शुक्राचार्य को मृत संजीवनी की प्राप्ति "बाणासुर आख्यान" बाणासुर को शाप व उषा चरित्र

शुक्राचार्य को मृत संजीवनी की प्राप्ति

सनत्कुमार जी बोले- हे व्यास जी ! अब मैं आपको यह बताता हूं कि दैत्यगुरु शुक्राचार्य को भगवान शिव से मृत्युंजय नामक मृत्यु को जीत लेने वाली उत्तम विद्या कैसे प्राप्त हुई ? एक बार की बात है, शुक्राचार्य वाराणसी नामक नगरी में जाकर भगवान विश्वनाथ का ध्यान करते हुए उनकी घोर तपस्या करने लगे। इससे पूर्व उन्होंने वहां भगवान शिव के शिवलिंग की स्थापना की तथा वहां एक रमणीक कुआं भी खुदवाया। तत्पश्चात उसमें शिवलिंग को बत्तीस सेर पंचामृत से एक लाख बार अभिषेक कराने के बाद सुंदर सुगंधित द्रव्यों से स्नान कराकर उस अमृतमय ज्योर्तिलिंग की स्थापना की। फिर शिवलिंग पर चंदन और यक्षकर्दम का लेप किया। राजचंपक, धतूर, कनेर, कमल, मालती, कर्णिकार, कदंब, मौलसिरी, उत्पल, मल्लिका (चमेली), शतपत्री, ढाक, सिंधुवार, बंधूकपुष्प, पुनांग, नागकेसर, केसर, नवमल्लिक, रक्तदला, कुंद मोतिया, मंदार, बिल्व पत्र, गूमा, मरुआ, वृक, गठिवन, दौना, आम के पत्ते, तुलसी, देवजवासा, बृहत्पत्री, नांदरुख, अगस्त्य, साल, देवदारू, कचनार, कुरबक और कुरंतक के फूलों और अनेक प्रकार के पल्लवों से भगवान शिव की विधिवत पूजा-अर्चना की। भगवान शिव के सहस्र नामों का जाप कर उनकी स्तुति की। इस प्रकार दैत्य गुरु शुक्राचार्य पांच हजार वर्षों तक अनेक प्रकार एवं विधि-विधान से शिवजी का पूजन करते रहे परंतु जब भगवान शिव फिर भी प्रसन्न न हुए तो शुक्राचार्य ने और घोर तपस्या करने का निश्चय किया। तब उन्होंने इंद्रियों की चंचलता को दूर करने के लिए उसे भावना रूपी जल से प्रक्षालित किया और पुनः शिवजी की घोर तपस्या करने लगे। इस प्रकार एक सहस्र वर्ष बीत गए। तब भृगुनंदन शुक्राचार्य की दृढ़तापूर्वक की गई उत्तम तपस्या को देखकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हो गए और उन्होंने अपने प्रकाशमय रूप के साक्षात दर्शन शुक्र को देने का निश्चय किया। पिनाकधारी भगवान शिव शुक्राचार्य द्वारा स्थापित किए गए शिवलिंग में से प्रकट हो गए और बोले—हे भृगुनंदन ! महामुने! मैं आपकी इस घोर तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। आप अपना इच्छित वर मुझसे मांग सकते हो। आपकी प्रत्येक इच्छा मैं अवश्य पूरी करूंगा।

मांगो क्या मांगना चाहते हो? भगवान शिव के इस प्रकार के उत्तम वचनों को सुनकर शुक्राचार्य ने देवाधिदेव भगवान शिव को प्रणाम किया और सिर झुकाकर अंजलि बांधकर जय जय का उच्चारण करते हुए भगवान शिव की बहुत स्तुति की और शिवजी के चरणों में ही लेट गए। तब भगवान शिव ने उन्हें अपने चरणों से ऊपर उठाया और अपने हृदय से लगा लिया। तब भगवान शिव बोले- हे शुक्र! आपने जो यह मेरा ज्योर्तिलिंग स्थापित किया है और इसकी नियमपूर्वक कठिन आराधना की है, इससे मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। कहो क्या मांगना चाहते हो? देवाधिदेव महादेव जी के वचन सुनकर शुक्र पुनः उनकी स्तुति करने लगे। तब भगवान शिव ने देखा कि शुक्राचार्य कुछ नहीं मांग रहे हैं। भगवान शिव, जो कि सबके हृदयों की बात जानते हैं, संसार की कोई वस्तु उनसे न तो कभी छिपी है और न कभी छिप सकती है, मुस्कुरा कर बोले- हे भृगुनंदन! हे महातपस्वी शुक्र ! आप निश्चय ही मेरे परम भक्त हैं। आपने इस पवित्र काशी नगरी में मेरे ज्योर्तिलिंग की स्थापना करके उत्तम मन से भक्तिमय आराधना की है। जिस प्रकार एक पुत्र अपने पिता का आदर एवं पूजन करता है, तुमने उससे भी बढ़कर कार्य किया है। अतः मैं तुम्हें यह वरदान देता हूं कि तुम अपने इसी रूप में मेरे उदर में प्रवेश करोगे तथा मेरे इंद्रिय मार्ग से निकलकर मेरे पुत्र के रूप में जन्म ग्रहण करोगे । तुम्हें मैं अपनी मृत संजीवनी नामक विद्या भी प्रदान करता हूं जिसे मैंने अपने तपोबल द्वारा रचा है। तुम्हारे अंदर तप की अनमोल निधि है, जो कि तुम्हारी योग्यता है। इस विद्या का प्रयोग तुम जिस मृत जीव पर भी करोगे, वह निश्चय ही जी उठेगा। तुम आसमान में चमकते हुए तारे के रूप में स्थित होगे और सभी ग्रहों में प्रधान माने जाओगे। जब तुम्हारा उदय होगा वह समय अति शुभ माना जाएगा और उसमें विवाह एवं सभी धर्मकार्य किए जा सकेंगे। सभी नंदा (प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी तिथियां अत्यंत शुभ मानी जाएंगी। तुम्हारे द्वारा स्थापित किया गया यह ज्योर्तिलिंग, इस संसार में तुम्हारे ही नाम अर्थात 'शुक्रेश' नाम से विख्यात होगा। जो मनुष्य श्रद्धा और उत्तम भक्ति भाव से इसकी पूजा- अर्चना करेंगे, उन्हें सिद्धि की प्राप्ति होगी। जो मनुष्य पूरे वर्ष शुक्रवार के दिन शुक्रताल में स्नान कर 'शुक्रेश' लिंग की अर्चना करेंगे, वे सौभाग्यशाली होंगे और उन्हें पुत्र की प्राप्ति होगी। । यह कहकर, देवाधिदेव महादेव उसी ज्योर्तिलिंग में समा गए। तत्पश्चात दैत्यगुरु प्रसन्न मन से अपने धाम को चले गए।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड)  पचासवां अध्याय  समाप्त

बाणासुर आख्यान

व्यास जी बोले- हे सनत्कुमार जी ! अब आप मुझे बाणासुर को शिवजी द्वारा अपना गण बनाने की कथा सुनाइए। तब व्यास जी की इच्छा पूरी करने हेतु सनत्कुमार जी ने कहना आरंभ किया। वे बोले-हे महामुने! जैसा कि आप जानते ही हैं कि ब्रह्माजी के ज्येष्ठ पुत्र मरीचि हैं और उनके पुत्र महामुनि कश्यप भी ब्रह्माजी के परम भक्त थे। उन कश्यप मुनि की तेरह सुंदर और सुशील कन्याएं हुईं, जिसमें सबसे बड़ी का नाम दिति था। दिति के ही बड़े पुत्र का नाम हिरण्यकशिपु और छोटे पुत्र का नाम हिरण्याक्ष था। दिति के दोनों ही पुत्र महाबली, वीर और पराक्रमी थे। हिरण्यकशिपु को विवाह के उपरांत ब्याहाद, अनुब्हाद, सब्हाद और प्रह्लाद नामक चार पुत्र प्राप्त हुए। उनमें सबसे छोटा प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था, जिसको कोई भी दैत्य पराजित नहीं कर सका था। उसी का पुत्र विरोचना बहुत बड़ा दानी था। उसने देवराज इंद्र को दान में अपना सिर काटकर दे दिया था। उसका पुत्र बलि भी महान दानी और भगवान शिव का परम भक्त था । बलि ने वामनरूप धारण कर आए भगवान विष्णु को अपनी सारी भूमि दान में दे दी थी। बलि का पुत्र औरस भी भगवान शिव का परम भक्त था। वह उदार, बुद्धिमान, सत्यनिष्ठ और दानी था। उस असुर ने अनेकों राज्यों को जीतकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। यही नहीं, उसने त्रिलोक के अधिपतियों पर भी बलपूर्वक अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। उसने अपनी राजधारी शोणितपुर में बनाई थी। वही औरस, जो कि महाराज बलि का पुत्र था, बाणासुर नाम से विख्यात हुआ था। उसके राज्य में सारी प्रजा खुश थी, परंतु देवताओं का वह घोर शत्रु था। एक बार बाणासुर अपनी हजारों भुजाओं से ताली बजाकर और ताण्डव नृत्य करके भगवान शिव को प्रसन्न करने की कोशिश करने लगा। भगवान शिव उसके नृत्य से प्रसन्न हो गए और उसके सामने प्रकट हो गए। उन्हें साक्षात अपने सामने पाकर बाणासुर प्रसन्नतापूर्वक महादेव को प्रणाम कर बोला - हे देवाधिदेव ! हे करुणानिधान! भक्तवत्सल शिव! आप मेरे राज्य के रक्षक हो जाइए। आप सदा अपने परिवार एवं गणों सहित मेरे नगर के अध्यक्ष बनकर प्रसन्नतापूर्वक यहां निवास करें। तब बाणासुर द्वारा मांगे गए वरदान को देते हुए परम ऐश्वर्य संपन्न भक्तवत्सल भगवान शिव ने अपने परिवार एवं गणों सहित बाणासुर के नगर में आना स्वीकार किया। तत्पश्चात भगवान शिव वहां निवास करने लगे। जब बाणासुर ने यह जाना तो वह ताण्डव नृत्य द्वारा उन्हें प्रसन्न करने लगा। तत्पश्चात उनकी स्तुति करने लगा और बोला- हे देवाधिदेव महादेव! आप सब देवताओं में शिरोमणि हैं। आपकी कृपादृष्टि पाकर ही मैं बली हुआ हूं। आपने ही मुझे हजार भुजाएं प्रदान की हैं। भगवन्! आप धन्य हैं। आप सदा ही अपने भक्तों पर कृपादृष्टि रखते हैं और उनके दुखों को दूर करते हैं।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) इक्यावनवां अध्याय  समाप्त

बाणासुर को शाप व उषा चरित्र

सनत्कुमार जी बोले- महामुने! एक समय दैत्यराज बाणासुर ने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को ताण्डव नृत्य द्वारा प्रसन्न किया। उसकी भक्तिभावना से शिवजी बहुत संतुष्ट हुए। थे। तब उसने हाथ जोड़कर शिवजी की स्तुति करनी आरंभ की। वह बोला- है महेश्वर ! आपके आशीर्वाद से ही मैं इतना बलवान हुआ हूं। आपने मुझे एक हजार भुजाएं दी हैं, परंतु भगवन् मैं इनका क्या करूं? इन हजार भुजाओं का प्रयोग तो सिर्फ मैं युद्ध में ही कर सकता हूं। बिना युद्ध के इनका मैं क्या करूं? युद्ध किए बिना मेरे हाथों में सिर्फ खुजली होती रहती है। और जब मैं अपनी इस खुजली को मिटाने के लिए बड़े-बड़े योद्धाओं और दिग्गजों से युद्ध करने के लिए उनके पास जाता हूं तो वे मारे डर के भाग जाते हैं। जब मैंने पर्वतों को मसलकर अपनी खुजली को शांत करना चाहा तो उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया। मैंने यम, कुबेर, देवराज इंद्र, वरुण, नैऋति आदि सभी देवताओं को जीत लिया है। अतः भगवन्, अब मुझे कोई ऐसा महावीर बली और पराक्रमी शत्रु बताइए, जिससे युद्ध करके मेरी इन हजारों भुजाओं की खुजली शांत हो जाए। दैत्यराज बाणासुर के ऐसे अहंकार भरे वचनों को सुनकर भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हुए और बोले—ओ अहंकारी दैत्य! तू बड़ा ही मूर्ख और अभिमानी है। तुझे धिक्कार है। मेरे परम भक्त और महादानी बलि का पुत्र होकर भी तुझमें इतना इंकार व्याप्त है। अहंकार और अभिमान मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है और उसे सदा ही पतन की ओर ले जाता है। तुझे भी अब अहंकार और अभिमान ने घेर लिया है। इसलिए अब तेरा पतन भी निश्चित है। अब तुझे कोई भी नहीं बचा सकता । निश्चय ही तेरा सामना अतिशीघ्र ऐसे वीर और पराक्रमी से होगा, जो तेरी इन गर्वीली भुजाओं को मदार की लकड़ी के समान पलभर में काटकर फेंक देगा। तेरे शस्त्रागार में वायु का भयानक उत्पात होगा। भगवान शिव के क्रोध भरे वचनों को सुनकर भी मदांध बाणासुर पर कोई असर नहीं पड़ा। कहते हैं न कि जब विनाश का समय आता है तो बुद्धि विपरीत सोचना शुरू कर देती है। इसलिए बाणासुर को युद्ध के निकट आने का समाचार सुनकर अति प्रसन्नता हुई। उसने सुंदर-सुगंधित पुष्पों से भगवान शिव की आराधना की और पुनः अपने महल में वापस आ गया। तत्पश्चात बाणासुर प्रसन्न मन से उस युद्ध की प्रतीक्षा करने लगा और मन में यही सोचने लगा कि भला मुझसे ज्यादा वीर पारंगत योद्धा और कौन हो सकता है, जो मेरे सामने टिक सके और मेरी बलशाली भुजाओं को लकड़ी के समान काटकर फेंक सके। बाणासुर अपनी इन्हीं बातों में उलझा रहता था। दूसरी ओर, बाणासुर नामक दैत्य की एक अति सुंदर एवं गुणवान कन्या थी, जिसका नाम उषा था। उषा भगवान श्रीहरि विष्णु की परम भक्त थी। एक दिन उषा वैशाख मास में शृंगार से सुसज्जित हो रात्रि को विष्णु भगवान की पूजा-अर्चना करने के पश्चात अपने कक्ष में विश्राम कर रही थी। तब उसे देवी पार्वती की शक्ति के फलस्वरूप सपने में भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के दर्शन हुए। तब दिव्य माया के वशीभूत उषा को अनिरुद्ध को देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई और मन में ही वह उन्हें हृदय दे बैठी। जब सुबह वह जागी तो उसे उसी सुदर्शन युवक का स्मरण हो आया और वह उसके ध्यान में ही खो गई। जब उषा इस प्रकार से सपने में दिखाई दिए उस सुंदर युवक के ध्यान में खोई हुई थी, उसी समय उषा की प्रिय सखी चित्रलेखा उसके कक्ष में आई और अपनी सखी की ऐसी स्थिति देखकर उसने इस बारे में पूछा। तब उषा ने सारी बातें उसे बता दीं और कहा कि तुम्हें उस युवक को कहीं से भी ढूंढकर मेरे पास लाना है। यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं अपने शरीर का त्याग कर दूंगी। अपनी प्रिय सखी उषा के ऐसे वचन सुनकर चित्रलेखा को बहुत दुख हुआ और वह बोली - सखी! ऐसी बातें मत कहो। भला तुम ही बताओ, मैं उस पुरुष को कहां से लेकर आ सकती हूं, जिसे मैंने कभी देखा नहीं है और जिसके बारे में मैं कुछ जानती भी नहीं हूं। पहले तुम मुझे बताओ कि वह है कौन और कैसा दिखता है। तभी मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं। सखी! मैं तुमसे वादा करती हूं कि वह पुरुष जहां भी होगा, मैं उसका अपहरण करके तुम्हारे पास ले आऊंगी और तुम्हें खुशी देने की कोशिश करूंगी। अपनी सहेली चित्रलेखा की बातें सुनकर उषा को बहुत संतोष हुआ। तब चित्रलेखा ने वस्त्र के परदे पर अनेक देवताओं, दैत्यों, दानवों, गंधव, सिद्धों, नागों और यक्षों के चित्र बना-बनाकर उषा को दिखाए परंतु उषा ने सबके लिए मना कर दिया। तब चित्रलेखा ने मनुष्यों के चित्र बनाने शुरू किए। उसने शूर, वसुदेव, राम, कृष्ण और अनेकों पुरुषों के चित्र बना दिए परंतु उषा ने हां नहीं कहा। तब चित्रलेखा ने नरश्रेष्ठ प्रद्युम्ननंदन अनिरुद्ध का चित्र उकेरा, जिसे देखकर उषा का सिर लज्जा से आवर्त हो गया और उसके चेहरे पर लाली छा गई, वह खुशी से झूम उठी। उषा बोली- हे प्रिय चित्रलेखा ! रात को जिसने मेरे स्वप्न में आकर मेरे मन को चुराया है वह यही है। मुझे इनसे मिलना है, तुम इन्हें अतिशीघ्र मेरे पास ले आओ वरना मुझे चैन नहीं आएगा। अपनी प्रिय सखी उषा के अनुरोध पर चित्रलेखा ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी की रात को द्वारका नगरी गई और वहां राजमहल से अनिरुद्ध को ले आई। अनिरुद्ध को सामने पाकर उषा हर्ष से फूली न समाई और तुरंत उसके गले से लग गई। जब इस प्रकार देवी उषा ने अपने प्रियतम अनिरुद्ध को साक्षात अपने सामने पाया तो वह खुशी से झूम उठी और उनके गले से लग गई। तब उनके कक्ष के बाहर तैनात द्वारपालों ने अंदर झांका और उषा-अनिरुद्ध को इस प्रकार देखकर उन्होंने इसकी शिकायत दैत्यराज बाणासुर से की। द्वारपाल बोले- महाराज! आपकी कन्या के अंतःपुर में एक पुरुष घुस आया है और वह आपकी कन्या से प्रेमालाप कर रहा है। महाराज! आप वहां चलिए और देखिए कि वह कौन है? आपकी आज्ञा होने पर ही हम सब मिलकर उसे उसकी धृष्टता का दण्ड देंगे। इस प्रकार द्वारपालों से अपनी कन्या के विषय में सुनकर दैत्यराज बाणासुर कोबहुत क्रोध आया और उसे आश्चर्य भी हुआ। वह तत्काल उनके साथ चलने को तैयार हो गया। 
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) बावनवां अध्याय  समाप्त

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