मन की परीक्षा

मन की परीक्षा test of mind

जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहिं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं  ॥ 330

यह छंद तुलसीदासजी के द्वारा रचित है और इसका अर्थ निम्नलिखित है:-

"जब तुम्हारा मन बहुत से संदेहों से भरा होता है, तब तुम किस प्रकार की परीक्षा लेते हो।
उस समय, मैं बैठा हुआ हूँ और इस पर विचार कर रहा हूँ। जब तुम मुझसे ऐसा पूछते हो, तब मैं तुम्हें इसे दिखा देता हूँ।"
इस छंद का संदेश है कि जब व्यक्ति अनेक संदेहों से घिरा होता है, तो वह अपने मन की स्थिति को विचारने के लिए एक प्रकार की परीक्षा लेता है। इसे सुनकर लगता है कि यह एक व्यक्ति का मानसिक संघर्ष और आत्म-विमर्श को दर्शाने वाला एक प्रेरक छंद है।

जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बिचारु करौं का भाई॥ 331

यह श्लोक तुलसीदास जी के रचित ग्रंथ "रामचरितमानस"से लिया गया है, और इसका अर्थ निम्नलिखित है:-

"जैसे कि मोह और भ्रम से भरा होता है, उसे छोड़कर विवेकपूर्ण विचार करो।
सती ने भगवान शिव को प्राप्त किया है, इसलिए भाई, तुम भी विचार करो और क्या करना चाहिए, वह करो॥२॥"
इस श्लोक में बताया जा रहा है कि व्यक्ति को अपने मोह और भ्रमों को छोड़कर विवेकपूर्ण विचार करना चाहिए। सती, जो भगवान शिव की पत्नी थी, ने भगवान की प्राप्ति की है, और इसलिए श्लोक का सुझाव है कि हमें भी आत्म-विचार करके सच्चे और उच्च लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।

इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥ 332

यह श्लोक भगवान राम चरित मानस के बालकाण्ड से लिया गया है, और इसका अर्थ निम्नलिखित है:-

"इस स्थान (अयोध्या) में संभु (राजा दशरथ) बहुत अच्छे मन वाले हैं, मैं इसे अनुमान करता हूँ।
सीता के पुत्र हनुमान, मैं तुम्हें कल्याण नहीं कह सकता हूँ।
मुझे कोई संदेह नहीं है कि जहाँ मैं हूँ, वहाँ कुछ भी अच्छा नहीं हो सकता है
इस श्लोक में वानर सेनापति हनुमान, भगवान राम के भक्त, अपने समर्थन को बता रहे हैं। हनुमान कह रहे हैं कि राजा दशरथ और अयोध्या में वातावरण अत्यंत शुद्ध और सकारात्मक है, लेकिन हनुमान को यह कहने में कोई कठिनाई नहीं है कि सीता के पुत्र होने के कारण वह कल्याण (मुक्ति या उच्च लक्ष्य) की प्राप्ति में सक्षम नहीं हैं। हनुमान का मुख्य संदेश है कि सारे भौतिक और आध्यात्मिक स्तरों पर श्रीराम के साथ ही सच्चा कल्याण है॥

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गई सती जहँ प्रभु सुखधामा॥333

यह श्लोक भगवान राम चरित मानस के अरण्यकाण्ड से लिया गया है, और इसका अर्थ निम्नलिखित है:-

"जो व्यक्ति राम की रचना और रक्षा करता है, उसमें ही वही सत्य है। कौन कर सकता है ऐसा तर्क और वाद बढ़ावा देना?
इसलिए इसे कहना ही ठीक है कि हरिनाम का जप करते रहो। सती जिस स्थान पर गई है, वहां पर प्रभु का सुखद आलय है॥"
इस श्लोक में कहा जा रहा है कि जो व्यक्ति भगवान राम की रचना और रक्षा करता है, वही सत्य है, और किसी भी प्रकार के तर्क और वाद से ऊपर है। इसलिए, हरिनाम का जप करना और भगवान की स्मृति में रहना अच्छा है, क्योंकि वहां हमें भगवान का सुखद आलय प्राप्त होता है॥

पुनि पुनि हृदयँ विचारु करि धरि सीता कर रुप।
आगें होइ चलि पंथ तेहि जेहिं आवत नरभूप॥ 334

यह श्लोक भगवान राम चरित मानस के अयोध्याकाण्ड से लिया गया है, और इसका अर्थ निम्नलिखित है:

"पुनः पुनः अपने हृदय को विचार कर, सीता का रूप धारण करो।
आगे बढ़ो उसी पथ पर, जिस पथ पर मनुष्य राजा आता है॥
इस श्लोक में भगवान राम से कहा जा रहा है कि वह पुनः पुनः अपने हृदय को विचार करें और सीता का रूप धारण करें। इसका मतलब है कि राम को अपने चिन्हों को समझने और सीता के साथ अपने स्वयं के रूप को स्थापित करने की प्रक्रिया में रूचि रखना चाहिए। इसके बाद, उन्हें उसी मार्ग पर अग्रसर करना चाहिए, जिस पथ पर सब नरभूप (मानव राजा) जाते हैं॥५२॥आप लोग हमारे वेबसाइट पर आनी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आपको अगर हमारी पोस्ट अच्छी लगती है अधिक से अधिक लोगों तक फेसबुक व्हाट्सएप इत्यादि पर शेयर अवश्य करें और कमेंट कर हमें बताएं कि आपको इस तरह की जानकारी चाहिए जो हिंदू धर्म से हो

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