सुंदरकांड के दोहे 46-60 (दोहा का अर्थ है )

सुंदरकांड के दोहे 46-60 Couplets 46-60 of Sunderkand

सुन्दर काण्ड में 1 श्लोक, 60 दोहा,  1 सोरठा,  3 छंद एवं 60 चौपाई हैं। दोहे अर्थ सहित 46-60 हैसुन्दर काण्ड में 1 श्लोक, 60 दोहा,  1 सोरठा,  3 छंद एवं 60 चौपाई हैं। दोहे अर्थ सहित 46-60 है 
दोहा 
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम।।46।।
46 दोहा का अर्थ है
"जब तक भक्ति में रहकर भगवान राम की उपासना की जा रही है, तब तक भक्त को स्वप्नों में भी सुख मिलता है और मन को विश्राम मिलता है। लेकिन जब भक्ति में ध्यान नहीं रहता और राम की उपासना नहीं करता, तो सारा सुख और कामनाओं का त्याग कर देना चाहिए।"
इस दोहे में भक्ति को सबसे महत्वपूर्ण मानकर उसकी आवश्यकता को बताया गया है। भक्ति के माध्यम से ही व्यक्ति को शान्ति, सुख, और मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।
दोहा 
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिब सेब्य जुगल पद कंज।।47।।
47 दोहा का अर्थ है
"हे अहोभाग्य (अद्भुत भाग्यशाली) मैं! मेरे लिए अमित और अत्यन्त धन्य है भगवान श्रीराम की कृपा का सुख सागर। आप बिरंचि और सिब सेब्य (सोना और चाँदी) को देखते हैं, लेकिन मैं दोनों जगल पद कंज (श्रीराम के पादों की छाया) को देखता हूँ।"
इस दोहे में तुलसीदासजी भगवान श्रीराम की कृपा की अद्वितीयता को बताते हैं और उनकी कृपा को सबसे बड़ा सुख मानते हैं। उनके चरणों की छाया ही सबसे उच्च और पूर्ण सुख है, जो भक्त को मोक्ष की प्राप्ति कराती है।
दोहा 
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम।।48।।
48 दोहा का अर्थ है
"सगुण उपासक, परहित निरत, नीति-दृढ़, और नेम में स्थित व्यक्ति वे हैं, जिनका प्राण समान हैं और जो द्विज (ब्राह्मण) पद में प्रेम रखते हैं।"
इस दोहे में तुलसीदासजी ने सागुन उपासक की विशेषताएं वर्णित की हैं। एक अच्छा भक्त दृढ़ नैतिकता, परहित के प्रति निरंतर समर्थन, और धार्मिकता की प्रेरणा रखता है। उसका प्रेम सभी प्राणियों और दिव्यता के प्रति समान होता है। इस प्रकार, वह द्विज पद (ब्राह्मण की पदवी) के प्रति समर्पित रहता है।
दोहा 
रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेहु राजु अखंड।।49(क)।।
49(क) दोहा का अर्थ है
"रावण का क्रोध तेजस्वी अग्नि की भाँति अपने स्वास से प्रचंड होता था, जबकि बिभीषण ने अपने श्वास से उसे बुझा दिया था। इस प्रकार, उसने अखण्ड राज्य को बचाया।"
इस दोहे में तुलसीदासजी हनुमान की शक्ति और प्रभावशीलता को बता रहे हैं। हनुमान ने रावण की बहुत तेजस्वी अग्नि को बुझा दिया, जो रावण का अहंकार और क्रोध था। इसके परिणामस्वरूप, बिभीषण को राज्य मिला और उसने राज्य को सुरक्षित रखा।
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ।।49(ख)।
49(ख) दोहा का अर्थ है
"वह संपत्ति जो सीता जी ने रावण को दी थी, वही संपत्ति बिभीषण को स्वीकार की गई, लेकिन उसने सकुचि भी दी थी, क्योंकि वह रघुनाथ (श्रीराम) की सेवा में समर्पित था।"
इस दोहे में बिभीषण की विवेकी और भक्तिपूर्ण भावना को दर्शाया गया है। सीता जी की संपत्ति बिभीषण को मिली, लेकिन उसने सीता जी के परमानंद में रघुनाथ (श्रीराम) की सेवा को अधिक महत्वपूर्ण माना। इससे स्पष्ट होता है कि विवेकी भक्त किसी भी सामर्थ्य या सुख की मानक पर नहीं जाता, बल्कि उसकी प्राथमिकता भगवान की सेवा में होती है।
दोहा 
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि।।50।।
50 दोहा का अर्थ है

"प्रभु, तुम्हारे कुलगुरु हनुमान जी ने समुद्र को तारने के लिए एक साधना प्रस्तुत की है, जिसे बिना किए सागर तार सकते हैं और सभी भालु और कपि इसे धारण कर सकते हैं।"
इस दोहे में हनुमान जी को कुलगुरु के रूप में प्रशंसा की गई है, जो एक प्रवीण साधक और वीर भक्त थे। उन्होंने अपनी अद्वितीय भक्ति, बुद्धिमत्ता, और अपने आदर्श सेवाभाव से प्रमुख कुशल उपाय को प्रस्तुत किया जिससे सीता माता को लाने का कार्य संपन्न हुआ।
दोहा 
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह।।51।।
51 दोहा का अर्थ है

"सम्पूर्ण चरित्र को देखकर जो व्यक्ति भ्रांति नहीं रखता और कपि देह को छोड़कर प्रभु के गुणों की हृदय से प्रशंसा करता है, वह सच्चा सरनागत और प्रभु पर निरंतर प्रेमी है।"
यहां तुलसीदासजी चरित्र को सत्य और ईमानदारी से पढ़ने की महत्वपूर्णता को बता रहे हैं। उन्होंने आगे बढ़कर यह कहा है कि जो व्यक्ति राम चरित्र को सही रूप से पढ़ता है और समझता है, वह प्रभु के गुणों की सच्ची प्रशंसा करता है और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के प्रति अपने हृदय में प्रेम रखता है।
दोहा 
कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलेहु न त आवा काल तुम्हार।।52।।
52 दोहा का अर्थ है

"मैं मूढ़ हूँ और मेरा मन उदार है, इसलिए मैं तुमसे निवेदन करता हूँ कि तुम मुखाग्र से उदारता और सुविचारित सन्देश सुनाओ। कहो, 'सीता देवी, कृपया मुझे मिलें, तुम्हारे आगमन का समय आ गया है।'"
यहां तुलसीदासजी अपने मुखाग्र से सीता जी को मिलने की अपेक्षा कर रहे हैं और इसे उदार भाषा में व्यक्त कर रहे हैं। हनुमान जी का समय बहुत अच्छा आ रहा है, और इसलिए वह जल्दी से सीता जी से मिलने का संदेश ले आएं।
दोहा 
की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर।।53।।
53 दोहा का अर्थ है

"जब हनुमान जी श्रीराम से मिलन के बाद फिर श्रवण की ओर लौटे, तो श्रीराम ने उनसे कहा कि तुम्हारी तेज, बल, और बहुत चमकीली चेतना से रहित दूसरे शत्रु सेना भी अचम्भित रही है।"
यहां तुलसीदासजी श्रीराम के मुख से निकली इस प्रशंसा के माध्यम से हनुमान जी की अद्वितीय प्रतिभा और शक्तियों की महिमा का वर्णन कर रहे हैं। हनुमान जी का तेज, बल, और चमकीली चेतना ने दूसरे सेना को भी बहुत आश्चर्यचकित कर दिया है।
दोहा 
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि।।54।।
54 दोहा का अर्थ है

"द्विबिद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद और बिकट, इन सबके साथी रामभक्त वानर, दधिमुख, केहरि, निस्ठ, सठ, जामवंत, बलराम, इन्हें भी आपकी आज्ञा और आपकी शक्ति से सजग बनाए रखें।"
यहां तुलसीदासजी वानरसेना के कुछ प्रमुख सेनापतियों का उल्लेख कर रहे हैं, जो राम के साथ युद्ध करने के लिए तैयार थे और जिन्होंने अपनी बहादुरी और सेना के साथीयों के साथ युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
दोहा 
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहु जीति सकहिं संग्राम।।55।।
55 इस दोहे का अर्थ है

"सुग्रीव, हनुमान, विभीषण, जामवंत, और शेष - इन सभी वानरों ने सहज सूरता और बल के साथ सिर पर प्रभु राम की सेवा की है। उन्होंने मिलकर रावण को शत्रुता से कहा है और उससे संग्राम में जीत प्राप्त की है।"
यह दोहा श्रीराम के भक्तों की उनकी निष्ठा, सामर्थ्य, और सामरिक क्षमता की स्तुति करती है, जो सभी को भयभीत करने में सक्षम हैं और भगवान की सेवा में समर्पित हैं।
दोहा 
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस।।56(क)।।
56 इस दोहे का अर्थ है

"विभीषण ने अपने बातों को अपने मन में रखकर सच्ची निश्चय से कुल की रक्षा की और उन्होंने राम के खिलाफ किए गए विरोध को छोड़कर उनकी शरण में आकर आत्मनिर्भरता को प्राप्त किया। उन्होंने राम के बिना किसी भी आशा को त्याग दिया, क्योंकि भगवान विष्णु हमेशा अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और उन्हें संशय और भ्रम से मुक्त करते हैं।"
विभीषण का यह निर्णय उनकी सच्ची भक्ति और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है।
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग।।56(ख)।।
56 इस दोहे का अर्थ है

"हनुमान जी ने अपने आत्मविश्वास के साथ मानवता का सेवा करते हुए भगवान राम के पादपंकजों की त्याग दी, जिससे वे पतंग की भांति आत्मा को भगवान की सेवा में लगाए रखते हैं।"
हनुमान जी को त्याग देने के पीछे उनका आत्म-समर्पण, निःस्वार्थ भाव, और वीरता है, जो उन्हें एक सच्चे भक्त के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
दोहा 
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।57।।
57 इस दोहे का अर्थ है

"रावण ने बिना विनय भाव से जलधि को मानने का नाटक किया, लेकिन तीन दिन बीत गए और फिर भगवान राम ने उन्हें कोप के साथ बोला, तब रावण को प्रेम बिना भय के नहीं हो सका।"
यह दोहा रावण की अधिकतम अधिकतमता और अभिमान की दिखाई गई दुर्भावना को प्रकट करती है, जिसके कारण उसने भगवान राम की आज्ञा को मानने की बजाय सीधे उनसे लड़ा।
दोहा 
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।58।।
58 इस दोहे का अर्थ है

"रावण ने कदरी को काट दिया और उसे कोटि जतन करने के लिए उत्तेजित किया, लेकिन उसने भीनय और समर्थन को न माना, जैसा कि हंस को खगेस डांटता है और नव को नीचा पड़ने के लिए डाटता है।"
यह दोहा रावण की घमंडी और अहंकारी नीति को दर्शाता है, जिससे उसने अपनी हानि कर ली। इससे भी सिखने को मिलता है कि अहंकार में डूबे हुए व्यक्ति कभी भी सफल नहीं हो सकते।
दोहा 
सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।।59।।
59 इस दोहे का अर्थ है 
कि जब हम भगवान से विनतीपूर्वक प्रार्थना करते हैं और उसके प्रति विशेष भावना रखते हैं, तो वह हमें अपनी कृपा से संबोधित करते हैं। इसे उपयुक्त तरीके से प्रस्तुत करने के लिए तुलसीदासजी यहां एक सुंदर उपमेय का उपयोग कर रहे हैं, जिसमें कपि कटकु का उदाहरण दिया गया है।
दोहा 
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।।60।।
60 इसका अर्थ है 
कि श्रीराम, जो समस्त सुख-दुख का दाता है और सभी सुमंगल की स्रोत है, उनकी गुण-गाथाएं गाने से भी सुख का स्रोत होता है, और उनका सुनना भव-सागर के बिना जल पाने की तरह है। तुलसीदासजी यहां राम भगवान की उच्च महिमा को स्तुति रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।

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