श्री विष्णु चालीसा | Shri Vishnu Chalisa Lyrics
श्री विष्णु चालीसा करने की विधि- श्री विष्णु चालीसा का पाठ करने के लिए सबसे पहले सुबह उठकर स्नान करके अपने तन और मन को शुद्ध कर ले।
- Shri Vishnu Chalisa का पाठ करने के लिए हो सके तो स्नान के बाद पीले वस्त्रों का धारण करें।
- इसके बाद पूजा स्थल की अच्छे से साफ-सफाई कर लेनी चाहिए।
- श्री विष्णु जी की प्रतिमा या उनकी तस्वीर को स्थापित करें।
- कलश में पानी भरकर तथा उसमें थोड़ी सी चुटकी भर हल्दी को डालकर पूजा के स्थान पर रखें।
- भगवान विष्णु जी की तस्वीर के सामने घी का दिया जलाएं। हो सके तो गाय के घी का इस्तेमाल करें।
- श्री विष्णु जी के सामने धूप अगरबत्ती जलाएं।
- भगवान विष्णु जी को पीले रंग के फूल अर्पित करें।
- भगवान विष्णु जी को फल में केले चढ़ाए और मिठाई में पीले रंग की मिठाई का भोग लगाएं।
- श्री विष्णु जी को भोग लगाते समय तुलसी के पत्ते जरूर डालें। इसके बिना विष्णु जी की पूजा अधूरी मानी जाती है।
- सच्चे मन और पूरी श्रद्धा और भक्ति से भगवान विष्णु जी की पूजा व Shri Vishnu Chalisa का पाठ करें।
- श्री विष्णु चालीसा का पाठ करने के लिए सबसे पहले सुबह उठकर स्नान करके अपने तन और मन को शुद्ध कर ले।
- Shri Vishnu Chalisa का पाठ करने के लिए हो सके तो स्नान के बाद पीले वस्त्रों का धारण करें।
- इसके बाद पूजा स्थल की अच्छे से साफ-सफाई कर लेनी चाहिए।
- श्री विष्णु जी की प्रतिमा या उनकी तस्वीर को स्थापित करें।
- कलश में पानी भरकर तथा उसमें थोड़ी सी चुटकी भर हल्दी को डालकर पूजा के स्थान पर रखें।
- भगवान विष्णु जी की तस्वीर के सामने घी का दिया जलाएं। हो सके तो गाय के घी का इस्तेमाल करें।
- श्री विष्णु जी के सामने धूप अगरबत्ती जलाएं।
- भगवान विष्णु जी को पीले रंग के फूल अर्पित करें।
- भगवान विष्णु जी को फल में केले चढ़ाए और मिठाई में पीले रंग की मिठाई का भोग लगाएं।
- श्री विष्णु जी को भोग लगाते समय तुलसी के पत्ते जरूर डालें। इसके बिना विष्णु जी की पूजा अधूरी मानी जाती है।
- सच्चे मन और पूरी श्रद्धा और भक्ति से भगवान विष्णु जी की पूजा व Shri Vishnu Chalisa का पाठ करें।
श्री विष्णु चालीसा
श्री विष्णु चालीसा | Shri Vishnu Chalisa Lyrics |
|| दोहा ||
विष्णु सुनिए विनय सेवक की चितलाय ।
कीरत कुछ वर्णन करूं दीजै ज्ञान बताय ॥
|| चालीसा ||
नमो विष्णु भगवान खरारी ।
कष्ट नशावन अखिल बिहारी ॥१॥
प्रबल जगत में शक्ति तुम्हारी ।
त्रिभुवन फैल रही उजियारी ॥२॥
सुन्दर रूप मनोहर सूरत ।
सरल स्वभाव मोहनी मूरत ॥३॥
तन पर पीताम्बर अति सोहत ।
बैजन्ती माला मन मोहत ॥४॥
शंख चक्र कर गदा विराजे ।
देखत दैत्य असुर दल भाजे ॥५॥
सत्य धर्म मद लोभ न गाजे ।
काम क्रोध मद लोभ न छाजे ॥६॥
सन्तभक्त सज्जन मनरंजन ।
दनुज असुर दुष्टन दल गंजन ॥७॥
सुख उपजाय कष्ट सब भंजन ।
दोष मिटाय करत जन सज्जन ॥८॥
पाप काट भव सिन्धु उतारण ।
कष्ट नाशकर भक्त उबारण ॥९॥
करत अनेक रूप प्रभु धारण ।
केवल आप भक्ति के कारण ॥१०॥
धरणि धेनु बन तुमहिं पुकारा ।
तब तुम रूप राम का धारा ॥११॥
भार उतार असुर दल मारा ।
रावण आदिक को संहारा ॥१२॥
आप वाराह रूप बनाया ।
हिरण्याक्ष को मार गिराया ॥१३॥
धर मत्स्य तन सिन्धु बनाया ।
चौदह रतनन को निकलाया ॥१४॥
अमिलख असुरन द्वन्द मचाया ।
रूप मोहनी आप दिखाया ॥१५॥
देवन को अमृत पान कराया ।
असुरन को छवि से बहलाया ॥१६॥
कूर्म रूप धर सिन्धु मझाया ।
मन्द्राचल गिरि तुरत उठाया ॥१७॥
शंकर का तुम फन्द छुड़ाया ।
भस्मासुर को रूप दिखाया ॥१८॥
वेदन को जब असुर डुबाया ।
कर प्रबन्ध उन्हें ढुढवाया ॥१९॥
मोहित बनकर खलहि नचाया ।
उसही कर से भस्म कराया ॥२०॥
असुर जलन्धर अति बलदाई ।
शंकर से उन कीन्ह लड़ाई ॥२१॥
हार पार शिव सकल बनाई ।
कीन सती से छल खल जाई ॥२२॥
सुमिरन कीन तुम्हें शिवरानी ।
बतलाई सब विपत कहानी ॥२३॥
तब तुम बने मुनीश्वर ज्ञानी ।
वृन्दा की सब सुरति भुलानी ॥२४॥
देखत तीन दनुज शैतानी ।
वृन्दा आय तुम्हें लपटानी ॥२५॥
हो स्पर्श धर्म क्षति मानी ।
हना असुर उर शिव शैतानी ॥२६॥
तुमने ध्रुव प्रहलाद उबारे ।
हिरणाकुश आदिक खल मारे ॥२७॥
गणिका और अजामिल तारे ।
बहुत भक्त भव सिन्धु उतारे ॥२८॥
हरहु सकल संताप हमारे ।
कृपा करहु हरि सिरजन हारे ॥२९॥
देखहुं मैं निज दरश तुम्हारे ।
दीन बन्धु भक्तन हितकारे ॥३०॥
चाहता आपका सेवक दर्शन ।
करहु दया अपनी मधुसूदन ॥३१॥
जानूं नहीं योग्य जब पूजन ।
होय यज्ञ स्तुति अनुमोदन ॥३२॥
शीलदया सन्तोष सुलक्षण ।
विदित नहीं व्रतबोध विलक्षण ॥३३॥
करहुं आपका किस विधि पूजन ।
कुमति विलोक होत दुख भीषण ॥३४॥
करहुं प्रणाम कौन विधिसुमिरण ।
कौन भांति मैं करहु समर्पण ॥३५॥
सुर मुनि करत सदा सेवकाई ।
हर्षित रहत परम गति पाई ॥३६॥
दीन दुखिन पर सदा सहाई ।
निज जन जान लेव अपनाई ॥३७॥
पाप दोष संताप नशाओ ।
भव बन्धन से मुक्त कराओ ॥३८॥
सुत सम्पति दे सुख उपजाओ ।
निज चरनन का दास बनाओ ॥३९॥
निगम सदा ये विनय सुनावै ।
पढ़ै सुनै सो जन सुख पावै ॥४०॥
॥ श्रीहरि भगवान विष्णु जी ॥
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