सुंदरकांड के दोहे

सुंदरकांड के दोहे Couplets of Sunderkand

सुन्दर काण्ड में 1 श्लोक, 60 दोहा,  1 सोरठा,  3 छंद एवं 60 चौपाई हैं। दोहे अर्थ सहित 46-60 हैसुन्दर काण्ड में 1 श्लोक, 60 दोहा,  1 सोरठा,  3 छंद एवं 60 चौपाई हैं। दोहे अर्थ सहित है 
दोहा
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिय प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति।।31।।
दोहा का अर्थ है

"हनुमानजी ने निमिष-निमिष में प्रभु की कृपा को प्राप्त करते हुए कल्प समय बिताए हैं। उन्होंने प्रभु राम की सेवा में अपने भुजा-बल से खल दलों को शीघ्र जीत लिया है।"
इस दोहे में हनुमानजी की अत्यधिक शक्ति, समर्पण, और सेवा भावना का चित्रण किया गया है। उनकी आत्मा प्रतिमिनटि प्रभु की भक्ति में समर्थ है, और वह सभी कठिनाइयों को आसानी से आत्मनिगलन करते हैं।
दोहा 
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत।।32।।
दोहा का अर्थ है
"प्रभु राम के वचनों को सुनकर हनुमानजी ने अपने मुख से हर्षित होकर गाना आरंभ किया। उनके प्रेम-भरे चरण ने प्रभु श्रीराम के प्रति प्रेमाकुलता से भरा हुआ है, और वह भगवान की कृपा से सबको तारकर उच्च स्थान की दिशा में ले जा रहे हैं।"
इस दोहे में हनुमानजी की प्रभु राम के प्रति भक्ति, प्रेम, और हर्ष की भावना को दर्शाते हुए उनकी सीताजी से मिलन के समय की आनंदभरी भावना को चित्रित किया गया है।
दोहा 
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकुल।
तब प्रभावँ बड़वानलहिं जारि सकइ खलु तूल।।33।।
दोहा का अर्थ है

"मैं तुमसे कुछ अगम बातें नहीं कह सकता, परंतु तुम मेरे पक्ष में हो, और तुम्हारी कृपा मेरे लिए अनुकूल है। इसलिए, जब तुम अनुकूल होते हो, तो तुम्हारी शक्तियों का प्रभाव बड़ जाता है, और वह शक्ति ज्वालामुखी की भाँति जलती है और खल को ताड़न करती है।"
इस दोहे में हनुमानजी की अद्वितीय शक्तियों की बात की जा रही है, जिनका प्रभाव सभी को अचरज में डाल देता है। हनुमानजी का अद्वितीय प्रभाव उनके भक्तों के लिए अज्ञेय होता है।
दोहा 
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ।।34।।
दोहा का अर्थ है

"हनुमानजी, वानरराज कपिपति, तात्पर्यपूर्णता से बहुत शीघ्र बोलकर अपने जूथ में आए। उनका रूप नाना बर्णों से युक्त है, और उनकी शक्ति, बाणों वाली भालु (भगवान हनुमान) के समान अतुल है।"
इस दोहे में हनुमानजी के रूप, शक्तियों, और योग्यताओं की महत्वपूर्णता को बताया गया है। हनुमानजी को वानरराज कपिपति कहा गया है, जो उनकी उच्च स्थानीयता और नेतृत्व को दर्शाता है।
दोहा 
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर।।35।।
दोहा का अर्थ है

"इस प्रकार, हे कृपानिधि (कृपा का सागर), इस बिधि से समुद्र के पार जाने वाला हनुमानजी बड़े भले बीर और शूरवीर की भाँति हर जगह पहुंचकर फल-फूलों का भरपूर भोजन करते हैं।"
इस दोहे में हनुमानजी की अद्वितीय शक्ति और उनका असीम सामर्थ्य प्रकट हो रहा है। उन्हें "कृपानिधि" कहकर उनकी अनगिनत कृपा और दया की गहराई को दिखाया गया है, जो समुद्र को पार करने में उनकी मदद करती है।
दोहा 
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक।।36।।
दोहा का अर्थ है

"हे हनुमानजी! तुमने रामचंद्र जी के बाणों की आवज में समुद्र के किनारे पर रहने वाले निसाचरों को डरा-हरासा किया है। जब तक उन्होंने तुम्हें नहीं ग्रस्त किया, तब तक तुमने टेक (संजीवनी बूटी) को छोड़कर जतनु की खोज की है।"
इस दोहे में हनुमानजी की महाकाव्यशृंगार रचनात्मक गुणधर्मों की महत्वपूर्णता और उनकी नीति-शास्त्र के अनुसार चालने की क्षमता को बताया गया है।
दोहा 
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।।37।।
दोहा का अर्थ है

"हे हनुमानजी! सचिव, वैद्य, और गुरु - ये तीनों तुम्हारे प्रिय हैं, इसलिए तुम्हें उनसे भय होता है। तुमने राज, धर्म, और तन (शरीर) - इन तीनों को धारण किया है, और इससे तुम्हारा नाश होने में देर नहीं होगी।"
इस दोहे में हनुमानजी के बुद्धिमानी, ब्राह्मण और योग्य व्यक्तित्व की बात की जा रही है। हनुमानजी का नाम योग्य और विशेषज्ञता के प्रति उनकी समर्पणशीलता से जुड़ा हुआ है, और इससे उन्होंने अपने आचार्य, राजा राम, और राजनीतिक नीति का पालन करने की क्षमता को प्रकट किया है।
दोहा 
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत।।38।।
दोहा का अर्थ है
"काम (कामना), क्रोध (क्रोध), मद (मद), लोभ (लोभ) - ये सभी नाथ हैं जो नरक की ओर जाने वाले पथ हैं। इन सबको छोड़कर रघुकुल श्रीराम को ही भज, जैसा कि संतों ने भजा है।"
इस दोहे में तुलसीदासजी ने भक्ति के माध्यम से अशुभ गुणों को छोड़कर परमात्मा की उपासना करने की महत्वपूर्णता को बताया है। रघुकुल श्रीराम को भजने से ही संतों ने मोक्ष को प्राप्त किया है, और यह सभी मनुष्यों के लिए एक मार्गदर्शन है।
दोहा 
बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस।।39(क)।।
दोहा का अर्थ है

"बार-बार तुम्हारे पादों में शरण लेता हूँ, बिनय करता हूँ, और दस बिस करता हूँ। मान, मोह, और मद को छोड़कर कोसलापति श्रीराम की पूजा करो।"
इस दोहे में तुलसीदासजी ने भगवान की भक्ति में समर्पण की महत्वपूर्णता को बताया है। भक्ति में विनम्रता, निष्ठा, और आत्मसमर्पण के भाव से पूजा करने से ही मनुष्य अपने अंतरात्मा को परमात्मा के समीप ला सकता है।
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात।।39(ख)।।
दोहा का अर्थ है
"मुनि पुलस्ति ने अपने शिष्य सुतीक्ष्ण को इस कथा को सुनाकर भगवान राम की कृपा प्राप्त करने के लिए तब तुरंत अपने गुरु के सामने प्रभु कहकर बोला, और उसने उस सुअवसर (अच्छे समय) का अवसर पाया।"
इस दोहे में भक्त अपने गुरु के उपदेश का अनुसरण करता है और भगवान की कृपा को प्राप्त करने के लिए आत्मसमर्पण करता है। यह दिखाता है कि भक्ति में गुरु के उपदेश का महत्व कितना है और उसका अनुसरण कैसे शिष्य को भगवान के समीप ले जाता है।
दोहा
तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार।।40।।
दोहा का अर्थ है
"हे ताता हनुमानजी! मैं तुम्हारे चरणों में गिरकर विनती करता हूँ कि आप मुझे अपने प्रिय भक्त के रूप में धारण करें। कृपया मुझे अपने साक्षात् श्रीरामजी की सेवा में शामिल करें और मेरी सीता माता को अहित न होने दें।"
इस दोहे में भक्त तुलसीदासजी ने हनुमानजी से अपनी सीता माता के साथ श्रीरामजी की सेवा के लिए अपनी प्रार्थना को व्यक्त किया है। यहां भक्ति और सेवा भाव को महत्वपूर्ण रूप से प्रमोट किया गया है।
दोहा
रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मै रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि।।41।
दोहा का अर्थ है

"हे सत्यसंकल्प राम! तुम प्रभु हो, सभी कल्याणकारी संकल्पों के साकार हो। मैं अब रघुकुलेश्वर श्रीराम की शरण में जा रहा हूँ, कृपया मुझे अपने चरणों में लेना और अपने भक्त के रूप में स्वीकार करना।"
इस दोहे में तुलसीदासजी ने अपनी शरणागति और भक्ति का अभिवादन किया है, और वह भगवान राम से अपने चरणों में लेने की प्रार्थना करते हैं। इससे यह भावना आती है कि भक्त अपने सर्वस्व को भगवान को समर्पित करने का इरादा कर रहा है।
दोहा
जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ।।42।।
दोहा का अर्थ है

"जो व्यक्ति भगवान राम के पादुकों को पूजता है और उनके मन को भी पादुकों से भर देता है, वह व्यक्ति अपनी आंखों से इन पादुकों को देखने के लिए आग्रह करता है।"
इस दोहे में प्रमुख धारणा यह है कि भक्ति में व्यक्ति भगवान के पादुकों को उच्चतम पूजा का विषय बनाता है और उनके मन को भी पादुकों से भर देता है। यह एक उदाहरण है कि भक्ति में दिव्य और साकार रूपों के पूजन का अर्थ केवल आगे की ओर बढ़ने से नहीं, बल्कि मन को भगवान के साथ संबंधित बनाए रखने से भी है।
दोहा 
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।।43।।
दोहा का अर्थ है

"जो व्यक्ति अपने अनुमान को छोड़कर शरणागति में आता है, वह नर पापरूप होते हैं, और उन्हें पापों में हानि होती है।"
यह दोहा भक्ति में निस्तरंग शरणागति की महत्वपूर्णता को बताता है। जो व्यक्ति अपने आत्मा को पूर्णता के साथ श्रीराम की शरण में समर्पित करता है, उसे भगवान की कृपा प्राप्त होती है और उसे पापों से मुक्ति मिलती है।
दोहा 
उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि चले अंगद हनू समेत।।44।।
दोहा का अर्थ है
"हनुमानजी ने कहा, 'आपने हमें दोनों भावों में आशीर्वाद दिया है, एक ओर हँसते हुए और एक ओर कृपानिकेत बनाया है। जय हो, आपकी कृपा को!' कहकर हनुमानजी ने अंगद सहित वहाँ से चले गए।"
इस दोहे में हनुमानजी की कृपा को महत्वपूर्ण रूप से बताया गया है और उनकी कृपा से सभी भक्त आनंदित होकर आगे बढ़ते हैं। हनुमानजी ने अंगद सहित सभी को अपने आशीर्वाद से युक्त कर दिया है।
दोहा 
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर।।45।।
दोहा का अर्थ है
"मैं आपके गुण गान को सुनकर आया हूँ, हे रघुबीर! मेरे भयभीत मन को आपकी आराधना में सुख मिले, कृपा करके आरतियों को दूर करें और मुझे आपकी शरण में सुख प्रद बनाएं।"
इस दोहे में भक्त अपनी भयभीत स्थिति को बताते हुए भगवान श्रीराम से रक्षा की प्रार्थना कर रहा है। वह चाहता है कि भगवान उसकी आरतियों को हरें और उसे अपनी शरण में सुख दे।

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