रामायण अरण्य कांड चौपाई इन हिंदी Ramayana Aranya Kand Chaupai in Hindi
जग पतिब्रता चारि बिधि अहहीं। बेद पुरान संत सब कहहीं॥
उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं॥6॥
"दुनिया में पति की व्रत धारणा करने के चार तरीके हैं, जो वेद और पुराणों में संतों ने समझाया है। उत्तम पति के प्रेम में ही व्यक्ति का सच्चा आदर्श होता है, इससे बेहतर विचारों का कोई सपना नहीं हो सकता।"
यहाँ बताया गया है कि दुनिया में पति के साथ व्रत धारण करने के चार तरीके हैं, जिन्हें वेद और पुराणों में संतों ने समझाया है। उत्तम पति के प्रेम में ही व्यक्ति का सच्चा आदर्श होता है, इससे बेहतर विचारों का कोई सपना नहीं हो सकता।
मध्यम परपति देखइ कैसें। भ्राता पिता पुत्र निज जैसें॥
धर्म बिचारि समुझि कुल रहई। सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई॥7॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:"मध्यम पति को कैसे देखना चाहिए - उसे अपने भाई, पिता और पुत्र के समान देखना चाहिए। वह धर्म का विचार करते हुए अपने कुल में रहता है, इसलिए वेद और श्रुति में उसे निकृष्ट नहीं कहा गया है।"
यहां बताया गया है कि मध्यम पति को अपने भाई, पिता और पुत्र के समान देखना चाहिए, जो धर्म के विचार में अपने कुल में रहता है, और इसलिए वेद और श्रुति में उसे निकृष्ट नहीं कहा गया है।
बिनु अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई॥
पति बंचक परपति रति करई। रौरव नरक कल्प सत परई॥8॥
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:"जो नारी अवसर के बिना रहना पसंद करती है, उसे जान लेना चाहिए कि दुनिया में वह नारी ही अधम होती है। वह पति के बंचक और दूसरे पुरुषों में रति करती है, जिससे वह रौरव और नरक के समान ही दुखी होती है।"
यहां बताया गया है कि जो नारी अवसर के बिना रहना पसंद करती है, उसे समझना चाहिए कि दुनिया में वह ही अधम होती है। वह पति के बंचक और अन्य पुरुषों में रति करती है, जिससे उसे रौरव और नरक के समान ही दुःख झेलना पड़ता है।
छन सुख लागि जनम सत कोटी। दुख न समुझ तेहि सम को खोटी॥
बिनु श्रम नारि परम गति लहई। पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई॥9॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:"जन्म सत कोटि तक सुख पाने के लिए, वहाँ दुःख को समझने का कोई भी साधन नहीं होता। बिना किसी परिश्रम के, नारी को उच्च गति मिलती है, परन्तु पति-व्रत और धर्म को छोड़कर वह छल से बाँध ली जाती है।"
यहाँ बताया गया है कि सुख को पाने के लिए जन्मों-जन्मों तक भी तकनीक होती है, लेकिन दुःख को समझने का कोई साधन नहीं होता। बिना किसी परिश्रम के, नारी को उच्च गति मिलती है, परन्तु पति-व्रत और धर्म को छोड़कर वह छल से बाँध ली जाती है।
पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई। बिधवा होइ पाइ तरुनाई॥10॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:"जहाँ नारी का जन्म पति के खिलाफ होता है, वहाँ वह विधवा बन जाती है और तब तक तरुनी बनी रहती है।"
यहाँ बताया गया है कि जब नारी का जन्म पति के खिलाफ होता है, तो वह विधवा बन जाती है और उसे तब तक तरुनी बना रहना पड़ता है।
चौपाई :
सुनि जानकीं परम सुखु पावा। सादर तासु चरन सिरु नावा॥
तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना॥1॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:"जब मैंने जानकी की वाणी सुनी, तब मुझे परम सुख मिला। मैंने सम्मान और प्राणातिप भक्ति से उनके पादों का सम्मान किया। उस समय मुनियों ने कहा, 'आयसु होता है कि मैं जाऊं और फिर वापस आऊं।'"
यह चौपाई बताती है कि जब भक्त ने सीता माता की वाणी सुनी, तो उसे परम सुख मिला। उसने सम्मान और प्राणातिप भक्ति से उनके पादों का सम्मान किया। तब मुनियों ने उसे यह सलाह दी कि वह जाये और फिर वापस आये।
संतत मो पर कृपा करेहू। सेवक जानि तजेहु जनि नेहू॥
धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी। सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी॥2॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:"हे प्रभु! आप मुझ पर सदा कृपा करें। मैं आपका सेवक हूँ, इसलिए जानता हूँ कि मुझे आपको छोड़ना नहीं चाहिए। धर्म के धुरंधर, प्रभु की वाणी सुनकर मुनि ने प्रेम सहित बोला, क्योंकि वह ज्ञानी थे।"
यहाँ बताया गया है कि भक्त भगवान से हमेशा कृपा की प्रार्थना करते हैं। वह अपने आपको प्रभु के सेवक मानता है और जानता है कि उसे प्रेम सहित भगवान को छोड़ना नहीं चाहिए। धर्म के धुरंधर, प्रभु की वाणी सुनकर मुनि ने प्रेम सहित बोला, क्योंकि वह ज्ञानी थे।
जासु कृपा अज सिव सनकादी। चहत सकल परमारथ बादी॥
ते तुम्ह राम अकाम पिआरे। दीन बंधु मृदु बचन उचारे॥3॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:"जिनकी कृपा से शिव और सनकादि सनकादि मुनियों को भी अपने सम्पूर्ण परमार्थ की प्राप्ति होती है। हे राम! आप वे हैं, जिनका कोई भी अभिलाषा नहीं होता है, आप दीनता और बंधुत्व के साथ मृदु बोलने वाले हैं।"
यहाँ बताया गया है कि उनकी कृपा से ही शिव और सनकादि मुनियों को भी अपने परमार्थ की प्राप्ति होती है। हे राम! आप वे हैं, जिनकी कोई अभिलाषा नहीं होती है, और आप दीनता और बंधुत्व के साथ मृदु बोलने वाले हैं।
अब जानी मैं श्री चतुराई। भजी तुम्हहि सब देव बिहाई॥
जेहि समान अतिसय नहिं कोई। ता कर सील कस न अस होई॥4॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:"अब मैं जानता हूँ कि हे श्रीराम! तुम्हें ही सभी देवताओं ने ध्यान दिया है। कोई भी ऐसा अतिसय महान नहीं है जो तुम्हारे समान हो, इसलिए जो व्यक्ति तुम्हें भजता है, वह सील और कसूर नहीं करता।"
यहाँ बताया गया है कि श्रीराम ही सभी देवताओं के ध्यानयोग्य हैं। कोई भी उनसे अधिक महान नहीं है और जो व्यक्ति उन्हें भजता है, वह सील और कसूर में पड़ने के लिए नहीं होता।
केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी॥
अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा। लोचन जल बह पुलक सरीरा॥5॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:"हे स्वामी! मैं कैसे आपको कहूँ, आप ही अंतर्ज्ञ हैं। कृपया मुझे बताइए, हे नाथ! आप ही सबको जानने वाले हैं।"
यहां कहा गया है कि मुनि ने प्रभु को देखकर कहा, "हे प्रभु! मैं कैसे आपको वर्णन करूँ, आप ही सबको जानने वाले हैं।"
चौपाई :
मुनि पद कमल नाइ करि सीसा। चले बनहि सुर नर मुनि ईसा॥
आगें राम अनुज पुनि पाछें। मुनि बर बेष बने अति काछें॥1॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:"मुनि ने अपने सिर को कमल के चरणों में नमस्कार किया और फिर स्वर्गीय, मानवीय, और मुनिश्रेष्ठों के समान बनकर वन में चल दिया। वे रामचंद्र जी के अनुज भाई के पीछे चले, और मुनियों ने अत्यंत कम्पनी के साथ वन्य बने अपने वेष को धारण किया।"
यहां कहा गया है कि मुनि ने अपने सिर को भगवान के पादों में नमस्कार किया और फिर स्वर्गीय, मानवीय, और मुनिश्रेष्ठों के समान वन में चल दिया। वे भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण के पीछे चले और मुनियों ने अत्यंत कम्पनी के साथ वन्य बने अपने वेष को धारण किया।
उभय बीच श्री सोहइ कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी॥
सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानि देहिं बर बाटा॥2॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:"दोनों में (ब्रह्म और जीवात्मा में) भगवान का दर्शन कैसा है, जैसा कि ब्रह्मा और जीवात्मा के बीच माया का होता है। समुद्र और पहाड़ों के बीच अवघट घाटा होता है, वैसे ही पति (भगवान) देह को पहचान लेता है, लेकिन जीव उसे नहीं पहचान पाता।"
यहां कहा गया है कि जैसे ब्रह्मा और जीवात्मा के बीच माया का अनुभव होता है, वैसे ही समुद्र और पहाड़ों के बीच एक अवघट घाटा होता है। भगवान देह को पहचानते हैं, लेकिन जीवात्मा उसे नहीं पहचान पाता।
जहँ जहँ जाहिं देव रघुराया। करहिं मेघ तहँ तहँ नभ छाया॥
मिला असुर बिराध मग जाता। आवतहीं रघुबीर निपाता॥3॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:"हर जगह जहाँ भगवान राम पहुंचते हैं, वहाँ बादल भी उसी स्थान पर छाए रहते हैं। जैसे असुर और बिराध के मार्ग में मेघ बिछा होता है, वैसे ही जब भगवान राम आते हैं, तो वे असुरों को नष्ट करते हैं।"
यहां कहा गया है कि जहाँ भगवान राम पहुंचते हैं, वहाँ बादल भी छाए रहते हैं। जैसे कि असुर और बिराध के मार्ग में मेघ छाए रहते हैं, वैसे ही भगवान राम आकर असुरों को नष्ट करते हैं।
तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा। देखि दुखी निज धाम पठावा॥
पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा। सुंदर अनुज जानकी संगा॥4॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:"उस राम को तुरंत ही मैंने उसका रुचिर रूप देखा, जिसे देखकर मैंने अपने दुखी मन को अपने धाम को भेज दिया। फिर जब मुनि सरभंगा में पुनः आए, तो वहाँ उन्होंने सुंदर राम को उनके भाई लक्ष्मण और सीता के साथ मिलते हुए देखा।"
यहाँ बताया गया है कि किस तरह से मुनि सरभंगा ने अपने दुःखी मन को राम के दर्शन से संतुष्ट किया। जब उन्होंने पुनः राम, लक्ष्मण और सीता को साथ में देखा, तो उन्होंने उनके सुंदर स्वरूप का आनंद लिया।
चौपाई :
कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। संकर मानस राजमराला॥
जात रहेउँ बिरंचि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा॥1॥
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से ली गई है। इसका अर्थ है:"हे मुनि! बताओ, हे रघुबीर और कृपालु भगवान! जो संकर हैं, मानस और राजमराला हैं। वे किस प्रकार ब्रह्मा के धाम में जाते हैं और हे राम! उन्हें सुनते हुए मैं इस सुन्दर कथा को यहाँ सुनूँ।"
यहां वर्णित है कि मुनि से कहा जा रहा है कि वे बताएं कि जो संकर, मानस और राजमराला हैं, वे किस प्रकार ब्रह्मा के धाम में जाते हैं और हे राम! मैं उनकी कथा को सुनने के लिए यहाँ हूँ।
चितवत पंथ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती॥
नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥2॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:"मैं दिन-रात चिंतन करता हूँ, परमात्मा के पथ में रहता हूँ। अब मैं भगवान को देखकर अपनी छाती को जोड़ता हूँ। मैं सभी साधनाओं से निर्मान हूँ, और मैंने अपने ऊपर कृपा की है, जिससे मैं दीन लोगों की सेवा कर सकूँ।"
यहां कहा गया है कि व्यक्ति दिन-रात भगवान के ध्यान में रहता है और अब वह भगवान को देखकर अपनी छाती को जोड़ता है। वह सभी साधनाओं से निर्मित है और वह बस भगवान की कृपा से हीन नहीं है, जिससे वह दीन लोगों की सेवा कर सकता है।
सो कछु देव न मोहि निहोरा। निज पन राखेउ जन मन चोरा॥
तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी॥3॥
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:"वह कुछ भी नहीं, न मोहे निहोरा, क्योंकि वह अपनी संपत्ति को मन से निकाल देता हूँ। तब तक मैं दीन लोगों के हित में रहता हूँ, जब तक मैं तुम्हें पा न लूँ और अपने शरीर को त्याग न दूं।"
यहां व्यक्त किया गया है कि कुछ भी वस्तु नहीं मेरे लिए मोहनीय है, क्योंकि मैं अपनी संपत्ति को निजी चोरी से निकाल देता हूँ। मैं दीन लोगों के हित में रहता हूँ, और यह तब तक चलता रहता है जब तक मैं भगवान को प्राप्त नहीं कर लूँ और अपने शरीर को त्याग नहीं देता।
जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा॥
एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा। बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा॥4॥
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से ली गई है। इसका अर्थ है:"जोग, यज्ञ, जप, तप, और व्रत - सभी कुछ किया गया, लेकिन भगवान ने फिर भक्ति को कहां दी? मुनि सरभंगा ने भी इसी तरह से अपने हृदय को सब संसारिक वस्तुओं से रहित करके भगवान की भक्ति को प्राप्त किया।"
यहां बताया गया है कि जोग, जग्य, जप, तप, और व्रत किए गए, लेकिन भगवान की भक्ति कहां मिली? मुनि सरभंगा ने भी इसी तरह से अपने हृदय को सभी संसारिक वस्तुओं से अलग करके भगवान की भक्ति को प्राप्त किया।
चौपाई :
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा॥
ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ॥1॥
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से है। इसका अर्थ है:"ऐसा कहते हैं कि जोगी अपने शरीर को अग्नि में जला देता है, परन्तु राम की कृपा से वह बैकुंठ को प्राप्त होता है। मुनिराज ने हरि को बिना लिये नहीं देखा, पहले भेदरहित भक्ति को प्राप्त की।"
रिषि निकाय मुनिबर गति देखी। सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी॥
अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा। जयति प्रनत हित करुना कंदा॥2॥
इस चौपाई में कहा जा रहा है कि ऋषियों और मुनियों ने भगवान की गति को देखा और अपने हृदय में उत्साह महसूस किया। वे सभी मुनियों ने भगवान की स्तुति की और उन्होंने उनकी कृपा को प्राप्त कर अपने चिरकालिक शिष्यों के लिए अनुग्रह बना लिया।पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिबर बृंद बिपुल सँग लागे॥
अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥3॥
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से है। इसमें कहा गया है कि पुनः श्रीराम ने वन की ओर अग्रसर किया। वहां उनके साथ बहुत से मुनियों ने संगठित होकर अवस्थित हो लिया। जब राम ने अस्थि समूह को देखा, तो वे मुनि समूह से बहुत प्रसन्न हुए और उनसे अत्यंत दयालु भाषा में पूछताछ की।जानतहूँ पूछिअ कस स्वामी। सबदरसी तुम्ह अंतरजामी॥
निसिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुबीर नयन जल छाए॥4॥
यह चौपाई तुलसीदासजी के द्वारा रचित "रामचरितमानस" से ली गई है। इस चौपाई का अर्थ है:"जानता हूँ, पर पूछता हूँ, कैसे हो भगवान, तुम्हीं हो सबकी द्रष्टा और अंतर्ज्ञाता। राम ने सभी राक्षसों को नष्ट कर दिया, सब मुनियों ने यह सुनकर राम के आँसू से अपने नेत्र धोये॥4॥"
यहाँ पर चौपाई में भगवान राम की अनन्त शक्ति, उनकी विश्वासी दृष्टि और उनके कृपाशील होने का वर्णन किया गया है। राम के साहस और धैर्य को इस चौपाई में प्रकट किया गया है।
चौपाई :
मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना॥
मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक॥1॥
इस चौपाई का अर्थ है:"मुनि अगस्ति ने सिष्य को समझाया, स्त्री सुतीक्ष्णा की प्रेम राम की भगवानी के लिए। मन, क्रिया और वाणी सब कुछ भगवान राम के सेवक को समर्पित हैं। इसलिए सपनों में भरोसा नहीं रखना चाहिए।"
यहाँ पर चौपाई में भगवान राम की भक्ति को और उनके सेवक का समर्पण उन्हें विशेषता से सेवन करने की भावना को व्यक्त किया गया है। इसमें सपनों के माध्यम से भरोसा नहीं रखने का संदेश भी छुपा है।
प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा। करत मनोरथ आतुर धावा॥
हे बिधि दीनबंधु रघुराया। मो से सठ पर करिहहिं दाया॥2॥
इस चौपाई का अर्थ है:"प्रभु, तुम्हारे आगमन की खबर सुनकर मैं संतुष्ट हो जाता हूँ और मनोरथ में उत्सुक होकर आपकी ओर धावा। हे रघुराय, हे दीनबंधु, हे भगवान, कृपा करके मुझ पर दया करो, मेरे साथ साहस रखो॥2॥"
इस चौपाई में भगवान राम के आगमन की खबर सुनकर भक्त का उत्साह और भगवान की कृपा की प्रार्थना की गई है। भक्ति और साहस के साथ उन्हें आशीर्वाद की प्राप्ति के लिए प्रार्थना की गई है।
सहित अनुज मोहि राम गोसाईं। मिलिहहिं निज सेवक की नाईं॥
मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं॥3॥
इस चौपाई का अर्थ है:"भगवान राम, आपके साथ मुझे अनुज (लक्ष्मण) मिला है, किन्तु मेरे निजी सेवक का मिलना अभी नहीं हुआ है। मेरा मन बहुत कमजोर है, और मेरे मन में न तो भक्ति का स्थायी भरोसा है और न ही ज्ञान की अधिकता है।॥3॥"
इस चौपाई में तुलसीदासजी ने अपनी निम्न स्थिति और अस्थिरता को व्यक्त किया है और भगवान राम से अपने भक्ति में स्थिरता की प्रार्थना की है। वे अपने मन की अस्थिरता और अनिश्चितता का वर्णन करते हैं और भगवान की शरण में आत्म-समर्पण की प्रार्थना करते हैं।
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