पृथ्वी परिक्रमा का आदेश, गणेश विवाह व कार्तिकेय का रुष्ट होना Order of circumambulation of the earth, marriage of Ganesh and anger of Kartikeya.
पृथ्वी परिक्रमा का आदेश, गणेश विवाह व कार्तिकेय का रुष्ट होना
पृथ्वी परिक्रमा का आदेश
नारद जी ने पूछा- हे विधाता! आपने मुझे श्रीगणेश के जन्म एवं उनके अद्भुत पराक्रम और साहस के साथ माता पार्वती के द्वार की रक्षा करने का उत्तम वृत्तांत सुनाया। अब मुझे यह बताइए कि जब भगवान शिव ने गणेश को पुनर्जीवित करके अनेक आशीर्वाद प्रदान किए, तब उसके पश्चात वहां क्या हुआ? ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! तत्पश्चात भगवान शिव-पार्वती अपने दोनों पुत्रों
गणेश और कार्तिकेय के साथ आनंदपूर्वक अपने निवास कैलाश पर्वत पर रहने लगे। शिव-पार्वती अपने पुत्रों गणेश और कार्तिकेय की बाल लीलाओं को देखकर बहुत प्रसन्न होते और बहुत लाड़-प्यार करते। वे दोनों अपने माता-पिता की भक्तिभावना से पूजा-अर्चना करते थे, जिससे शिव-पार्वती बहुत प्रसन्न होते। धीरे-धीरे ऐसी ही लीलाओं के बीच समय बीतता गया और गणेश व कार्तिकेय युवा हो गए। तब एक दिन शिव-पार्वती साथ-साथ बैठे हुए आपस में बातचीत कर रहे थे। देवी पार्वती ने भगवान शिव से कहा कि प्रभु हमारे दोनों ही पुत्र विवाह के योग्य हो गए हैं। अतः हमें अब दोनों पुत्रों का विवाह कर देना चाहिए। तब दोनों ये विचार करने लगे कि पहले गणेश का विवाह किया जाए या कार्तिकेय का जब माता-पिता ने अपनी इच्छा पुत्रों को बताई तो उनके मन में भी विवाह की इच्छा जाग उठी। दोनों पुत्र विवाह के लिए सहर्ष तैयार हो गए। तब भगवान शिव अपने पुत्रों से बोले - हे पुत्रो ! तुम दोनों ही हमारे लिए प्रिय हो परंतु हम इस असमंजस में हैं कि तुम दोनों में से पहले किसका विवाह किया जाए? इसलिए हमने एक युक्ति निकाली है। तुम दोनों में से जो भी पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले लौट आएगा, उसका विवाह पहले किया जाएगा। अपने पिता के ये वचन सुनकर कुमार कार्तिकेय तुरंत अपने वाहन पर सवार होकर यथाशीघ्र पृथ्वी की परिक्रमा करने हेतु माता-पिता की आज्ञा लेकर निकल पड़े परंतु श्री गणेश वहीं यथावत खड़े होकर कुछ सोचने लगे। तत्पश्चात उन्होंने घर के अंदर जाकर स्नान किया और पुनः माता-पिता के पास आए और बोले- आप दोनों मेरे द्वारा लगाए गए इन आसनों को ग्रहण कीजिए। मैं आप दोनों की परिक्रमा करना चाहता हूं। तब भगवान शिव और देवी पार्वती ने हर्षपूर्वक आसन ग्रहण कर लिया। शिव-पार्वती के आसन पर बैठ जाने के पश्चात गणेश ने उन्हें हाथ जोड़कर बारंबार प्रणाम किया और उनकी विधि-विधान से पूजा-अर्चना की। पूजा करने के बाद उन्होंने भक्तिभाव से उनकी सात बार परिक्रमा की। माता-पिता की सात बार परिक्रमा करने के पश्चात गणेश हाथ जोड़कर प्रभु के सामने खड़े हो गए और उनकी स्तुति करते हुए बोले- आपकी आज्ञा को मैंने पूरा किया। अब आप यथाशीघ्र मेरा विवाह संपन्न कराएं। यह सुनकर शिव-पार्वती ने गणेश से पृथ्वी की परिक्रमा कर आने के लिए कहा।
उन्होंने कहा कि जिस प्रकार कार्तिकेय पृथ्वी की परिक्रमा करने गए हैं, तुम भी जाओ और उनसे पहले लौट आओ तभी तुम्हारा विवाह पहले हो सकता है। शिव-शिवा के ये वचन सुनकर गणेश बोले- आप दोनों तो महा बुद्धिमान हैं। आपके ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। आप धर्म और शास्त्रों में पारंगत हैं। मैं तो आपकी आज्ञा के अनुरूप पृथ्वी की परिक्रमा एक बार नहीं बल्कि सात बार कर आया हूं। यह सुनकर शिव-पार्वती बड़े आश्चर्यचकित होकर बोले कि हे पुत्र ! तुम इतनी विशाल सात द्वीप वाली समुद्र, पर्वत और काननों से युक्त पृथ्वी की परिक्रमा कब कर आए ? तुम तो यहां से कहीं गए भी नहीं । भगवान शिव और देवी पार्वती के इस प्रकार किए गए प्रश्न को सुनकर बुद्धिमान गणेश जी बोले- मैंने आप दोनों की पूजा करके आपकी सात बार परिक्रमा कर ली है। इस प्रकार मेरे द्वारा पृथ्वी की परिक्रमा पूरी हो गई । वेदों में इस बात का वर्णन हैं कि अपने माता-पिता की श्रद्धाभाव से पूजा करने के पश्चात उनकी परिक्रमा करने से पृथ्वी की परिक्रमा का पुण्य फल प्राप्त होता है। माता-पिता के चरणों की धूल ही पुत्र के लिए महान तीर्थ है। वेद शास्त्र इसको प्रमाणित करते हैं। फिर आप क्यों इस बात को मानने से इनकार कर रहे हैं? हे पिताश्री! आप तो सर्वेश्वर हैं। निर्गुण, निराकार परब्रह्म ईश्वर हैं। भला आप कैसे मेरे वचनों को झुठला सकते हैं? कृपा कर बताइए कि शास्त्रों के अनुसार क्या मैं गलत हूं? इस प्रकार गणेश जी के वचन सुनकर शिव-पार्वती अत्यंत आश्चर्यचकित हुए। अपने पुत्र गणेश को वेदों और शास्त्रों का ज्ञाता जानकर उनकी प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। तब मुस्कुराते हुए भगवान शिव-पार्वती बोले- हे प्रिय पुत्र!तुम बलवान और साहसी होने के साथ-साथ परम बुद्धिमान भी हो। यह सत्य है कि जिसके पास बुद्धिबल है, वही बलशाली भी है। बिना बुद्धि के बल का प्रयोग भी संभव नहीं होता। बुद्धिहीन मनुष्य संकट में फंस जाने पर बलशाली होने के बावजूद भी, मुक्त नहीं हो पाता। वेद-शास्त्र और पुराण यही बताते हैं कि मां-बाप का स्थान सबसे ऊपर होता है। उनके चरणों में ही स्वर्ग है। अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करना ही पुत्र का एकमात्र धर्म है। उनकी परिक्रमा पृथ्वी की परिक्रमा से भी बढ़कर है। अतः तुम्हारी बात सर्वथा सत्य है । तुमने कार्तिकेय से पहले ही पृथ्वी की परिक्रमा पूर्ण कर ली है। अतः हमें तुम्हारा विवाह सबसे पहले और शीघ्र ही करना है। जब भगवान शिव और पार्वती ने गणेश की बात का समर्थन कर उसे स्वीकार कर लिया तब गिरिजानंदन प्रसन्न हो गए और अपने माता-पिता को प्रणाम करके वहां से चले गए। महादेव जी अपनी प्रिया पार्वती जी के साथ बैठकर इस चिंता में डूब गए कि हम विवाह के लिए वधू की खोज कहां करें? जब वे इस प्रकार विचार कर रहे थे तभी प्रजापति विश्वरूप कैलाश पर्वत पर पधारे और उन्होंने भक्तिभाव से शिव-शिवा को नमस्कार कर उनकी स्तुति की। जब महादेव जी ने उनसे कैलाश आगमन का कारण जानना चाहा तब प्रसन्न हृदय से विश्वरूप जी ने कहा- हे भगवन्! मैं आपके पास अपनी दो पुत्रियों सिद्धि और बुद्धि के विवाह का प्रस्ताव लेकर आया हूं। प्रभु! सिद्धि और बुद्धि सुंदर और सर्वगुण संपन्न हैं। मैं उनका विवाह आपके पुत्र से करना चाहता हूं। प्रजापति विश्वरूप के वचन सुनकर भगवान शिव और देवी पार्वती बहुत हर्षित हुए और उन्होंने उनका विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। भगवान शिव-शिवा ने अपने प्रिय पुत्र गणेश का शुभ विवाह सिद्धि-बुद्धि के साथ आनंदपूर्वक संपन्न कराया। इस शुभ अवसर पर सब देवता हर्षपूर्वक सम्मिलित हुए। उन्होंने गणेश को सपत्नीक ढेरों आशीर्वाद और शुभाशीष प्रदान किए और अपने-अपने स्थान पर लौट गए। तत्पश्चात श्रीगणेश अपनी दोनों पत्नियों के साथ आनंदपूर्वक विहार करने लगे। काफी समय व्यतीत हो जाने के पश्चात उनके दो पुत्र उत्पन्न हुए। सिद्धि से उत्पन्न पुत्र का नाम 'शुभ' तथा बुद्धि से प्राप्त पुत्र का नाम 'लाभ' रखा गया। इस प्रकार श्रीगणेश अपनी दोनों पत्नियों और पुत्रों के साथ आनंदपूर्वक रहने लगे। जब श्रीगणेश को सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करते हुए काफी समय बीत गया, तब कुमार कार्तिकेय पृथ्वी की परिक्रमा पूरी करके लौट आए। वे घर पहुंचने ही वाले थे कि रास्ते मैं ही उनकी भेंट नारद तुमसे हो गई। तब तुमने कार्तिकेय से कहा कि तुम्हारे माता- -पिता ने तुमसे सौतेला व्यवहार किया है। तुम्हें पृथ्वी की परिक्रमा पर भेजकर तुम्हारे भाई गणेश का दो सुंदर कन्याओं से विवाह कर दिया है। अब तो उनके दो पुत्र भी हो चुके हैं और वे आनंदपूर्वक अपना जीवन सुख से बिता रहे हैं। यह तुम्हारे माता-पिता ने अच्छा नहीं किया है । नारद! तुम्हारी ऐसी बातें सुनकर कार्तिकेय क्रोध में भर गए। वे अत्यंत व्याकुल होकर अतिशीघ्र घर पहुंचे। क्रोध के कारण उनका मुख लाल हो गया था। कैलाश पर्वत पर पहुंचकर उन्होंने अपने माता-पिता को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। तत्पश्चात उन्होंने अपने माता-पिता से इस विषय पर अपनी नाराजगी प्रकट की। कार्तिकेय ने कहा कि आप दोनों ने अपने ही पुत्र को धोखे से यहां से भगा दिया और अपने प्रिय पुत्र गणेश का चुपचाप विवाह रचा दिया। आप दोनों ने मेरे साथ सौतेले पुत्र जैसा व्यवहार किया है। यदि आप गणेश का ही विवाह पहले करना चाहते थे, तो मुझसे एक बार कहते, मैं स्वयं अपने भाई गणेश का विवाह उत्साहपूर्वक आनंद के साथ कराता परंतु आपने छल-कपट का सहारा लिया। आप सिर्फ एक पुत्र से ही प्यार करते हैं। मेरे होने न होने का आपको कोई फर्क ही नहीं पड़ता। अतः मैं यहां से हमेशा-हमेशा के लिए जा रहा हूं। अब मैं क्रौंच पर्वत पर जाकर सदैव तपस्या करूंगा। यह कहकर कुमार कार्तिकेय वहां से चले गए। भगवान शिव और पार्वती ने उन्हें समझाना चाहा, पर उन्होंने उनकी बात अनसुनी कर दी। नारद! उस दिन से स्वामी कार्तिकेय कुमार नाम से प्रसिद्ध हो गए। तब से इन तीनों लोकों में उनका नाम कुमार कार्तिकेय विख्यात हो गया। कार्तिकेय का नाम पापहारी, शुभकारी, पुण्यमयी एवं ब्रह्मचर्य की शक्ति प्रदान करने वाला है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन कृति नक्षत्र में, जो भी मनुष्य स्वामी कार्तिकेय के दर्शन अथवा पूजन करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। सभी देवता और ऋषिगण भी इस दिन कार्तिकेय के दर्शनों को जाते हैं। उधर कुमार कार्तिकेय के इस प्रकार नाराज होकर चले जाने के कारण उनकी माता पार्वती बहुत दुखी थीं। वे शिवजी को साथ लेकर क्रौंच पर्वत पर गईं। उन्हें देखकर कार्तिकेय पहले ही वहां से चले गए। तब भगवान शिव उस उत्तम स्थान पर, जहां उनके पुत्र कार्तिकेय ने तप किया था, मल्लिकार्जुन नामक ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हो गए और आज भी देवी पार्वती के साथ विराजमान हैं। उस दिन से शिव-शिवा दोनों अपने पुत्र कार्तिकेय को ढूंढने के लिए अमावस्या को शिव और पूर्णिमा के दिन पार्वती जी क्रौंच पर्वत पर जाते हैं। नारद! मैंने तुम्हें समस्त पापों का नाश करने वाले श्रीगणेश और कार्तिकेय के चरित्र को सुनाया है। जो भी मनुष्य भक्तिभाव से इसे पढ़ता, सुनता अथवा सुनाता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। यह कथा पापनाशक, सुख देने वाली, मोक्ष दिलाने वाली एवं कल्याणकारी है। इसलिए निष्काम भक्तों को इसको अवश्य सुनना और पढ़ना चाहिए।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड) बीसवां अध्याय समाप्त
॥ श्रीरुद्र संहिता (कुमारखण्ड) संपूर्ण ।। ॥ ॐ नमः शिवाय ॥
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