संकर प्रभु उपासना hybrid lord worship
तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥
एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥356
तब, जब संकर (शिव) ने पद (पानी) की शीर्षक पहना था, उस समय राम का स्मरण हृदय में आता है।
इस शरीर में सति से मिलन का कोई आकांक्षा नहीं है, और मन में शिव की संकल्पना की गई है।
यह श्लोक भक्ति और आत्मा के साक्षात्कार की महत्ता को बताता है, जहां शिव और राम के स्मरण के माध्यम से भक्त आत्मा के साक्षात्कार की प्राप्ति का पथ प्रशस्त करता है।
अस बिचारि संकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई 357
अस बिचारि - इस प्रकार सोचकर,
संकरु मतिधीरा - जो महात्मा है, उसने सोचा,
चले भवन सुमिरत रघुबीरा - वह भगवान राम का स्मरण करते हुए भवन (मन्दिर) की ओर बढ़ते हैं।
चलत गगन भै गिरा सुहाई - जब वह चलते हैं, तो आकाश का भी गगन हिला हुआ सा लगता है,
जय महेस भलि भगति दृढ़ाई - महेश्वर (शिव) की महान भक्ति के साथ जय हो!
इस श्लोक में भक्त का राम के प्रति दृढ़ विश्वास और भक्ति की महत्ता को बताया गया है। भक्त चलते हुए भी भगवान के स्मरण में लीन रहता है और उसकी भक्ति में स्थिर रहता है।
अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥
सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥ 358
यह भी एक श्लोक है तुलसीदास जी के 'रामचरितमानस' से, जिसका अर्थ है:-अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना - इस प्रकार, तुम्हारे बिना कोई भी कार्य करना संभव नहीं है,
रामभगत समरथ भगवाना - क्योंकि राम के भक्ति में लीन होने वाले ही सब संभव हैं, और वह समर्थ हैं, भगवान हैं।
सुनि नभगिरा सती उर सोचा - जब नभगिरा ने यह सुना और उसने अपने मन में सोचा,
पूछा सिवहि समेत सकोचा - तो उसने सुभद्रा को सहित सिर्फ शिव को पूजने के लिए पूजा है।
यह श्लोक रामभक्ति और भक्ति के महत्त्व को बताता है, और यह दिखाता है कि भक्ति में ही सबकुछ संभव है और भगवान सब पर समर्थ हैं।
कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥359-
कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला - जिसने किया है, वह कौनसा पुरुष है जो उसे कृपालु (दयालु) कह सकता है,
सत्यधाम प्रभु दीनदयाला - जो सत्य और धर्म का स्वरूप है, वह प्रभु हमारे प्रति दयालु है।
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती - भगवान ने भगिनी सती से बहुतरह के सवाल पूछे हैं,
तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती - लेकिन, भगवान ने त्रिपुरासुर वध का रहस्य नहीं बताया।
यह श्लोक भगवान शिव की महादेवी सती से संबंधित है, जहां भगवान शिव ने अपनी महादेवी से विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछे हैं और एक क्षण में उसके प्रति दयालुता और सत्यनिष्ठा का वर्णन किया गया है।
सतीं हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य॥ 360
सतीं हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य - महादेव ने महादेवी सती के हृदय को अनुमानित किया और उन्हें सर्वज्ञ (सब जानने वाली) बताया।
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य - महादेव ने कहा, "मैंने देखा है कि महादेवी सती बहुत चालाक हैं, लेकिन मैंने उन्हें स्वभाव से ही जड़ माना है।"
इस श्लोक में भगवान शिव अपनी पतिव्रता पत्नी महादेवी सती की शक्तिशाली और विवेकपूर्ण प्रकृति की स्तुति करते हैं, लेकिन उन्हें अपनी साधना में सामान्य और जड़ माना गया है।
जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥ 361
जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि - सरस्वती नदी का पानी बिक रहा है, इसे देखकर तुम देखो कि प्रेम की रीति कैसी होती है।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि - जब वह नदी अपने विरह रस को छोड़कर जाती है, तो वह झूठ छोड़ देती है, पुनः विरह को लेकर।
इस श्लोक में भगवान शिव की पतिव्रता पत्नी पार्वती के प्रेम की उदाहरण स्वरूप नदी सरस्वती को लेकर दिखाया गया है, जिससे भक्त को प्रेम और विश्वास की शिक्षा मिलती है।
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