किष्किन्धा काण्ड चौपाईयां पाठ अर्थ सहित

किष्किन्धा काण्ड चौपाईयां पाठ अर्थ सहित Kishkindha Kand Chaupaiyaan text with meaning

रामचरितमानस के किष्किंधा कांड में 1 श्लोक, 30 दोहे, 1 सोरठा, 2 छंद और 30 चौपाइयां हैं. किष्किंधा कांड  के चौपाई 16-20 अर्थ सहित हैं:
चौपाई 
सुखी मीन जे नीर अगाधा, जिमि हरि सरन न एकउ बाधा ||
फूलें कमल सोह सर कैसा, निर्गुन ब्रम्ह सगुन भएँ जैसा ||१||
अर्थ: "जैसे मीन नीर में अगाधा सुखी होते हैं, ठीक वैसे ही हरि की शरण में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं होती। और कमल के फूल की तरह सौंदर्यपूर्ण होता है, ठीक वैसा ही निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म होते हैं॥१॥"
इस चौपाई में, कवि द्वारा मीन, नीर, कमल, निर्गुण ब्रह्म, और सगुण ब्रह्म की तुलना करके भक्ति के सौंदर्य का उपमहाद्वीपन किया जा रहा है।
गुंजत मधुकर मुखर अनूपा, सुंदर खग रव नाना रूपा ||
चक्रबाक मन दुख निसि पैखी, जिमि दुर्जन पर संपति देखी ||२||
अर्थ: "मधुकर का मुख सुंदर और अनूप होता है, और खग रव विभिन्न रूपों में चमकता है। चक्रबाक के मन में दुःख होता है, ठीक वैसे ही जैसे दुर्जन को संपति मिलती है॥२॥"
इस दोहे में, कवि ने विभिन्न प्राकृतिक रूपों की तुलना करके उनके सौंदर्य का वर्णन किया है, और उसे मन के दुःख के साथ जोड़कर दुर्जन को संपति की प्राप्ति की तुलना की है।
चातक रटत तृषा अति ओही, जिमि सुख लहइ न संकरद्रोही ||
सरदातप निसि ससि अपहरई, संत दरस जिमि पातक टरई ||३||
अर्थ: "चातक पक्षी अत्यंत प्यासा होता है और वह बर्फ या बूंदों से सुख प्राप्त करता है, ठीक उसी रूप से संकरद्रोही लोग अदृश्य सुखों की खोज में लगे रहते हैं, जो उन्हें कभी नहीं मिलते। सरदातप के समय में, सीसी जल लेकर चोर अपहरण करता है, ठीक उसी रूप से संत भक्तों के दर्शन में पातक (पाप) टरता है॥३॥"
इस दोहे में, कवि ने चातक पक्षी की तुलना संकरद्रोही लोगों के स्वभाव के साथ की है और सरदातप के समय में चोर की तुलना संत भक्तों के साथ की है।
देखि इंदु चकोर समुदाई, चितवतहिं जिमि हरिजन हरि पाई ||
मसक दंस बीते हिम त्रासा, जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा ||४||
अर्थ: "इंदुचकोर समुदाय को देखकर सिर्फ इंदुचकोर की चिंता होती है, ठीक उसी रूप से हरिजन संत को हरि की प्राप्ति की चिंता होती है। हिम त्रास से बीता हुआ मसक दंस, ठीक वैसे ही है जैसे द्विज ने अपने कुल को ध्रुव से नष्ट किया॥४॥"
इस दोहे में, कवि ने इंदुचकोर समुदाय की तुलना संत भक्तों की चिंता से की है, और हिम त्रास की तुलना में द्विज ने अपने कुल को ध्रुव से नष्ट कर दिया है।
चौपाई 
बरषा गत निर्मल रितु आई, सुधि न तात सीता कै पाई ||
एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं, कालहु जीत निमिष महुँ आनौं ||१||
अर्थ: "निर्मल ऋतु बरसती है, लेकिन सीता नहीं मिलती। मैं कैसे कह सकता हूँ कि सीता को कैसे पाया जा सकता है? काल को एक निमिष में ही जीत सकता हूँ॥१॥"
इस चौपाई में, कवि द्वारा बरषा गत निर्मल ऋतु की तुलना में सीता की प्राप्ति की चुनौती को उजागर करते हुए काल को एक निमिष में ही हरने की भी बात की जा रही है।
कतहुँ रहउ जौं जीवति होई, तात जतन करि आनेउँ सोई ||
सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी, पावा राज कोस पुर नारी ||२||
अर्थ: "कहीं भी रहूँ, या जिवित रहूँ, मेरे तात (बाप) ने मेरे लिए मेहनत करके मुझे प्राप्त किया है, वही सही है। सुग्रीव ने मेरी बुद्धि को भूला दिया है, मैंने राजा कोशलपुर में एक नारी को प्राप्त किया है॥२॥"
इस दोहे में, कवि द्वारा सीता के बारे में उसके तात (बाप) के साथ एक विवाद का सामना किया जा रहा है, जहां उसे अपने पति सुग्रीव द्वारा उपेक्षित महसूस हो रहा है।
जेहिं सायक मारा मैं बाली, तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली ||
जासु कृपाँ छूटहीं मद मोहा, ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा ||३||
अर्थ: "जैसे मैंने बाली को ताड़ा (गाली) दी, ठीक उसी रूप में मूढ़ (मूर्ख) लोग कहते हैं कि मैंने सर को हटा दिया। जिसकी कृपा से मोह-माया से छूटता है, उसी से मैं उमा को अपना सपना कहता हूँ॥३॥"
इस दोहे में, कवि ने बाली के साथ युद्ध की तुलना में मोह-माया से मुक्ति प्राप्ति की बात की है और उमा को अपना सपना कहते हुए भगवान शिव की कृपा का महत्व बताया है।
जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी, जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी ||
लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना, धनुष चढ़ाइ गहे कर बाना ||४||
अर्थ: "मुनियों और ज्ञानियों ने रघुकुल राजा राम के चरणों में भक्ति की है, उनका यह चरित्र जानते हैं। लक्ष्मण, जो क्रोधवान थे, ने प्रभु राम को भी जाना और धनुष को चढ़ाकर उन्होंने उनके हाथ में बाण लिया॥४॥"
इस दोहे में, कवि ने मुनियों और ज्ञानियों की भक्ति का उत्कृष्टता से चित्रण किया है, और लक्ष्मण के धनुष बाण की कठिनाईयों का भी स्पष्टीकरण किया है।
चौपाई 
इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा, राम काजु सुग्रीवँ बिसारा ||
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा, चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा ||१||
अर्थ: "यहां हनुमान ने पवनसुत ने अपने हृदय को विचारित किया और राम के कार्य को सुग्रीव को भूला दिया। हनुमान ने समझाया कि तुम्हें तुरंत जाकर राम के पास जाना चाहिए, और इसे चारिक तरीके से समझाया॥१॥"
इस चौपाई में, हनुमान ने हनुमान ने पवनसुत के रूप में अपने हृदय की बातचीत का वर्णन किया है और राम के कार्य को सुग्रीव से अलग करके सीधे राम के पास जाने का सुझाव दिया है।
सुनि सुग्रीवँ परम भय माना, बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना ||
अब मारुतसुत दूत समूहा, पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा ||२||
इस चौपाई का अर्थ 
"सुग्रीव ने भय की भावना से सुनकर, मेरा मानना किया और मेरे बारे में हरिभक्ति का ज्ञान प्राप्त किया। अब मैंने मारुतसुत हनुमान को अपने दूत समूह के साथ भेजा है, जहां जहां वह पहुंचेंगे, वहां बानर सेना का जूझना करेंगे॥२||"
इस चौपाई में, कवि तुलसीदास ने सुग्रीव के भय की भावना को सुनकर हनुमान को अपने दूत समूह के साथ भेजा है, ताकि वह जहां-जहां जाएं, वहां बानर सेना का योगदान करें।
कहहु पाख महुँ आव न जोई, मोरें कर ता कर बध होई ||
तब हनुमंत बोलाए दूता, सब कर करि सनमान बहूता ||३||
इस चौपाई का अर्थ
"कहो प्रभु, मैं उस देश में जाने का योग्य नहीं हूँ, मेरे कर्मों ने मुझे बँध लिया है। तब हनुमान ने अपने दूतों से कहा, 'तुम सभी अपने-अपने कार्यों को सम्पन्न करो और उन्हें सन्मानपूर्वक पूरा करो॥३॥'"
इस चौपाई में, हनुमान राम से कह रहे हैं कि उन्हें उस देश में जाने का अधिकार नहीं है, क्योंकि उनके कर्मों ने उन्हें बँध लिया है। हनुमान फिर अपने दूतों से कह रहे हैं कि वे अपने-अपने कार्यों को पूर्ण करें और उन्हें सम्मानपूर्वक पूरा करें॥३॥
भय अरु प्रीति नीति देखाई, चले सकल चरनन्हि सिर नाई ||
एहि अवसर लछिमन पुर आए, क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए ||४||
इस चौपाई का अर्थ 
भय (भगवान का भय), प्रीति (प्रेम), नीति (नीति), देखाई (दिखाई गई)। चरनन्हि (चरणों को), सिर नाई (नीचे झुका लिया)। इस अवसर पर (राम के वनवास में) लक्ष्मण (लछिमन) पुर में आए, और जहां भी क्रोध देखता, वहां कपि (हनुमान) धाए (पहुंच जाता)।
यह चौपाई तुलसीदास जी के रामचरितमानस में है और इसमें भगवान राम, लक्ष्मण, और हनुमान के चरित्र की महत्ता को बयान किया गया है।
चौपाई 
चरन नाइ सिरु बिनती कीन्ही, लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही ||
क्रोधवंत लछिमन सुनि काना, कह कपीस अति भयँ अकुलाना ||१||
इस चौपाई का अर्थ
चरन नाइ (चरणों को छूने से पहले), सिरु बिनती (सिर झुकाकर विनती की) कीन्ही (की), लछिमन (लक्ष्मण) अभय (निर्भीक) बाँह (बाहों) तेहि (तक) दीन्ही (दे दी)। क्रोधवंत (क्रोधी) लछिमन (लक्ष्मण) सुनि (सुनकर) काना (कानों में), कह (कहते) कपीस (कपिस, हनुमान) अति (बहुत), भयँ (भयभीत) अकुलाना (व्याकुल)।१
इस चौपाई में बताया गया है कि लक्ष्मण ने राम के चरणों को छूने से पहले ही उनसे अपनी विनती की और राम ने उन्हें निर्भीक बना दिया। इसके बाद, हनुमान ने देखा कि लक्ष्मण क्रोधित है और उनके कानों में बोला कि वह बहुत भयभीत हो रहे हैं।
सुनु हनुमंत संग लै तारा, करि बिनती समुझाउ कुमारा ||
तारा सहित जाइ हनुमाना, चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना ||२||
इस चौपाई का अर्थ 
सुनु (सुनो) हनुमंत (हनुमान), संग (साथ) लै (लेकर) तारा (तारा), करि बिनती (विनती करके) समुझाउ (समझाओ) कुमारा (पुत्रों को)। तारा सहित (तारा के साथ) जाइ (जाओ) हनुमाना (हनुमान), चरन बंदि (चरणों में बंधकर) प्रभु (भगवान राम) सुजस (अत्यंत योग्य) बखाना (कहना)।२।
इस चौपाई में बताया गया है कि हनुमान से कहा जा रहा है कि वह तारा के साथ मिलकर कुमारों को समझाएं और फिर भगवान राम के पास जाकर उनसे मिले और उनकी भक्ति में रमें।
करि बिनती मंदिर लै आए, चरन पखारि पलँग बैठाए ||
तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा, गहि भुज लछिमन कंठ लगावा ||३||
इस चौपाई का अर्थ 
करि बिनती (विनती करके) मंदिर (मंदिर) लै (लेकर) आए (आया), चरन (चरण) पखारि (पंजे में) पलँग (पलंग) बैठाए (बिछा दिया)। तब (तब) कपीस (कपिस, हनुमान) चरनन्हि (चरणों को) सिरु (सिर) नावा (नाव में), गहि (गले में) भुज (बाहों) लछिमन (लक्ष्मण) कंठ (कंठ) लगावा (लगा दिया)।३।
इस चौपाई में बताया गया है कि हनुमान ने विनती करके मंदिर में आकर भगवान के चरणों को पंजे में सुखाकर पलंग पर बिछाया। उसके बाद हनुमान ने अपने सिर को भगवान के चरणों में, और अपनी बाहें लक्ष्मण के कंठ में लगा दी।
नाथ बिषय सम मद कछु नाहीं, मुनि मन मोह करइ छन माहीं ||
सुनत बिनीत बचन सुख पावा, लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा ||४|
इस चौपाई का अर्थ 
नाथ (प्रभु), बिषय (विषयों) सम (समान) मद (मोह) कछु (कुछ) नाहीं (नहीं), मुनि (महात्मा) मन (मन) मोह (मोह) करइ (करते हैं) छन (रहते हैं) माहीं (में)। सुनत (सुनकर) बिनीत (विनती) बचन (वचन), सुख (आनंद) पावा (प्राप्त हुआ), लछिमन (लक्ष्मण) तेहि (तब) बहु बिधि (अनेक प्रकार से) समुझावा (समझाया)।४।
इस चौपाई में बताया गया है कि भगवान, जो सभी विषयों में समान हैं, में कोई मोह नहीं हैं। महात्माएँ मोह में रहती हैं, लेकिन लक्ष्मण ने प्रभु की वचनों को सुनकर उन्हें बहुत प्रकार से समझाया।
पवन तनय सब कथा सुनाई, जेहि बिधि गए दूत समुदाई ||५||
इस चौपाई का अर्थ
पवन तनय (हनुमान, जो पवनपुत्र हैं), सब (सभी) कथा (कथाएँ) सुनाई (सुनाई), जेहि (जिस प्रकार) बिधि (जिस प्रकार) गए (गए थे) दूत (दूत, मेसेंजर) समुदाई (समुदाय)।५।
इस चौपाई में हनुमान जी की महत्त्वपूर्ण भूमिका का वर्णन किया जा रहा है। हनुमान ने पवनपुत्र के रूप में सभी कथाएँ सुनाई और वह विशेष रूप से राम के दूत के रूप में जाकर लंका का संहार किया।
चौपाई 
नाइ चरन सिरु कह कर जोरी, नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी ||
अतिसय प्रबल देव तब माया, छूटइ राम करहु जौं दाया ||१||
इस चौपाई का अर्थ
नाइ (नीचे) चरन (चरणों) सिरु (सिर) कह (कहकर) कर (कर) जोरी (हाथ जोड़कर), नाथ (भगवान) मोहि (मुझसे) कछु (कुछ) नाहिन (नहीं) खोरी (छुपाते)। अतिसय (अत्यंत) प्रबल (शक्तिशाली) देव (भगवान) तब (तब) माया (मोह) छूटइ (छूट जाता है) राम (भगवान राम) करहु (करो) जौं (जब) दाया (अनुग्रह)।१।
इस चौपाई में हनुमान जी भगवान के चरणों को नीचे झुकाकर हथ जोड़ते हैं और कहते हैं कि वे नाथ, भगवान की एक अल्पभाग्यी जीवात्मा हैं, जिनमें कोई भी दोष नहीं है। जब भगवान की अत्यंत शक्तिशाली देवी माया हमसे मोह छुड़ा देती है, तब ही हम भगवान राम की कृपा प्राप्त कर सकते हैं।
बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी, मैं पावँर पसु कपि अति कामी ||
नारि नयन सर जाहि न लागा, घोर क्रोध तम निसि जो जागा ||२||
इस चौपाई का अर्थ 
बिषय (विषयों) बस्य (बसे हुए) सुर (देवता), नर (मानव), मुनि (महात्मा), स्वामी (स्वामी, भगवान), मैं (मैं, हनुमान) पावँर (प्राप्त हुआ) पसु (पशु), कपि (कपि, हनुमान) अति (बहुत) कामी (कामुक)। नारि (स्त्री) नयन (नयन, आंख) सर (सिर) जाहि (जिसकी दिशा में) न लागा (नहीं लगता), घोर (भयंकर) क्रोध (क्रोध), तम (तम, अंधकार) निसि (नित्य) जो (जो) जागा (बैठा है)।२।
इस चौपाई में हनुमान जी भगवान की महत्त्वपूर्णता को बता रहे हैं और कह रहे हैं कि भगवान सभी विषयों के स्वामी हैं, सुर, नर, मुनि भी और मैं हनुमान भी, लेकिन स्त्री के नयन (आंख) सिर पर जिस दिशा में नहीं लगते, वहां बहुत भयंकर क्रोध और अंधकार होता है।
लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया, सो नर तुम्ह समान रघुराया ||
यह गुन साधन तें नहिं होई, तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई ||३||
इस चौपाई का अर्थ
लोभ (लालच) पाँस (प्राणियों को) जेहिं (जैसा) गर (गहरा) न (नहीं) बँधाया (बाँधता है), सो (वह) नर (मनुष्य) तुम्ह (तुम) समान (समान) रघुराया (राम का)। यह (यह) गुण (गुण) साधन (साधना, प्राप्ति) तें (से) नहिं (नहीं) होई (होती), तुम्हरी (तुम्हारी) कृपाँ (कृपा) पाव (प्राप्त होती) कोइ (कोई) कोई (कोई)।३।
इस चौपाई में हनुमान जी भगवान राम की अमृततुल्य कृपा को महत्त्वपूर्ण मानते हैं और कहते हैं कि जो नर लालच को गहरा नहीं बाँधता, वही नर भगवान राम के समान है। इस गुण को साधना साध्य नहीं हो सकता, इसके लिए भगवान की कृपा होनी चाहिए।
तब रघुपति बोले मुसकाई, तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई ||
अब सोइ जतनु करहु मन लाई, जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई ||४||
इस चौपाई का अर्थ
तब (तब) रघुपति (राम) बोले (बोले), मुसकाई (मुस्कान), तुम्ह (तुम) प्रिय (प्रिय) मोहि (मुझे) भरत (भरत) जिमि (जैसा) भाई (भाई)। अब (अब) सोइ (सो) जतनु (प्रयास) करहु (करो) मन (मन) लाई (लगाकर), जेहि (जैसे) बिधि (कैसे) सीता (भगवान राम की पत्नी) कै (की) सुधि (सुध) पाई (प्राप्त हुई)।४।
इस चौपाई में राम भगवान भरत से कह रहे हैं कि उनकी मुस्कान तब होगी, जब भरत जैसे प्रिय भाई को मुझसे मिला होगा। अब वह प्रयास करें और ध्यानपूर्वक मन लगाएं, ताकि वह जैसे बिधि सीता की सुध प्राप्त कर सकें।

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