश करना विशेष रूप से असम्भव है, इसलिए वह पर्वत शिखर पर है।
अंगद सहित करहु तुम्ह राजू, संतत हृदय धरेहु मम काजू ||
जब सुग्रीव भवन फिरि आए, रामु प्रबरषन गिरि पर छाए ||५||
अर्थ: "
अंगद के साथ मिलकर तुम राजा बनो, और अपने हृदय में मेरे कारण उत्साह रखो। जब सुग्रीव फिर से भवन में लौटेगा, तब राम गिरिराज पर्वत पर छाए होंगे।"
इस चौपाई में, हनुमान भगवान राम से कह रहे हैं कि सुग्रीव को अंगद के साथ राजा बनाएं और उसे फिर से भवन में लौटने के बाद राम गिरिराज पर्वत पर मिलेंगे।
चौपाई
सुंदर बन कुसुमित अति सोभा, गुंजत मधुप निकर मधु लोभा ||
कंद मूल फल पत्र सुहाए, भए बहुत जब ते प्रभु आए ||१||
अर्थ: "
पुष्पों से भरा हुआ सुंदर वन, जिसमें सुगंधित कुसुम हैं, बहुत आकर्षक है। वहां मधुप के स्वरूप में गुंजता हुआ मधु लोभायमान है। उस वन में कंद, मूल, फल, और पत्तियाँ सुहानी हैं। यह सब हुआ, जब प्रभु वहां आए।"
इस चौपाई में, कवि विविधता से भरे हुए सुंदर वन की चित्रण कर रहा है और बता रहा है कि जब प्रभु वहां आए, तो उस वन में अनेक प्रकार की श्रृंगारिक और सुखद विचार उत्पन्न हो गए।
देखि मनोहर सैल अनूपा, रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा ||
मधुकर खग मृग तनु धरि देवा, करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा ||२||
अर्थ: "
जो सुंदर समुद्रसा विचार करता है, वहाँ प्रभु के छोटे भाई अनुज सहित सुरभूप विराजमान हैं। वहां देवता और सिद्ध-मुनि भी मधुकर, खग, और मृग के रूप में प्रभु की सेवा करते हैं।"
इस चौपाई में, कवि एक सुंदर समुद्रसा (सागर) की चित्रण कर रहा है और बता रहा है कि उस समुद्रसा के तट पर प्रभु राम के छोटे भाई अनुज सहित सुरभूप रह रहे हैं। इस स्थान पर देवता, सिद्ध, और मुनियाँ भी प्रभु की सेवा कर रहे हैं।
मंगलरुप भयउ बन तब ते , कीन्ह निवास रमापति जब ते ||
फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई, सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई ||३||
अर्थ: "
जब प्रभु राम वहां मंगलरूप बनकर प्रकट हुए, तब से वहां रामपति बन गए। वहां एक फटिक सिला है, जो बहुत ही सुंदर है, और वहां दोनों भाइयों का आसीन होना बहुत सुखद रहता है।"
इस चौपाई में, कवि विशेष रूप से बता रहा है कि जब प्रभु राम वहां बन गए, तब से वहां सब कुछ मंगलमय हो गया और वहां रहने वाले सभी लोग रामपति बन गए हैं। फटिक सिला और दोनों भाइयों का सुख इस स्थान को और भी अधिक सुंदर बनाता है।
कहत अनुज सन कथा अनेका, भगति बिरति नृपनीति बिबेका ||
बरषा काल मेघ नभ छाए, गरजत लागत परम सुहाए ||४||
अर्थ: "
अनुज (लक्ष्मण) सन कई कई कथाएँ कह रहा है, जिनमें भगवान के प्रति भक्ति, विरक्ति, और राजनीतिक बुद्धिमत्ता का ब्योरा है। बरसात के समय मेघ आकाश को ढ़क लेते हैं, और वे गरजने लगते हैं, ऐसा होने पर वह समय सबसे सुंदर लगता है।"
इस चौपाई में, लक्ष्मण भगवान की कथाएँ कहते हैं जिनमें भक्ति, वैराग्य, और सही नृपनीति की बातें हैं। बरसात का समय और गरजने की आवाज को उपमेतान में लेकर कवि द्वारा सुंदरता की चर्चा की जा रही है।
चौपाई
घन घमंड नभ गरजत घोरा, प्रिया हीन डरपत मन मोरा ||
दामिनि दमक रह न घन माहीं, खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं ||१||
अर्थ: "
आकाश में घने घमंड से भरे गरजते हुए बादल भी अत्यंत भयंकर नहीं लगते, परंतु मेरे मन को भयानक डर सताता है क्योंकि मेरी प्रिया मेरे बिना हैं। उसी प्रकार जैसे आकाश में बादल तेज़ बिजली से भरे रहते हैं, वैसे ही एक दुष्ट के मन में प्रीति स्थायी नहीं होती।"
इस चौपाई में, कवि द्वारा घमंडी और दुष्ट मनोभाव के बारे में बताया जा रहा है। घमंडपूर्ण और दुष्ट लोगों का स्वभाव ताकत से भरा होता है, लेकिन इसके बावजूद भी उनकी प्रीति स्थायी नहीं होती।
बरषहिं जलद भूमि निअराएँ, जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ ||
बूँद अघात सहहिं गिरि कैंसें , खल के बचन संत सह जैसें ||२||
अर्थ: "
जैसे बारिश की बूँदें जल की पीपील को बहाएँ, वैसे ही बुद्धिमान लोग नई बिद्या का प्राप्त होते हैं। जैसे बूँदें पर्वतों को सहती हैं, वैसे ही संत खल के शब्दों को सह लेते हैं।"
इस चौपाई में, कवि द्वारा बुद्धिमान और संत की गुणवत्ता का उपमहाद्वीपन किया गया है। बुद्धिमान लोग नई ज्ञान और विद्या को स्वीकार करते हैं, जबकि संत दुष्ट के शब्दों का सही रीति से अनुसरण करते हैं। इस चौपाई से यह सिखने को मिलता है कि सजगता और संतोष से युक्त बुद्धि और ज्ञान प्राप्त होता है।
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई, जस थोरेहुँ धन खल इतराई ||
भूमि परत भा ढाबर पानी, जनु जीवहि माया लपटानी ||३||
अर्थ: "
जैसे छोटी नदी भरकर अपनी धारा बहती है, वैसे ही छोटे-छोटे धन कलेक्टर अपने-अपने तरीके से धन को जमा करते हैं। जैसे भूमि पर पानी ढाबर जाता है, वैसे ही माया जीवों को लपटाती है।"
इस चौपाई में, कवि द्वारा समझाया जा रहा है कि जीवन में धन की एक अवास्ता है, जिसमें लोग अपने अपने तरीके से धन को बचाते हैं, और माया जीवों को आकर्षित करती है, जिससे वे लपटाते हैं।
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा, जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ||
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई, होई अचल जिमि जिव हरि पाई ||४||
अर्थ: "
जल धाराएँ एक से दूसरे में मिलकर तालाब को भरती हैं, जैसे आदमी अच्छे गुणों वाले सज्जन के साथ मिलता है। जैसे नदी जल से भरी होकर महासागर में जाती है, वैसे ही जीवन हरि को प्राप्त होता है और अचल बन जाता है।"
इस चौपाई में, कवि द्वारा नदी और तालाब के माध्यम से सज्जनों के साथ मिलने और हरि की प्राप्ति के साधन का उपमहाद्वीपन किया जा रहा है। यह चौपाई एक उपयुक्त तुलना के माध्यम से अच्छे गुणवत्ता वाले व्यक्तियों की महत्वपूर्णता को सार्थकता के साथ बताती है।
चौपाई
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई, बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ||
नव पल्लव भए बिटप अनेका, साधक मन जस मिलें बिबेका ||१||
अर्थ: "
धूप में चलती हुई धूप की बुँदें चारों दिशाओं को सुंदर बना देती हैं, जैसे ब्राह्मण वेद पढ़ने से समुद्र तट को सुंदर बना देता है। नव पल्लवों से भरी बिटप की ओर अनेक दिशाएं हो गईं हैं, जैसे साधक का मन विवेक से मिलता है।"
इस चौपाई में, कवि द्वारा सूर्य की बुँदों, वेद पठने वाले ब्राह्मण के, और साधक के मन के साथ किए गए उपमहाद्वीपन के माध्यम से ज्ञान की महत्वपूर्णता को सार्थकता के साथ बताया जा रहा है।
अर्क जबास पात बिनु भयऊ, जस सुराज खल उद्यम गयऊ ||
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी, करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी ||२||
अर्थ: "
सूर्य के अभास के बिना जब दिन रात होता है, वैसे ही कुछ अच्छे लोगों के बिना शत्रु भयभीत हो जाते हैं। जैसे सूर्य का उदय सभी को प्राप्त होता है, ठीक उसी रूप से कुछ अच्छे लोगों का उदय होता है। कहीं भी खोजने पर धूप मिलती नहीं, वैसे ही क्रोध करने पर धर्म का सारा अध्ययन करने से दूर होता है।"
इस चौपाई में, कवि द्वारा सूर्य के उदय की तुलना से अच्छे लोगों की महत्वपूर्णता को सार्थकता के साथ बताया जा रहा है और क्रोध करने पर धर्म की दूरी को उदाहरण के रूप में दिखाया जा रहा है।
ससि संपन्न सोह महि कैसी, उपकारी कै संपति जैसी ||
निसि तम घन खद्योत बिराजा, जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा ||३||
अर्थ: "
कैसी सुंदर और समृद्ध है सीसी (सोह) महीं, वैसी ही उपकारी संपत्ति है। सुधा से भरी हुई दीपक जैसे सुंदर रूप से विकसित होता है, वैसे ही दंभ से भरा हुआ समाज रूप में प्रकट होता है।"
इस चौपाई में, कवि द्वारा सीसी में समृद्धि और सुंदरता के साथ संपत्ति की तुलना की जा रही है, और सुधा से भरा हुआ दीपक के रूप में समाज का विकास किसी दंभ से भरित होता है। यह चौपाई नैतिकता और सामाजिक जीवन के महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती है।
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं , जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं ||
कृषी निरावहिं चतुर किसाना, जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ||४||
अर्थ: "
जैसे अधिक बर्फबारी होकर फूटती है, वैसे ही स्वतंत्र और अस्वतंत्र नारीयाँ भए हैं। जैसे बुद्धि ने मोह, मद, और अहंकार को त्याग दिया है, वैसे ही चतुर किसान अपनी कृषि को निरंतर बढ़ाता है।"
इस चौपाई में, कवि द्वारा विभिन्न तत्त्वों की तुलना के माध्यम से नैतिकता और जीवन के सिद्धांतों की महत्वपूर्ण बातें बताई जा रही हैं। महाबृष्टि का संदेश, स्वतंत्रता की महत्वपूर्णता, कृषि के उत्तमीकरण की बातें इस चौपाई में उपस्थित हैं।
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं, कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं ||
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा, जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा ||५||
अर्थ: "
चक्रवाक देखने में नहीं आता, वैसे ही कलियुग में धर्म नहीं आता। जैसे बृष्टि बरसाने से जाम का पौधा नहीं बढ़ता, वैसे ही हरिजन के हृदय में काम नहीं उत्पन्न होता।"
इस चौपाई में, कवि द्वारा चक्रवाक और ऊषर के माध्यम से कलियुग की स्थिति का उपमहाद्वीपन किया जा रहा है। कलियुग में धर्म की कमी का तुलनात्मक विवेचन और विचार किया गया है।
बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा, प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ||
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना, जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना ||६||
अर्थ: "
जंगल में विभिन्न प्रकार के जीवन्त प्राणी ब्रजमान हैं, वैसे ही प्रजा बढ़ती है जैसे सूरज के प्रकाश में बढ़ती है। जैसे इंद्रियाँ ज्ञान की उत्पत्ति करती हैं, वैसे ही यात्री जगह-जगह थका हुआ रहता है।"
इस चौपाई में, कवि द्वारा प्राकृतिक संसार में विभिन्न प्रकार के जीवन्त प्राणियों की तुलना से प्रजा की बढ़ती हुई संख्या को दिखाया जा रहा है। सूरज के प्रकाश में वृद्धि का उपमहाद्वीपन और इंद्रियों के उत्पत्ति की तुलना से यह दिखता है कि सृष्टि में स्वाभाविक रूप से विकास हो रहा है।
चौपाई
बरषा बिगत सरद रितु आई, लछिमन देखहु परम सुहाई ||
फूलें कास सकल महि छाई, जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई ||१||
अर्थ: "
सरद ऋतु बिता, बरसात का समय आया है, लछ्मण, तुम देखो कितना सुंदर हो रहा है। सारे प्राणियों के बीच में फूलों की खुशबू बिखरी हुई है, इससे दिखता है कि बरसात का समय पूर्ण हो रहा है।"
इस चौपाई में, कवि द्वारा बरसात के समय में प्राकृतिक सौंदर्य का उपमहाद्वीपन किया जा रहा है, और लछ्मण को इस सुंदरता का आनंद लेने के लिए कहा जा रहा है।
उदित अगस्ति पंथ जल सोषा, जिमि लोभहि सोषइ संतोषा ||
सरिता सर निर्मल जल सोहा, संत हृदय जस गत मद मोहा ||२||
अर्थ: "
जैसे अगस्ति के उदय के समय सूखा पड़ता है, ठीक उसी रूप से लोभ को संतोष शूषता है। जैसे सरिता सारा निर्मल जल लेकर बहती है, ठीक उसी रूप से संत का हृदय अपने गति से मोह और मद को शोकित करता है।"
इस दोहे में, कवि द्वारा अगस्ति के उदय के समय की तुलना से लोभ के शांति स्वरूप संतोष का उपमहाद्वीपन किया गया है, और सरिता के साफ जल की तुलना से संत के हृदय की शुद्धि और निर्मलता का विवेचन किया गया है।
रस रस सूख सरित सर पानी, ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी ||
जानि सरद रितु खंजन आए, पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए ||३||
अर्थ: "
सरिता के पानी में रस और रस की तरह सुख मिलता है, ठीक उसी रूप से ज्ञानी ममता को त्यागता है। सुकृति के समय जैसे खंजन ऋतु आती है, ठीक उसी रूप से समय प्राप्त होता है जिससे सुकृति बढ़ती है॥३॥"
इस दोहे में, कवि द्वारा सरिता के पानी में रस और सुख की तुलना से ग्यानी का अवस्थान दिखाया जा रहा है, और समय की महत्वपूर्णता का विचार किया गया है, जिससे सुकृति में वृद्धि हो।
पंक न रेनु सोह असि धरनी, नीति निपुन नृप कै जसि करनी ||
जल संकोच बिकल भइँ मीना, अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना ||४||
अर्थ: "
धरती में मिट्टी और रेत का मिश्रण अपने आप में सुंदर होता है, ठीक उसी रूप से नृप के कार्यों में नीति निपुणता होती है। मीना का बारिश करने में सीधा रहने की कला होती है, ठीक उसी रूप से जैसे अबुध कुटुंबी धनहीन होता है॥४॥"
इस दोहे में, कवि द्वारा प्राकृतिक तत्त्वों की तुलना से नृप के गुणों का वर्णन किया जा रहा है और मीना के संकोच के माध्यम से धनहीन कुटुंब की तुलना की जा रही है।
बिनु धन निर्मल सोह अकासा, हरिजन इव परिहरि सब आसा ||
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी, कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी ||५||
अर्थ: "
बिना किसी धन के आकाश भी पवित्र होता है, ठीक उसी रूप से हरिजन जैसे व्यक्ति सभी संबंधों को त्यागकर अपना ध्यान भगवान पर लगाते हैं। हर क्षण, हर जगह बारिश सारदी होती है, लेकिन मेरी भक्ति में एक पाव का भाग्यपूर्ण व्यक्ति जैसा होता है॥५॥"
इस दोहे में, कवि द्वारा धन के अभाव में भी आत्मा की पवित्रता का महत्वपूर्ण रूप से उपमहाद्वीपन किया गया है, और हरिजन की तुलना से भक्ति में समर्थ व्यक्ति की महत्वपूर्णता बताई गई है।

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