शिव जलंधर युद्ध 'वृंदा का पतिव्रत भंग, जलंधर का वध, देवताओं द्वारा शिव स्तुति

शिव जलंधर युद्ध 'वृंदा का पतिव्रत भंग, जलंधर का वध, देवताओं द्वारा शिव स्तुति

शिव जलंधर युद्ध

सनत्कुमार जी बोले- हे महर्षे! जब युद्धभूमि में देवसेना का प्रतिनिधित्व करने वाले सभी वीर साहसी घायल होकर पृथ्वी पर गिर पड़े, तब यह देखकर सभी शिवगण भयभीत होकर शिव की शरण में चले गए। जब भगवान शिव को युद्धस्थल का सब समाचार मिल गया, तब वे स्वयं दैत्यराज जलंधर को सबक सिखाने के लिए युद्धस्थल की ओर चल पड़े। अपने आराध्य भगवान शिव को युद्ध का नेतृत्व करते देखकर सभी शिवगण, जो पहले डरकर भाग गए दिया। थे पुनः लौट आए। शिवगणों ने पहले जैसे जोश के साथ युद्ध करना प्रारंभ कर भगवान शिव के रौद्र रूप को देखकर भयानक दैत्य भी भयभीत होने लगे और युद्ध छोड़कर भागने लगे। यह देखकर असुरों के स्वामी जलंधर को क्रोध आ गया। वह तीव्र गति से शिवजी की ओर दौड़ा। इस कार्य में शुंभ-निशुंभ नामक सेनापतियों ने अपने स्वामी का साथ दिया। यह देखकर भगवान शिव ने प्रतिउत्तर देते हुए जलंधर के बाणों को काट दिया। वे अपने धनुष से बाणों की वर्षा करने लगे। उन्होंने कई दैत्यों को फरसे से काट दिया। बलाहक और धस्मर जैसे भयानक राक्षसों को पल भर में मार गिराया। शिवजी का वाहन बैल भी अपने सींगों के प्रहारों से सबको घायल करने लगा। तब यह देखकर जलंधर अपने सैनिकों को समझाने लगा कि वे न डरें और युद्ध करते रहें। पर दैत्य सेना भगवान शिव से युद्ध करने को तैयार ही नहीं हो रही थी । क्रोधित जलंधर उन्हें ललकारने लगा। जलंधर ने अनेकों बाणों को एक साथ चलाकर उसमें भगवान शिव को बांधने का प्रयास किया, लेकिन वह सफल न हो सका। भगवान शिव ने उसके सभी बाणों को काट दिया और उसके रथ की ध्वजा को भी नीचे गिरा दिया। असुरराज जलंधर के सभी बाणों को काटने के पश्चात भगवान शिव ने एक बाण मारकर जलंधर को घायल कर दिया और उसके धनुष को काट दिया। यह देखकर जलंधर ने युद्ध करने के लिए गदा उठा ली। तब शिवजी ने अपने बाण से उसकी गदा के भी दो टुकड़े कर दिए। यह सब देखकर दैत्येंद्र जलंधर यह जान गया कि त्रिलोकीनाथ भगवान शिव उससे अधिक बलवान हैं और उन्हें युद्ध में पराजित कर पाना उसके लिए मुश्किल है। तब जलंधर ने जीतने के लिए गंधर्व माया उत्पन्न की।

वहां उस युद्धस्थल पर हजारों की संख्या में गंधर्व और अप्सराओं के गण उत्पन्न हो गए और वहां नृत्य करने लगे। वहां मधुर संगीत बजने लगा। यह सब देखकर सभी देव सेना के सैनिक मोहित हो गए और युद्ध को भूलकर नृत्य और गाना-बजाना देखने में मग्न हो गए। इधर, देवाधिदेव भगवान शिव भी गंधर्व माया से मोहित होकर नृत्य देखने लगे। जब दैत्यराज जलंधर ने देखा कि सभी देवताओं सहित देवाधिदेव भगवान शिव भी उस गंधर्व माया के द्वारा मोहित होकर अप्सराओं के नृत्य को देख रहे हैं, तब वह वहां से चुपके से भाग खड़ा हुआ। असुरराज जलंधर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का रूप धारण कर बैल पर बैठकर देवी पार्वती के पास कैलाश पर्वत पर पहुंचा। वहां कैलाश पर देवी पार्वती अपनी सखियों के साथ व्यस्त थीं। जब उन्होंने अपने पति भगवान शिव को आता देखा, तब उन्होंने अपनी सखियों को वहां से भेज दिया और स्वयं भगवान शिव के समीप आ गई। देवी पार्वती के अप्रतिम सौंदर्य को देखकर जलंधर का मन विचलित हो उठा और वह उन्हें अपलक निहारने लगा। जलंधर के इस प्रकार के व्यवहार को देख पार्वती को यह समझते हुए ए देर नहीं लगी कि वह कोई बहुरूपिया है, जो भगवान शिव का रूप धारण कर उन्हें ठगने आया है। यह विचार मन में आते ही देवी पार्वती वहां से अंतर्धान हो गईं। तब वे एक अन्य स्थान पर पहुंची और उन्होंने भगवान श्रीहरि विष्णु का स्मरण करके उन्हें वहां बुलाया। विष्णुजी ने वहां पहुंचकर देवी को नमस्कार किया और उनसे प्रश्न किया कि क्या आप जलंधर के इस कार्य को जानते हैं? देवी पार्वती के इस प्रश्न को सुनकर श्रीविष्णु ने हाथ जोड़ लिए और बोले - हे माता ! आपकी क्या आज्ञा है? मैं उस दुष्ट को किस प्रकार का दंड दूं? तब देवी ने कहा कि आप जो उचित समझें वह करें। तब श्रीविष्णु जलंधर को छलने के लिए उसके नगर की ओर चल दिए ।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (पंचम खंड) बाईसवां उध्याय समाप्त 

वृंदा का पतिव्रत भंग

व्यास जी बोले- सनत्कुमार जी ! जब माता पार्वती की आज्ञा पाकर भगवान विष्णु सागरपुत्र जलंधर की नगरी को चले गए, तब फिर आगे क्या हुआ? उन्होंने वहां जाकर क्या किया? व्यास जी का प्रश्न सुनकर सनत्कुमार जी मुस्कुराए और बोले - हे महर्षे! दैत्यराज जलंधर की नगरी में पहुंचकर श्रीहरि विष्णु सोच में पड़ गए कि वे क्या करें परंतु अगले ही पल उन्हें समझ में आ गया कि जैसे को तैसा । उन्होंने सोचा कि जिस प्रकार जलंधर ने छद्म शिव रूप धारण करके देवी पार्वती को छलने की कोशिश की थी, वे भी वहां जाकर उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रत धर्म भंग करेंगे। वे जानते थे कि जलंधर अपनी पत्नी के पतिव्रत धर्म से ही अभी तक बचा हुआ है। इसलिए उसका पतिव्रत धर्म नष्ट करना जरूरी है। मन में यह विचार आते ही वे नगर के राज उद्यान में जाकर ठहर गए। दूसरी ओर दैत्यराज जलंधर की पतिव्रता पत्नी वृंदा अपने कक्ष में सो रही थी। भगवान श्रीहरि विष्णु की माया के फलस्वरूप उन्होंने रात्रि में एक सपना देखा। उसने देखा कि उसका पति निर्वस्त्र होकर सिर पर तेल लगाकर और गले में काले रंग के फूलों की माला पहनकर भैंसे पर बैठा है और उसके चारों ओर हिंसक जीव-जंतु उसको घेरे खड़े हैं। उस समय चारों ओर घोर अंधकार फैला हुआ था और वह दक्षिण दिशा की ओर बढ़ता जा रहा था। ऐसा सपना देखकर वह डर गई और उसकी आंख खुल गई। तभी उसने देखा कि सूर्य उदय हो रहा है परंतु वह सूर्य अत्यंत कांतिहीन था और उसे सूर्य में एक छेद भी दिखाई दे रहा था। यह सब देखकर वृंदा का मन बहुत व्याकुल हो उठा और वह इधर-उधर टहलने लगी। कभी छज्जे और अटारी पर चढ़ती तो कभी जमीन पर बैठ जाती परंतु उसे चैन नहीं था? जब इस प्रकार वृंदा का मन शांत नहीं हुआ तो वह मन की शांति प्राप्त करने हेतु उद्यान की ओर चल दी परंतु उस निर्जन उद्यान में उसके पीछे सिंह के समान दो भयंकर राक्षस पड़ गए। वृंदा उन्हें देखकर बहुत डर गई और अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए वहां से भागने लगी। भागते हुए उसे सामने से आते हुए एक तपस्वी दिखाई दिए। भयभीत वृंदा उन मुनि से अपने जीवन की रक्षा करने के लिए प्रार्थना करने लगी। उन तपस्वी ने अपने कमण्डल से जल निकालकर उन राक्षसों को ललकारते हुए उन पर जल छिड़क दिया। जल छिड़कते ही दोनों राक्षस वहां से भाग खड़े हुए। तब वृंदा ने दोनों हाथ जोड़कर उन तपस्वी को प्रणाम किया तथा उनका धन्यवाद व्यक्त किया। तत्पश्चात उनको अत्यंत दिव्य और शक्तिशाली जानकर वृंदा ने उन मुनि से अपने पति दैत्यराज जलंधर के विषय में पूछा। मुनि ने उत्तर दिया कि देवी तुम्हारा पति तो युद्ध में मारा गया है। यह कहकर उन्होंने कुछ इशारा किया, जिसके फलस्वरूप दो वानर उनके सामने प्रकट हो गए। अगले ही पल उन तपस्वी का संकेत पाकर वे वानर आकाश मार्ग से उड़कर चले गए और कुछ समय पश्चात दैत्यराज जलंधर का कटा हुआ सिर और उसके अन्य सामान को लेकर लौट आए। अपने पति जलंधर का कटा हुआ सिर देखकर वृंदा बेहोश होकर गिर पड़ी। कुछ समय पश्चात होश में आने पर रोते हुए वृंदा उन मुनि से प्रार्थना करने लगी कि वे उसके पति को पुनः जीवित कर दें। यह कहकर वह बहुत जोर-जोर से रोने लगी और बोली कि यदि आप मेरे पति को जीवनदान नहीं दे सकते तो मुझे भी मृत्यु दे दें। वृंदा के इस प्रकार के वचन सुनकर मुनि बोले - हे देवी! तुम्हारे पति का वध त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के द्वारा हुआ है। अतः उसको जीवित करना देवाधिदेव भगवान शिव का विरोध करना है परंतु अपनी शरण में आए हुए मनुष्य की रक्षा करना मेरा भी धर्म है। इसलिए मैं तुम्हारे पति को पुनः जीवित अवश्य करूंगा। यह कहकर उन्होंने अपने कमण्डल से जल निकाला और मंत्रोच्चारण करते हुए जलंधर पर छिड़का, जिसके फलस्वरूप वह जीवित हो गया। जलंधर को जीवन दान देकर वे तपस्वी वहां से अंतर्धान हो गए। वस्तुतः उस तपस्वी ने ही सूक्ष्म रूप से जलंधर की काया में प्रवेश कर लिया था। दरअसल, तपस्वी का रूप धारण करने वाले वे मुनि और कोई नहीं स्वयं श्रीहरि विष्णु थे। अपने पति को अपने पास पाकर देवी वृंदा बहुत खुश हुई और तुरंत अपने पति के गले लग गई। उसने उन सब बातों को भयानक स्वप्न समझकर भुला दिया फिर बहुत समय तक उस छद्म वेशधारी जलंधर के साथ वन में ही रमण करती रही परंतु मायावी की माया भला कब तक छिप सकती थी? एक दिन वृंदा को ज्ञात हो गया कि उसके साथ विहार करने वाला पुरुष और कोई नहीं स्वयं श्रीहरि विष्णु हैं, जो कि उसके पति का रूप धारण करके उसे छल रहे हैं। यह सारी सच्चाई जानकर देवी वृंदा बहुत दुखी हुई। तब वह श्रीहरि विष्णु से बोली- तुमने एक पराई स्त्री का उसका पति बनकर उपभोग किया है। तुम्हें धिक्कार है। मैं किस प्रकार अपने पति का सामना कर सकती हूं? अब मुझे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है पर तुम्हें तुम्हारी करनी की सजा अवश्य ही मिलेगी। तुमने मुझे अबला जानकर मेरा इस्तेमाल किया है। मैं तुम्हें शाप देती हूं कि जिन राक्षसों से तुमने मुझे डराकर मेरा विश्वास जीता था, वे ही राक्षस तुम्हारी पत्नी का भी हरण करेंगे और तुम उसके वियोग में हर ओर भटकोगे। तब यहीं वानर तुम्हारी सहायता करेंगे। मेरा अगला जन्म तुलसी के रूप में होगा और मेरी संजीवनी-शक्ति ही मेरी पवित्रता का प्रमाण होगी। भगवान श्रीहरि विष्णु को इस प्रकार शाप देकर असुरश्रेष्ठ जलंधर की पत्नी वृंदा ने अग्नि में प्रवेश कर लिया और उसमें अपने प्राणों की आहुति दे दी। उस अग्नि में से एक तेज प्रकट हुआ और वह जाकर देवी पार्वती में समा गया।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (पंचम खंड) तेईसवां अध्याय समाप्त 

जलंधर का वध

व्यास जी बोले- हे तात! उधर, जब असुरराज जलंधर द्वारा फैलाई गई गंधर्व माया से मोहित होकर सभी देवताओं सहित भगवान शिव भी युद्ध को भूलकर अप्सराओं का नृत्य- गान देखने में व्यस्त हो गए तब क्या हुआ? उधर, जब जलंधर को पहचानकर देवी पार्वती कैलाश पर्वत से अंतर्धान हो गईं तब वहां क्या हुआ? भगवान शिव ने क्या किया? सनत्कुमार जी बोले- हे महर्षे! जब जलंधर को अपने सामने भगवान शिव के रूप में देखकर देवी पार्वती ने यह जान लिया कि वह कोई बहुरूपिया है तो वे तुरंत वहां से अंतर्धान हो गईं। उनके अंतर्धान होते ही सारी माया वहां से गायब हो गई। माया के गायब होते ही सभी देवता अपने-अपने होश में आ गए। उधर, देवाधिदेव भगवान शिव की चेतना भी वापस लौट आई और जलंधर की माया को जानकर उन्हें अत्यधिक क्रोध आ गया। तब जलंधर भी देवी पार्वती के अचानक वहां से गायब हो जाने के कारण तुरंत ही युद्धभूमि में लौट आया। तत्पश्चात भगवान शिव और असुरराज जलंधर में बड़ा भयानक युद्ध होने लगा। परंतु त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की वीरता और बल के सामने वह तुच्छ असुर कहां टिक पाता? यह बात जल्द ही उसे समझ आ गई कि सर्वेश्वर शिव को जीत पाना आसान नहीं है बल्कि असंभव है। तब असुरराज जलंधर ने भगवान शिव को जीतने के लिए माया का सहारा लिया। उसने तुरंत अपनी माया द्वारा पार्वती को प्रकट किया और उन्हें अपने रथ पर बांध लिया। जलंधर के दो सेनापति शुंभ और निशुंभ अपने हाथों में भयानक अस्त्र लेकर देवी पार्वती को मारने के लिए उन पर झपट रहे थे और देवी पार्वती रोते हुए अपनी सहायता के लिए अपने आराध्य भगवान शिव को पुकार रही थीं। यह दृश्य देखकर भगवान शिव भी अत्यंत चिंतित हो गए। अपनी प्राणवल्लभा देवी पार्वती को इस प्रकार कष्ट में देखकर वे व्याकुल हो उठे। तब अपनी प्रिया पार्वती को दैत्येंद्र जलंधर से मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने बड़ा भयानक रूप धारण कर लिया। उनका वह रौद्र रूप देखकर राक्षसी सेना भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगी और छिपने का प्रयास करने लगी। उधर, दैत्य सेना के प्रधान शुंभ और निशुंभ भी डर गए और युद्ध से बचने की कोशिश करने लगे। उनके भयभीत होते ही जलंधर की माया समाप्त हो गई। युद्धभूमि में हाहाकार मच गया। सब इधर-उधर दौड़ रहे थे। जब शुंभ-निशुंभ भी अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए भाग रहे थे, तब भगवान शिव ने उन्हें ललकारा परंतु वे फिर भी युद्ध के लिए तत्पर न हुए। भगवान शिव बोले- तुम तो देवी पार्वती को मारने बढ़ रहे थे, अब क्यों डरकर भाग रहे हो? आओ और मेरे साथ युद्ध करके अपनी वीरता का परिचय दो। भगवान शिव के वचनों का उन दोनों पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा और वे भागते रहे। तब क्रोधवश भगवान शिव ने शुंभ-निशुंभ को शाप देते हुए कहा - हे दुष्ट असुरो ! युद्ध में कभी भी पीठ दिखाने वाले पर वार नहीं करना चाहिए। इसलिए मैं तुम दोनों को छोड़ रहा हूं परंतु जिनको तुम मारने का प्रयत्न कर रहे थे, वे ही देवी पार्वती तुम दोनों का एक दिन वध करेंगी। भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर क्रोध से भरा जलंधर उन पर झपटा। उसने भयानक बाण चलाकर पूरी पृथ्वी पर अंधकार कर दिया। इससे भगवान शिव का क्रोध अत्यधिक बढ़ गया और उन्होंने अपने चरणांगुष्ट से बने हुए सुदर्शन चक्र को चला दिया। उस चक्र ने तुरंत जलंधर के सिर को उसके धड़ से अलग कर दिया। जब चक्र ने असुरराज जलंधर का सिर काटा तो बहुत भयानक ध्वनि हुई और महादानव जलंधर पल भर में ही ढेर हो गया। जिस प्रकार अंजन (काजल) का विशाल पर्वत दो टुकड़ो में विभक्त हो गया था, उसी प्रकार जलंधर का शरीर भी दो टुकड़ों में बंट गया। सारे युद्ध- भूमि में उसका रक्त फैल गया। भगवान शिव की आज्ञा से जलंधर का रक्त और मांस महारौरव में जाकर रक्त का कुंड बन गया। दैत्यराज जलंधर के शरीर से निकला अद्भुत तेज उस समय भगवान शिव के शरीर में प्रवेश कर गया। जलंधर का वध होते ही चारों ओर हर्ष की लहर दौड़ गई। सभी देवता ऋषि-मुनि बहुत प्रसन्न हुए। अप्सराएं और गंधर्व मंगल गान गाने लगे। सारी दिशाओं से भगवान शिव पर फूलों की वर्षा होने लगी।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (पंचम खंड)चौबीसवां अध्याय समाप्त 

देवताओं द्वारा शिव स्तुति

सनत्कुमार जी बोले- हे महर्षे! इस प्रकार दैत्यराज जलंधर का देवाधिदेव भगवान शिव के हाथों से वध देखकर सब ओर प्रसन्नता छा गई। सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी और श्रीहरि विष्णु भी हर्षित हुए। तब वे करुणानिधान भगवान शिव को धन्यवाद देने लगे और उनकी स्तुति करने लगे और बोले - हे करुणानिधान! हे कृपानिधान देवाधिदेव भगवान शिव! आप प्रकृति से परे हैं। भगवन्! आप ही परमब्रह्म परमेश्वर हैं। प्रभो! हम सब देवता आपके दास हैं और आपकी आज्ञा की पूर्ति करने हेतु कार्य करते हैं। हे देवेश ! आप हम पर प्रसन्न हों। हे प्रभु! जब भी देवताओं पर कोई विपत्ति पड़ी है, आपने हमारी सहायता की है। और हमें अनेक दैत्यों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाई है। हम सदा ही आपके चरणों की वंदना करते हैं और आपके अनोखे दिव्य स्वरूप का ही स्मरण करते हैं। आपके ही कारण हमारा भी अस्तित्व है। आपके बिना हम कुछ भी नहीं हैं। आप भक्तवत्सल हैं और सदा ही अपने भक्तों का हित करते हैं।
इस प्रकार भगवान शिव की वंदना करके सभी देवता चुप हो गए और हाथ जोड़कर खड़े हो गए। तब भगवान शिव बोले- हे देवताओ ! मैं तुम्हारी आराधना से बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हें वरदान देता हूं कि मैं हमेशा तुम्हारे अभीष्ट कार्यों की सिद्धि करूंगा। तुम्हारे दुखों को मैं सदा दूर करूंगा। इसके अतिरिक्त तुम और कुछ भी चाहो तो मुझसे मांग सकते हो। परंतु उन्होंने उनकी कृपादृष्टि बनाए रखने के अतिरिक्त उनसे कुछ नहीं मांगा। तब उन देवताओं को आवश्यकता पड़ने पर उनकी मदद करने का आश्वासन देकर देवाधिदेव भगवान शिव वहां से अंतर्धान हो गए। इस प्रकार जब त्रिलोकीनाथ भक्तवत्सल शिव ने देवताओं को उनकी सहायता का आश्वासन दिया तो सभी देवता हर्ष से फूले नहीं समाए और भगवान शिव की महिमा का गुणगान और जय-जयकार करते हुए प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने धाम को वापस चले गए।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (पंचम खंड) पच्चीसवां अध्याय  समाप्त 

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