श्री रामचरित मानस किष्किन्धा काण्ड चौपाई अर्थ सहित

श्री रामचरित मानस किष्किन्धा काण्ड चौपाई अर्थ सहित Shri Ramcharit Manas Kishkindha Kand Chaupai with meaning

रामचरितमानस के किष्किंधा कांड में 1 श्लोक, 30 दोहे, 1 सोरठा, 2 छंद और 30 चौपाइयां हैं. किष्किंधा कांड  के चौपाई 1-5 अर्थ सहित हैं:
चौपाई 
कोसलेस दसरथ के जाए , हम पितु बचन मानि बन आए ||
नाम राम लछिमन दौउ भाई, संग नारि सुकुमारि सुहाई ||१||
इसका अर्थ है

"कोसलेश्वर राजा दशरथ जिन्हें विदेही राजकुमारी सीता के पति बनने के लिए जाना गया था, वे हमारे परम पिता ब्रह्मा के आज्ञानुसार उनके वचनों का पालन करने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने अपने बालक राम और उनके भाई लक्ष्मण को साथ में लेकर जाए।"
इस चौपाई में तुलसीदास जी भगवान राम, लक्ष्मण, और दशरथ के प्रति अपनी श्रद्धाभावना को व्यक्त करते हैं और इसके माध्यम से वे भक्ति भावना को उजागर करते हैं।
इहाँ हरि निसिचर बैदेही, बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही ||
आपन चरित कहा हम गाई, कहहु बिप्र निज कथा बुझाई ||२||
इसका अर्थ है
"यहाँ हम हरि (भगवान राम) को सदैव निवास करते देखते हैं, जबकि वह बैदेही (सीता) नित्य हमारी दृष्टि में रहती हैं। हम ने आपके चरित्र का गान किया है और इसे बिप्र (ब्राह्मण) से सुनते रहते हैं। कृपया अपनी कथा को हमें समझाएं।"
यह चौपाई भक्ति और भगवद्गीता को सार्थक बनाने का प्रयास करती है, और भगवान राम के चरित्र की महिमा को स्वीकार करने की प्रेरणा देती है।
प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना, सो सुख उमा नहिं बरना ||
पुलकित तन मुख आव न बचना, देखत रुचिर बेष कै रचना ||३||
इसका अर्थ है

"प्रभु को पहचानकर पैरों में सीधा लेकर रखना, वह सुख भी उमा (पार्वती, शिव की पत्नी) को नहीं बतता। जब रुचिर (सुंदर) बेष धारण किया जाता है, तो शरीर में चमक और मुख में शब्द आते हैं, बोले जाने वाले वचन नहीं रहते हैं।"
यह चौपाई भक्ति और श्रद्धा के माध्यम से भगवान की पहचान का महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रस्तुत करती है। इसमें भगवान की पहचान को सीधे और निर्मल भाव से करने की प्रेरणा है।
पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही, हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही ||
मोर न्याउ मैं पूछा साईं, तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं ||४||
इसका अर्थ है

"फिर धैर्य रखकर हमने स्तुति की, और हमारे हृदय में हरष उत्पन्न हुआ, क्योंकि हमने अपने नाथ को पहचाना है। मैंने मोरे न्याउं से साईं से कहा, 'तुमने किस नर की पहचान की है, मुझसे भी पूछो कौन हूं?'"
यह चौपाई भक्ति और आत्म-विवेक के माध्यम से भगवान के प्रति समर्पण की भावना को व्यक्त करती है। यह व्यक्ति को अपने आत्मगत ध्यान और श्रद्धा के माध्यम से भगवान के साथ अभिन्न होने की उपलब्धि की ओर प्रवृत्ति करने का सुझाव देती है।
तव माया बस फिरउँ भुलाना, ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना ||५||
इसका अर्थ है
"तेरी माया में मैं फिरता हूं और तुझे भूल जाता हूं, इसलिए मैंने तुझे प्रभु नहीं पहचाना।"
इस चौपाई में भक्त अपनी माया और अज्ञान की बात कर रहा है, जिससे वह भगवान को नहीं पहचान पा रहा है। यह आत्म-विचार और साधना के माध्यम से अपनी अज्ञानता को हरने की आवश्यकता को बताती है और भगवान की पहचान के लिए श्रद्धा बढ़ाने का सुझाव देती है।
चौपाई 
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें, सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें ||
नाथ जीव तव मायाँ मोहा, सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा ||१||
इसका अर्थ है

"जैसे कि मेरे नाथ (भगवान राम) बहुत अवगुणों से रहित हैं, फिर भी मैं उनका सेवक हूँ, क्योंकि दूसरों ने प्रभु की सेवा करते हुए सुबह-सुबह जाना है। मेरे नाथ, तुम्हारी माया में जीवन को मोहित कर रही है, पर वह जो तुम्हारी कृपा से छूट जाएगा।"
यह चौपाई भक्ति और सर्वोत्तम नाथ की सेवा की अनिवार्यता को बताती है, और भक्त की निष्ठा को उजागर करती है कि भगवान की कृपा से ही जीवन में मोह और आसक्ति से मुक्ति हो सकती है।
ता पर मैं रघुबीर दोहाई, जानउँ नहिं कछु भजन उपाई ||
सेवक सुत पति मातु भरोसें, रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें ||२||
इसका अर्थ है

"तब मैं रघुकुल नायक से यह दुहाई मांगता हूँ, क्योंकि मैं नहीं जानता कि कुछ और भक्ति करने का तरीका है। अपने सेवक, पुत्र, पति और माता माता के प्रति पूरा विश्वास रखकर, अपने मन में किसी भी प्रकार के विचार को बिना सोचे-समझे रखकर, मैं भगवान की उपासना करता हूँ।"
इस चौपाई में भक्त अपनी अज्ञानता की स्थिति को प्रकट करता है और रघुकुल नायक, भगवान राम से अपनी निर्धनता को दूर करने की प्रार्थना करता है। भक्त यह भी स्पष्ट करता है कि सच्ची भक्ति और उपासना में योग्यता का आधार विश्वास और निष्ठा में है।
अस कहि परेउ चरन अकुलाई, निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई ||
तब रघुपति उठाइ उर लावा, निज लोचन जल सींचि जुड़ावा ||३||
इसका अर्थ है

"ऐसा कहते हुए अपने प्रभु के चरणों को बिना किसी संकोच के लिए, अपने शरीर की प्रगट प्रीति को अपने हृदय में बहला रहा। तब भगवान राम ने उठकर उसके हृदय को चुमा और अपने चेहरे की ताजगी के लिए अपने नेत्रों की रेखाएं सींची और मिलाई।"
इस चौपाई में भक्त की भगवान के प्रति अपनी प्रीति और आत्मबुद्धि की विवेचना की जा रही है। भक्त भगवान के चरणों में पूर्ण समर्पण और प्रीति के साथ अपने शरीर की प्रसन्नता को व्यक्त करता है। इस प्रेम और समर्पण की भावना से भगवान राम की कृपा और आशीर्वाद प्राप्त होता है।
सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना, तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना ||
समदरसी मोहि कह सब कोऊ, सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ ||४||
इसका अर्थ है

"हे कपि! मेरे मन में जानकर सुन, तुम मेरे प्रिय भाई लक्ष्मण से भी ऊपर हो! सबको मुझसे समदृष्टि मानकर मुझसे मोहित होते हुए भी, उस सेवक को प्रिय मानो, जो मुझसे अलग नहीं है।"
इस चौपाई में भक्ति और समर्पण के माध्यम से भक्त का भगवान के प्रति प्रेम व्यक्त किया गया है। भक्त कह रहा है कि लक्ष्मण, भगवान राम के भाई, भी उनसे अधिक प्रिय हैं। सम्पूर्ण जगह के साथी और सबका समर्थन करने के बावजूद, उसकी अनन्य भक्ति भगवान की अद्वितीय प्रेम भावना को प्रकट करती है।
चौपाई 
देखि पवन सुत पति अनुकूला, हृदयँ हरष बीती सब सूला ||
नाथ सैल पर कपिपति रहई, सो सुग्रीव दास तव अहई ||१||
इसका अर्थ है
"हनुमान ने देखा कि तुम्हारा पुत्र पवन सुत है और तुम्हारा पति राम उनके पक्ष में हैं, इससे सभी विकट संगीत सुलझ गए हैं। भगवान, तुम्हारे पुरुषोत्तम स्वरूप राम ने सीता देवी के साथ समुद्र पार किया, इसलिए हे कपिपति सुग्रीव, तुम उनके भक्त बन गए हो।"
इस चौपाई में हनुमान जी भगवान राम की कृपा और अनुग्रह का वर्णन कर रहे हैं। हनुमान ने देखा कि पवनसुत हनुमान की भक्ति और सेवा के कारण सभी कठिनाईयाँ दूर हो गईं हैं और उनके हृदय में आनंद हो रहा है।
तेहि सन नाथ मयत्री कीजे, दीन जानि तेहि अभय करीजे ||
सो सीता कर खोज कराइहि, जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि ||२||
इसका अर्थ है

"तुम उन्हें नाथ बनाओ, जो मैत्रेयी के नाथ हैं, और दीनता को जानकर उन्हें शरण में लेने का आशीर्वाद करो। उसी तरह सीता की खोज करो और जहां-जहां आप जा सकते हैं, वहां-वहां सुग्रीव को साथ लेकर मारूति को भेजो।"
इस चौपाई में हनुमान जी को सीता माता की खोज के लिए एक योजना बनाने का आदान-प्रदान किया जा रहा है। हनुमान को सीता माता की खोज के लिए समर्थन देने के लिए मैत्रेयी और दीनता की भावना से भरपूर होने का सुझाव दिया जा रहा है।
एहि बिधि सकल कथा समुझाई, लिए दुऔ जन पीठि चढ़ाई ||
जब सुग्रीवँ राम कहुँ देखा, अतिसय जन्म धन्य करि लेखा ||३||
इसका अर्थ है
"इसी प्रकार सभी कथाएँ समझाई गईं जब दोनों भक्त (हनुमान और अंगद) समुद्र की पीठ पर बैठे थे। जब सुग्रीव ने राम से मिलने का समय देखा, तो उसने अत्यंत धन्य समझकर अपने जन्म को सफल बताया।"
इस चौपाई में हनुमान और अंगद को सुग्रीव के साथ समुद्र के किनारे बैठकर भगवान राम के लीलाकथा को सुनाने का वर्णन किया जा रहा है। सुग्रीव को राम से मिलन का समय मिलता है, और उसने अपने जन्म को धन्य माना क्योंकि उसका जीवन भगवान की सेवा में समर्पित हो गया है।
सादर मिलेउ नाइ पद माथा, भैंटेउ अनुज सहित रघुनाथा ||
कपि कर मन बिचार एहि रीती, करिहहिं बिधि मो सन ए प्रीती ||४||
इसका अर्थ है

"मैं शीघ्र ही प्रभु रघुनाथ के शिर पर सिर टेकूँगा और अपने छोटे भाई अनुज के साथ उनके सामने उपस्थित रहूँगा। हे कपि, इसी रीति से मननशील होकर इस प्रकार सादर मिलो, जैसा कि मैं भक्ति और प्रेम के साथ चाहता हूँ।"
इस चौपाई में हनुमान जी भगवान राम से मिलन की इच्छा व्यक्त कर रहे हैं और उन्हें सादर मिलने का विधान बता रहे हैं। भक्त को चाहिए कि वह अपने मन को शुद्ध करके प्रभु के सामने आत्म-समर्पण के साथ पहुंचे और भगवान से सादर मिलें।
चौपाई 
कीन्ही प्रीति कछु बीच न राखा, लछमिन राम चरित सब भाषा ||
कह सुग्रीव नयन भरि बारी, मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी ||१||
इसका अर्थ है

"जब सुग्रीव ने देखा कि भक्ति में किसी प्रकार का विघ्न नहीं होना चाहिए, तो उन्होंने लछिमन की राम कथा को किसी भी रुकावट के बिना सबके सामने व्यक्त कर दिया। सुग्रीव ने नयनों में आंसू भरकर कहा, 'हे प्रभु, कृपया हमें आपकी मिथिला की सीता से मिलाएं।'"
इस चौपाई में सुग्रीव ने भक्ति भाव से राम कथा का आयोजन किया और आगे बढ़कर भगवान से मीत करने की प्रार्थना की है। यह भक्ति और प्रेम से भरी चौपाई है जो सुग्रीव की प्रीति और विश्वास को दर्शाती है।
मंत्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा, बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा ||
गगन पंथ देखी मैं जाता, परबस परी बहुत बिलपाता ||२||
इसका अर्थ है
"मेरे मंत्रियों के साथ एक बार यहाँ बैठकर, मैं विचार कर रहा हूं। मैंने आकाश का मार्ग देखा है और बहुत सी दूरस्थ जगहों पर परमात्मा को प्राप्त होने के लिए विलाप किया है।"
इस चौपाई में भक्त कह रहा है कि उसने अपने मंत्रियों के साथ एक बार बैठकर विचार किया है और उसने आकाश के पथ को देखा है, जिससे उसे परमात्मा के साक्षात्कार की प्राप्ति का दर्शन हुआ है। वह परमात्मा को प्राप्त होने की लालसा के साथ बहुत सी दूरस्थ जगहों का विलाप कर रहा है।
राम राम हा राम पुकारी, हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी ||
मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा, पट उर लाइ सोच अति कीन्हा ||३||
इसका अर्थ है

"राम, राम, हे राम, ऐसा पुकारा। हे प्रभु, हमें देखकर पट डरकर हार जाए। राम, हमने तुमसे तुरंत यही कहा है, परन्तु पट ने हमारे हृदय को देखकर बहुत सोचा।"
इस चौपाई में भक्त रामचंद्र जी से प्रार्थना कर रहा है और अपनी दीनता और आशा के साथ उन्हें अपने पास बुलाने की बात कर रहा है। वह कहता है कि उसने तुरंत राम से यही अनुरोध किया है, परन्तु उसका हृदय विचारशीलता की दृष्टि से डर रहा है।
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा, तजहु सोच मन आनहु धीरा ||
सब प्रकार करिहउँ सेवकाई, जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई ||४||
इसका अर्थ है

"हे रघुकुल नायक राम, सुग्रीव ने कहा, 'ओ धीर! मेरे विचारों को सुनो और उसे त्याग दो। मैं आपके सभी प्रकार से सेवा करने के लिए तैयार हूँ, ताकि मैं जानकी माता से मिल सकूँ।'"
इस चौपाई में सुग्रीव रामचंद्र जी से अपने मन की बात कह रहा है और उनसे कह रहा है कि वह सभी प्रकार से उनकी सेवा करने के लिए तैयार है, ताकि उनकी पत्नी सीता से मिल सके। यह भक्ति और समर्पण की अद्वितीय भावना को दर्शाता है।
चौपाई 
नात बालि अरु मैं द्वौ भाई, प्रीति रही कछु बरनि न जाई ||
मय सुत मायावी तेहि नाऊँ, आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ ||१||
इसका अर्थ है

"मेरे भाई बालि और मैं दोनों नात-भ्राता हैं, पर में उससे कुछ भिन्न रूप में प्रेम रखता हूँ। उस मायावी बन्धनमुक्त पुरुष को मैं स्वयं अपना सुत कहता हूँ, और उस प्रभु की महिमा मैं गाता हूँ।"
इस चौपाई में सुग्रीव ने अपने भाई बालि के साथ अपने रिश्ते को व्यक्त किया है और उनमें अपने प्रेम की अद्वितीयता को बताया है। उन्होंने बालि को "मायावी" कहा है, और अपने प्रभु राम की उपासना का आदान-प्रदान किया है।
अर्ध राति पुर द्वार पुकारा, बाली रिपु बल सहै न पारा ||
धावा बालि देखि सो भागा, मैं पुनि गयउँ बंधु सँग लागा ||२||
इसका अर्थ है

"अर्धरात्रि में पुरद्वार से पुकारा गया, लेकिन बाली ने देखा कि राक्षस शत्रुओं की ताकत को साहस से सहा नहीं जा सकता। बाली की दृष्टि से भाग जाने के बाद, मैं (सुग्रीव) पुनः गया और अपने बंधु के साथ मिलकर बैठा।"
इस चौपाई में सुग्रीव नर्तन के समय बाली ने किसी दूसरे राक्षस को महल से बाहर निकालने के लिए पुरद्वार से पुकारा किया था, लेकिन उस राक्षस ने उस समय किसी से मदद नहीं मांगी। बाली की ताकत को देखकर उसने भागना चुना। इसके बाद, सुग्रीव ने अपने बंधु हनुमान और अन्यों के साथ मिलकर बैठ लिया।
गिरिबर गुहाँ पैठ सो जाई, तब बालीं मोहि कहा बुझाई ||
परिखेसु मोहि एक पखवारा, नहिं आवौं तब जानेसु मारा ||३||
इसका अर्थ है

"जब मैं गिरिबर गुहा की गहरी गुफाओं में छुपा हुआ था, तब बाली ने मुझसे पूछा और मुझे बुझाया। उसने मुझसे कहा कि अगर तुम पहाड़ी में आओगे तो मैं तुम्हें एक बार में पकड़ लूँगा, वरना मैं तुम्हें मार दूंगा।"
इस चौपाई में सुग्रीव बता रहा है कि जब वह गिरिबर गुहा की गुफाओं में छुपा हुआ था, तब बाली ने उससे मिलकर अपनी शक्तियों का दिखावा किया और उससे मारपीट करने की धमकी दी थी।
मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी, निसरी रुधिर धार तहँ भारी ||
बालि हतेसि मोहि मारिहि आई, सिला देइ तहँ चलेउँ पराई ||४||
इसका अर्थ है

"मैंने वहाँ बाली को मारा है, और वहाँ रक्त की धारा बहाई है। बाली की मृत्यु के बाद, मेरी स्थिति स्थिर रही है, और वहाँ उसने मुझे उसकी पत्नी को छोड़कर अपनी पत्नी बनाई है।"
इस चौपाई में सुग्रीव बता रहा है कि उसने बाली को मार दिया है और उस युद्ध में रक्त की धारा बहा दी है। इसके पश्चात, उसकी स्थिति मजबूत रही है और बाली की पत्नी सीता को छोड़कर उसकी पत्नी बनी है।
मंत्रिन्ह पुर देखा बिनु साईं, दीन्हेउ मोहि राज बरिआई ||
बालि ताहि मारि गृह आवा, देखि मोहि जियँ भेद बढ़ावा ||५||
इसका अर्थ है

"मैंने मंत्रियों के साथ पुरद्वार में बिना साईं को देखा, और उन्होंने मुझे राजा बनाने के लिए बड़ाई की। तब बाली मेरे पास आया और उसने मुझे देखकर अपनी पत्नी सीता के साथ जीवन के रहस्य को बढ़ावा दिया।"
इस चौपाई में सुग्रीव बता रहा है कि वह मंत्रियों के साथ पुरद्वार में गया था, लेकिन उसने रामचंद्र जी को देखा नहीं था। उसके बाद, उसे मंत्रियों ने राजा बनाने के लिए बड़ाई दी। इसके पश्चात, बाली ने सुग्रीव को मार डाला और उसने उसके घर में आकर उसकी पत्नी सीता को देखा, जिससे सुग्रीव का जीवन में एक नया चरित्र आरंभ हुआ।
रिपु सम मोहि मारेसि अति भारी, हरि लीन्हेसि सर्बसु अरु नारी ||
ताकें भय रघुबीर कृपाला, सकल भुवन मैं फिरेउँ बिहाला ||६||
इसका अर्थ है

"जब सम्पूर्ण राक्षस मुझे मारने के लिए बहुत भारी होते हैं, तब हे हरि! तुम उन्हें सभी औरतों को छोड़कर ली लेते हो। रघुकुलनायक राम, जिनकी कृपा अत्यंत दयालु है, उनके भय से सम्पूर्ण भूवन में फिर शान्ति हो जाती है।"
इस चौपाई में सुग्रीव बता रहा है कि जब सभी राक्षस मिलकर उसे मारने के लिए आते हैं, तो भगवान राम उन्हें सभी औरतों को छोड़कर लेते हैं। रामचंद्र जी की कृपा से सम्पूर्ण भूवन में फिर शान्ति होती है।
इहाँ साप बस आवत नाहीं, तदपि सभीत रहउँ मन माहीँ ||
सुनि सेवक दुख दीनदयाला, फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला ||७||
इसका अर्थ है

"इस स्थान पर कोई साँप नहीं आता है, तथापि मैं सब कुछ मन में रखता हूँ। सुनकर भगवान के दीनदयाल सेवक ने दुःख देखा, तब उनकी दो बाहुएँ विस्तारित हो गईं।"
इस चौपाई में सुग्रीव बता रहा है कि इस स्थान पर साँप नहीं आता है, लेकिन उसने भगवान के दीनदयाल सेवक को दुख में देखा है, तब उनकी दो बाहुएँ विस्तारित हो गईं। इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान की दया और कृपा सभी को छू सकती है और उनके सामीप्य का अनुभव करने पर भी साँपों का भय नहीं रहता।

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