प्रभु श्री राम अरण्यकाण्ड

प्रभु  श्री राम अरण्यकाण्ड  Prabhu Shri Ram Aranya Kand

चौपाई :  
करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती॥
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥4॥
इसका अर्थ है:
"तुम पीते हो और सोते हो, दिन-रात। लेकिन तुम्हारे सिर पर बुद्धि का अनुभव नहीं होता। राजनीति के बिना, धन के बिना, धर्म के बिना, हरि को समर्पित बिना सत्कर्मों को नहीं किया जा सकता।"
 बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ॥
संग तें जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा॥5॥
इसका अर्थ है:
"बिना विद्या के बिना विवेक उत्पन्न नहीं होता, जैसे किसी भी काम के लिए मेहनत करने से फल मिलता है। राजा तो अपने संगी से ही युक्त कुमार्ग की प्राप्ति करता है और लाजा विद्या से ही प्राप्त होती है।"
प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहिं बेगि नीति अस सुनी॥6॥
इसका अर्थ है:
"बिना विद्या के बिना विवेक उत्पन्न नहीं होता, जैसे किसी भी काम के लिए मेहनत करने से फल मिलता है। राजा तो अपने संगी से ही युक्त कुमार्ग की प्राप्ति करता है और लाजा विद्या से ही प्राप्त होती है।"
चौपाई :  
सुनत सभासद उठे अकुलाई। समुझाई गहि बाँह उठाई॥
कह लंकेस कहसि निज बाता। केइँ तव नासा कान निपाता॥1॥
 इसका अर्थ है:
"सभासदों ने सुनकर अकुला खड़ा हो गया। उसे समझाया और उसके बाहु में हाथ उठाया।
लंकाधिपति से कहो, अपनी बात कहें। क्योंकि तेरा नाश हो जाएगा, कानों में समझाने से नहीं आता।"
यह चौपाई भगवान राम के भक्त अकुला और हनुमानजी के संवाद को दर्शाती है, जिसमें हनुमानजी अकुला को समझाते हैं कि रावण को समझाने की कोशिश करने से कुछ नहीं होगा।
अवध नृपति दसरथ के जाए। पुरुष सिंघ बन खेलन आए॥
समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी। रहित निसाचर करिहहिं धरनी॥2॥
इसका अर्थ है:
"राजा दशरथ का अयोध्या से जाना हो। वह पुरुष सिंह के रूप में जंगल में खेलने आए।
परी ने मुझसे समझाया कि उन्हें क्या करना चाहिए। उनके बिना यह धरती रहित हो जाती है।"
यह कविता राजा दशरथ के निर्णय को दर्शाती है, जिन्होंने अपने पुत्र भगवान राम को वनवास भेजने का निर्णय किया था। इस दोहे में उनके विचार और संघर्ष को दिखाया गया है।
जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन। अभय भए बिचरत मुनि कानन॥
देखत बालक काल समाना। परम धीर धन्वी गुन नाना॥3॥
इसका अर्थ है:
"जो व्यक्ति भगवान राम की भक्ति करता है और उनकी शक्तिशाली बाहु धारण करता है, उसे मुनियों के वन में भी भय नहीं लगता।
उस बालक ने काल को भी समान देखा है। वह परम धीर, धन्वी और अनेक गुणों से युक्त है।"
यह चौपाई भगवान राम के गुणों और उनके भक्तों की महिमा को व्यक्त करती है, जो उनकी भक्ति में निरंतर आदर्श बने रहते हैं।
अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता। खल बध रत सुर मुनि सुखदाता॥
सोभा धाम राम अस नामा। तिन्ह के संग नारि एक स्यामा॥4॥
इसका अर्थ है:
"भगवान राम और लक्ष्मण - ये दोनों भाई अतुलनीय बल और प्रताप से युक्त हैं। वे दुष्टों को मारने में रत रहते हैं और देवताओं और मुनियों को सुख प्रदान करते हैं।
राम नाम की वही महिमा असीम है। उनके संग में एक सामाना नारी भी उनके साथ है।"
यह चौपाई भगवान राम और उनके भाई लक्ष्मण की महिमा और उनके गुणों को वर्णित करती है, जो दुष्टों का नाश करने में लगे रहते हैं और सभी को सुख और शांति प्रदान करते हैं।
रूप रासि बिधि नारि सँवारी। रति सत कोटि तासु बलिहारी॥
तासु अनुज काटे श्रुति नासा। सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा॥5॥
इसका अर्थ है:
"सीता ने विशेष रूप से नारी को सजाया है। वह सुंदरता में सात कोटि अप्सराओं को भी शर्मिंदा कर देती है।
उसी ने अपने अनुज को कट्टरता से मार दिया। इस बात को सुनकर तेरी भगिनी उस पर हंसी उड़ाती है।"
यह दोहा मानवीय दृष्टिकोण से नारी की महिमा को दर्शाता है, जो सीता माता की सुंदरता और साहस को उजागर करता है। इसमें भावुकता और उत्कृष्टता का संदेश है। यह भी दिखाता है कि कठिन परिस्थितियों में भी वह समर्थ होती है।
खर दूषन सुनि लगे पुकारा। छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा॥
खर दूषन तिसिरा कर घाता। सुनि दससीस जरे सब गाता॥6॥
इसका अर्थ है:
"खर और दूषण की चिल्लाहट सुनकर भगवान राम ने उन्हें ध्वस्त कर दिया।
खर, दूषण और उनके तीसरे साथी को भगवान राम ने मार दिया। सब लोगों ने इस घटना की प्रशंसा की।"
यह चौपाई भगवान राम के वनवास के समय में उनके धर्म के पक्ष में लड़ाई का वर्णन करती है, जब उन्होंने राक्षसों को मारकर धर्म की रक्षा की।
चौपाई :  
सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं॥
खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता॥1॥
इसका अर्थ है:
"स्वर्गीय, मानव, असुर, नाग और पक्षी, सभी व्यक्ति और प्राणी मुझे अनुयायी कहते हैं।
खर और दूषण मुझ पर समर्थ थे, लेकिन उन्हें भगवान राम के बिना मैंने मारा।"
यह चौपाई भगवान राम के वीरत्व और धर्म के पक्ष में उनकी शक्ति को दर्शाती है, जब उन्होंने राक्षसों का सामना किया। यह भी दिखाता है कि भगवान राम के बिना उनकी शक्ति कोई भी नहीं था।
सुर रंजन भंजन महि भारा। जौं भगवंत लीन्ह अवतारा॥
तौ मैं जाइ बैरु हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ॥2॥
इसका अर्थ है:
"भगवान राम की लीलाओं और भक्ति में मैंने भारी भावना और संसारिक आसक्ति को त्यागा।
अब मैं जाता हूँ, दुश्मनों के प्रति हृदय कठोरता करता हूँ, परन्तु प्रभु के चरणों में समर्पित होकर संसार से मुक्ति की कोशिश करता हूँ।"
यह चौपाई भक्ति और निष्काम कर्म की महत्ता को दर्शाती है, जहाँ भक्त अपनी भक्ति में लीन होकर संसारिक आसक्तियों को त्यागता है और भगवान के प्रति अनन्य श्रद्धा रखता है।
होइहि भजनु न तामस देहा। मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा॥
जौं नररूप भूपसुत कोऊ। हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ॥3॥
इसका अर्थ है:
"मानव जीवन में तमोगुण (अंधकार की स्थिति) को त्यागकर मन, क्रिया, वाणी, और मंत्रों को धृड़ता से भगवान की भक्ति करो।
अगर कोई मनुष्य नर स्वरूपी भगवान राम को जानता है, तो वह नारी और युद्ध में दोनों में विजय प्राप्त करता है।"
यह चौपाई मानव जीवन में भक्ति की महत्ता को दर्शाती है। यहां बताया गया है कि भगवान के भक्ति में ध्यान और निष्ठा रखने से व्यक्ति जीवन के हर पहलू में सफलता प्राप्त कर सकता है।
चला अकेल जान चढ़ि तहवाँ। बस मारीच सिंधु तट जहवाँ॥
इहाँ राम जसि जुगुति बनाई। सुनहु उमा सो कथा सुहाई॥4॥
इसका अर्थ है:
"रावण अकेले चला गया और समुद्र के किनारे मारीच के पास चढ़ा।
वहाँ उसने भगवान राम की तरह योग्य तरीके से योजना बनाई। इसी कथा को सुनो, ओ उमा, और इसे सुनाओ।"
यह दोहा मानव जीवन के उद्देश्य और सफलता के लिए योग्यता की महत्ता को बताता है। यहाँ रावण की चालाकी और रचनात्मकता की तारीफ की जा रही है, जैसे भगवान राम ने अपनी योजना बनाई थी।
चौपाई :  
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥1॥
इसका अर्थ है:
"सुनो, प्रिये, मेरी प्रिय और सुन्दर धर्मवती भक्ति को। मैं कुछ ऐसा करूंगा जो मनोरंजनीय और मनुष्यों को प्रिय हो।
तुम अग्नि हो और मैं तुम्हारे पास निवास करूंगा। जब तक निशाचरों का नाश न कर लूँ।"
यह चौपाई भक्ति और धार्मिक विचारों को संदेशित करती है, जिसमें भक्त का प्रिय और सुंदर धर्म को आदर्श मानते हुए उसका संकल्प बयान किया गया है।
जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रूप सुबिनीता॥2॥
इसका अर्थ है:
"जब भगवान राम ने सबको सच्चाई बताई, तो उन्होंने अपने हृदय में आग को समान धारण किया।
सीता को अपनी प्रतिबिंब में रखकर, उन्होंने उसी प्रकार की सील और रूप को स्थापित किया।"
यह दोहा भगवान राम की भक्ति और उनके गुणों की महिमा को दर्शाता है, जो उनके चरित्र के आदर्श को समझाता है। यहाँ बताया गया है कि भगवान राम ने सबको सच्चाई बताई और उन्होंने सीता माता को अपने हृदय में स्थान दिया।
लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना॥
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा॥3॥
इसका अर्थ है:
"लक्ष्मण यह मर्म नहीं समझते हैं, जो कुछ भी भगवान ने चाहा।
जब तक मैं मारीच को दशमुख (दस दिशाओं में) ले गया, उस वक्त मैंने अपने हित को सर्वोपरि किया था, अपने स्वार्थ को नीचा नहीं किया।"
यह दोहा भगवान राम के सेवक लक्ष्मण की वफादारी और उनकी निष्ठा को प्रशंसा करता है। यह भी दर्शाता है कि लक्ष्मण ने भगवान राम की इच्छा को सर्वोपरि किया और अपने स्वार्थ को प्राथमिकता नहीं दी।
नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई॥
 भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी॥4॥
इसका अर्थ है:
"नीचता बहुत दुःखदायी होती है, जैसे हाथी की खोपड़ी में बंद किया हुआ अंकुश या धनुष की तरह जहरीली सर्पों का बिला।
खलाई की बातें भयानक होती हैं, जैसे मरुस्थल में बने हुए अकाल के फूल।"
यह चौपाई मनुष्यता में नीचता और खलाई की बातों के दुष्प्रभाव को दर्शाती है। इसमें बताया गया है कि नीचता और खलाई के विचार मनुष्य की जिंदगी में कितनी हानिकारक हो सकती है।
चौपाई :  
दसमुख सकल कथा तेहि आगें। कही सहित अभिमान अभागें॥
होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौं नृपनारी॥1॥
 इसका अर्थ है:
"दसमुख रावण ने सभी कथाओं को अपने सामने रखकर, अपने अभिमान और अहंकार के साथ कहा।
तुम मृगों के समान कपटी हो, जिस प्रकार हरि को छल सकते हो, वैसे ही नृपति और नारियों को भी।"
यह चौपाई महाकवि तुलसीदास जी द्वारा रावण की कपटी बुद्धि और उसके दुष्ट विचारों का वर्णन करती है। यह भी बताती है कि उसने अपने अहंकार के साथ सभी कथाओं को बोला।
तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा। ते नररूप चराचर ईसा॥
 तासों तात बयरु नहिं कीजै। मारें मरिअ जिआएँ जीजै॥2॥
इसका अर्थ है:
"उनसे फिर सुनो, ओ दससीसा। वे ही सब प्राणियों के नर और अनर्थी ईश्वर हैं।
उन्हें तात (श्रेष्ठ) और बायर (प्रिय) कोई भी नहीं मानना चाहिए। वहाँ मरने वाले को मारने से जाना जाता है और जीने वाले को जीने से।"
यहाँ लक्ष्मण भावुकता और वीरता से भरे हुए भावों को व्यक्त कर रहे हैं। उनका आदर्श है कि जो कार्य नरमित्र की सेवा में किया जाए, वह धर्म का पालन करता है।
मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा॥
सत जोजन आयउँ छन माहीं। तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं॥3॥
इसका अर्थ है:
"मुनि मख (रावण के पुत्र) कुमारा अग्निकुंड में रखने गये। बिना किसी विचार के, राघव पति (भगवान राम) ने मुझे मार दिया।
सच्चे जो लोग आए, उनमें भी उस वक्त मेरा कोई शत्रु नहीं था।"
यह चौपाई महाकवि तुलसीदास जी के अनुसार भगवान राम की लीला का वर्णन करती है। यहाँ बताया गया है कि भगवान राम ने अग्निकुंड में राक्षस मेघनाद (मुनि मख) को मार दिया था, और सच्चे लोगों ने भी उस समय में मुझे शत्रु नहीं माना था।
भइ मम कीट भृंग की नाई। जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई॥
जौं नर तात तदपि अति सूरा। तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा॥4॥
इसका अर्थ है:
"मेरा स्वभाव कीट और भृंग के समान हो गया है। जहाँ देखूँ, वहाँ मैं दोनों भाई को ही देखता हूँ।
लेकिन अगर उस नर में भी वीरता है, तो उनके खिलाफ विरोध नहीं कर पाता हूँ।"
यह चौपाई लक्ष्मण की अद्भुत सेवाभावना और भाईचारे को दर्शाती है। वह चाहे किसी भी स्थिति में हों, वह हमेशा अपने भाई राम की सेवा में व्यस्त रहते हैं।

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