सुंदरकांड चौपाई अर्थ सहित

सुंदरकांड चौपाई अर्थ सहित Sunderkand Chaupai with meaning

जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई।। 1
चौपाई रचना का अर्थ
जामवंत के वचनों ने भगवान राम को बहुत आनंदित किया। हनुमान ने उन वचनों को सुनकर अपने हृदय में अत्यंत प्रसन्नता महसूस की।
तब उसने राजा जामवंत से कहा, "आप मेरे भाई हैं, इसलिए मुझे आप पर पूरा विश्वास है। कृपया मेरे दुखों का समाधान करें और मुझे सही मार्ग दिखाएं, ताकि मैं दुख के मूल को नष्ट कर सकूं और फल को प्राप्त कर सकूं।"
इस चौपाई में, तुलसीदास जी भगवान हनुमान के माध्यम से भक्तों को उपदेश देने का सन्देश दे रहे हैं। हनुमान के भक्त जामवंत के वचनों को सुनकर आनंदित हो रहे हैं और वह राजा से सहायता के लिए प्रार्थना कर रहे हैं। यह चौपाई भक्ति और विश्वास के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को सार्थक रूप से व्यक्त करती है।
जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी।।
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा। चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा।।2
इस चौपाई का अर्थ
"जब तक मैं माता सीता को नहीं देखूंगा, तब तक मेरा कार्य संपन्न नहीं होगा और मैं अत्यंत हर्षित रहूंगा। सभी से मैं सिर झुकाकर कहूंगा और रघुनाथ श्रीराम की कृपा से हर्षित होकर आगे बढ़ूंगा।"
इस चौपाई में हनुमान जी अपनी प्रतिबद्धता और समर्पण का अभिवादन कर रहे हैं। उनका मूल उद्देश्य है सीता माता को देखना और उनके प्रभाव में रघुनाथ श्रीराम की सेवा करना। हनुमान जी यहां अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आशीर्वाद प्राप्त करने की प्रार्थना कर रहे हैं और इसके लिए हर्षित हैं।
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।।
बार बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी।। 3
इस चौपाई का अर्थ
"सिंधु तीर पर एक सुंदर भूधर है, जिस पर खेलने का आनंद है। उस पर उछलकर ऊपर चढ़ने का भी आनंद है। रघुकुल श्रीराम ने बार-बार इस भूधरे को संभाला है, और हनुमान, पवनपुत्र बली, ने उसे भारी किया है।"
इस चौपाई में तुलसीदास जी श्रीराम और हनुमान की महागुणों की महिमा का वर्णन कर रहे हैं। सिंधु तीर का भूधर सुंदर और कौतुक से भरपूर है, और उस पर ऊपर चढ़ना एक आनंददायक अनुभव है। इसी तरह, श्रीराम और हनुमान के संबंध को उदाहरण के रूप में लेकर रघुकुल श्रीराम ने हनुमान को बार-बार संभाला है और हनुमान ने अपने बल से उसे सहारा दिया है।
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता।।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना।। 4
इस चौपाई का अर्थ
"हनुमान जी वहाँ पहुंचे, जहां गिरिराज हनुमान के पादों को छूते हैं। वह तुरंत पाताल की ओर चले गए। जैसे अमोघ रघुपति श्रीराम ने बाण चलाया, उसी भाँति हनुमान भी आगे बढ़े।"
इस चौपाई में हनुमान जी की अद्वितीय शक्ति और सेवा भावना का वर्णन है। हनुमान जी गिरिराज, हनुमान के प्रिय पर्वत, के चरणों को छूने का अवसर प्राप्त करते हैं और उसके बाद वे पाताल की ओर अग्रसर होते हैं। इसमें हनुमान जी की अद्भुत शक्ति, भक्ति, और समर्पण का प्रतीक है।
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रमहारी।। 5
इस चौपाई का अर्थ
"रघुकुल श्रीराम के दूत हनुमान, जल से उत्पन्न होने वाली मैनाक (मत्स्य) की भाँति हैं। उन्हें श्रम सहने में भी आनंद मिलता है।"
इस चौपाई में हनुमान जी को रघुकुल श्रीराम के दूत के रूप में वर्णित किया गया है। उन्हें जल से उत्पन्न होने वाली मैनाक (मत्स्य, जल में रहने वाला प्राणी) की तुलना की गई है, जो जल में रहते हुए भी श्रम सहने में आनंदित होता है। हनुमान जी का समर्पण और उनकी सेवा भावना का महत्वपूर्ण संकेत इस चौपाई में दिखाया गया है।
चौपाई
जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा।।
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।। 6
इस चौपाई का अर्थ
"पवनपुत्र हनुमान जी ने उस दिन देवताओं को देखा। उन्होंने उनकी शक्ति, बुद्धि और विशेष गुणों को जाना। उसी समय एक नामक सुरसा नामक राक्षसी आई, जो उनके माता के रूप में थी, और उनसे वार्ता की।"
इस चौपाई में हनुमान जी के माता के साथ हुए संवाद का वर्णन है। हनुमान जी ने अपनी भलाइयों, बल, बुद्धि, और विशेष गुणों को बताया और उसी समय राक्षसी सुरसा नामक माता ने उनसे मिलकर वार्ता की।
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा।।
राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं।। 7
इस चौपाई का अर्थ
"आज मैंने सुरासुरों द्वारा मुझे दीननाथ के रूप में भोजन दिया है। पवनकुमार, श्रीराम के पुत्र, इसकी कथा सुनते हैं और मुझसे बोलते हैं। अब मैं श्रीराम के कार्य को पूरा करने के लिए वापस जा रहा हूं। मैं प्रभु से मिलकर सीता का सुधार करूंगा और उनकी कथा सुनाऊंगा।"
तब तव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई।।
कबनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना।।
इस चौपाई का अर्थ
"तब मैंने तुम्हारे चरणों में शीघ्र होकर आशीर्वाद प्राप्त किया। माता, मैं सत्य कहता हूँ, मुझे अपना शरणागत बता दो। मैंने कितनी बार से तुम्हें याद करने का प्रयास किया है, पर मेरा प्रयत्न फलित नहीं हो रहा है। हे हनुमान, मुझे न तो तुम्हारा विचार करना है, न तुमसे कुछ कहना है।"
इस चौपाई में सीता माता अपने पीड़ानिवृत्ति और बेहद उदार भावना का अभिव्यक्ति कर रही हैं। उनका कहना है कि उन्होंने हनुमान को बहुत बार से योग्यता दिखाई, परंतु अब उन्हें उससे आशा नहीं है। इससे हम देखते हैं कि सीता माता की प्रतिश्रद्धा और सभी परिस्थितियों में उनकी निष्ठा अद्भुत हैं।
जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा।।
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।। 8
इस चौपाई का अर्थ
"हनुमान ने जो जंगल में अपने बड़े शरीर को फैला दिया, वहां कपि शरीर को दुगुना बड़ा कर लिया। उनका मुख उस जंगल में सोरह योजन (हजारों मील) तक फैल गया। इस प्रकार पवनपुत्र बत्तीस योजन तक विकसित हो गए।"
इस चौपाई में हनुमान जी की अद्भुत विकासशीलता और उनके अद्वितीय शक्ति का वर्णन किया गया है। हनुमान जी ने अपने शरीर को जंगल में फैला दिया, और उससे उनका शरीर दुगुना और मुख भी बहुत बड़ा हो गया। इससे स्पष्ट होता है कि हनुमान जी की अद्भुत शक्ति और वीरता को कैसे वर्णित किया जा रहा है।
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा।।
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।। 9
इस चौपाई का अर्थ
"सुरसा ने जैसे-जैसे हनुमान की बड़ाई की, वैसे-वैसे हनुमान ने उसे देवता स्वरूप में दिखाया। हनुमान ने उससे सत योजन (सत्रह हजार मील) तक का अनुभव किया, लेकिन उन्होंने अपना रूप बहुत ही लघु में लिया।"
इस चौपाई में हनुमान जी का वीरता और सुरसा के सामर्थ्य का वर्णन है। हनुमान ने सुरसा के समर्थन से अपना विशाल रूप प्रकट किया, लेकिन उन्होंने उस अनुभव में भी अपने को बहुत ही लघु रूप में स्थान दिया। इससे हम देख सकते हैं कि हनुमान जी की विविधता, समर्पण, और वीरता का सशक्त उदाहरण है।
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा।।
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मै पावा।। 10
इस चौपाई का अर्थ
"बदन को फिर से पलटकर बाहर निकल आओ, उनका सिर नाम भी मांगना। मेरे पास उस शक्ति को भेजो, जिसके लिए मुझे राक्षसों से लड़ना है, ताकि मैं बुद्धि, बल, और रहस्य तक प्राप्त कर सकूं।"
इस चौपाई में हनुमान जी फिर से लंका के भीतर घुसने के लिए तैयार हो रहे हैं और रावण से अपने सिर की मांग कर रहे हैं। उन्होंने अपने असली शक्तियों का सही उपयोग करने के लिए बुद्धि, बल, और रहस्य का सार प्राप्त करने का इरादा किया है। इससे हम देख सकते हैं कि हनुमान जी का निर्णय और संकल्प किसी भी परिस्थिति में मजबूत है।
निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई।।
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।। 11
इस चौपाई का अर्थ
"निसाचरों (राक्षसों) की एक समृद्धि सिंधु (समुद्र) में रहती है, वह मायाओं के साथ नभ में उड़ने वाले पंछी की भाँति है। वे जीव-जंतु जो आकाश में उड़ते हैं, उन्हें जल को देखकर ही पहचाना जा सकता है।"
इस चौपाई में तुलसीदास जी ने राक्षसों की अधिकता को सिंधु (समुद्र) के साथ की तुलना करके व्यक्त किया है। उन्होंने राक्षसों की आकाश में चरणे वाले पंछी के साथ तुलना की है और इसके माध्यम से मायाओं और उनके शक्तियों का सुरक्षित तात्पर्य निरूपित किया है।

टिप्पणियाँ