श्रीरुद्र संहिता (तृतीय खण्ड)चालीसवां अध्याय से तेंतालीसवां अध्याय तक Shri Rudra Samhita (Third Volume) From Forty-fourth Chapter to Forty-third Chapter

श्रीरुद्र संहिता (तृतीय खण्ड)चालीसवां अध्याय से तेंतालीसवां अध्याय तक

भगवान शिव की बारात का हिमालयपुरी की ओर प्रस्थान

ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! भगवान शिव ने कुछ गणों को वहीं रुकने का आदेश देते हुए नंदीश्वर सहित सभी गणों को हिमालयपुरी चलने की आज्ञा दी। उसी समय गण के स्वामी शंखकर्ण करोड़ों गण साथ लेकर चल दिए। फिर भगवान शिव की आज्ञा पाकर गणेश्वर, शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, पारिजात, विकृतानन, दुंदुभ, कपाल, संदारक, कंदुक, कुण्डक, विष्टंभ, पिप्पल, सनादक, आवेशन, कुण्ड, पर्वतक, चंद्रतापन, काल, कालक, महाकाल, अग्निक, अग्निमुख, आदित्यमूर्द्धा, घनावह, संनाह, कुमुद, अमोघ, कोकिल, सुमंत्र, काकपादोदर, संतानक, मधुपिंग, कोकिल, पूर्णभद्र, नील, चतुर्वक्त्र, करण, अहिरोमक, यज्ज्वाक्ष, शतमन्यु, मेघमन्यु, काष्ठागूढ, विरूपाक्ष, सुकेश, वृषभ, सनातन, तालकेतु, षण्मुख, चैत्र, स्वयंप्रभु, लकुलीश लोकांतक, दीप्तात्मा, दैन्यांतक, भृंगिरिटि, देवदेवप्रिय, अशनि, भानुक, प्रमथ तथा वीरभद्र अपने असंख्य गणों को साथ लेकर चल पड़े। नंदीश्वर एवं गणराज भी अपने-अपने गणों को ले क्षेत्रपाल और भैरव के साथ उत्साहपूर्वक चल दिए। उन सभी गणों के सिर पर जटा, मस्तक पर चंद्रमा और गले में नील चिह्न था। शिवजी ने रुद्राक्ष के आभूषण धारण किए हुए थे। शरीर पर भस्म शोभायमान थी। सभी गणों ने हार, कुंडल, केयूर तथा मुकुट पहने हुए थे। इस प्रकार त्रिलोकीनाथ महादेव अपने लाखों-करोड़ों शिवगणों तथा मुझे, श्रीहरि और अन्य सभी देवताओं को साथ लेकर धूमधाम से हिमालय नगरी की ओर चल दिए। शिवजी के आभूषणों के रूप में अनेक सर्प उनकी शोभा बढ़ा रहे थे और वे अपने नंदी बैल पर सवार होकर पार्वती जी को ब्याहने के लिए चल दिए। इस समय चंडी देवी महादेव जी की बहन बनकर खूब नृत्य करती हुई उस बारात के साथ हो चलीं। चंडी देवी ने सांपों को आभूषणों की तरह पहना हुआ था और वे प्रेत पर बैठी हुई थीं तथा उनके मस्तक पर सोने से भरा कलश था, जो कि दिव्य प्रभापुंज-सा प्रकाशित हो रहा था। उनकी यह मुद्रा देखकर शत्रु डर के मारे कांप रहे थे। करोड़ों भूत-प्रेत उस बारात की शोभा बढ़ा रहे थे। चारों दिशाओं में डमरुओं, भेरियों और शंखों के स्वर गूंज रहे थे। उनकी ध्वनि मंगलकारी थी जो विघ्नों को दूर करने वाली थी। श्रीहरि विष्णु सभी देवताओं और शिवगणों के बीच में अपने वाहन गरुड़ पर बैठकर चल रहे थे। उनके सिर के ऊपर सोने का छत्र था। चमर ढुलाए जा रहे थे। मैं भी वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों, सनकादि महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा अन्यान्य परिजनों के साथ शोभायमान होकर चल रहा था। स्वर्ग के राजा इंद्र भी ऐरावत हाथी पर आभूषणों से सज- धजकर बारात की शोभा में चार चांद लगा रहे थे। भक्तवत्सल भगवान शिव की बारात में अनेक ऋषि-मुनि और साधु-संत भी अपने दिव्य तेज से प्रकाशित होकर चल रहे थे। देवाधिदेव महादेव जी का शुभ विवाह देखने के लिए शाकिनी, यातुधान, बैताल, ब्रह्मराक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच, प्रमथ आदि गण, तुम्बुरु, नारद, हा हा और हू हू आदि श्रेष्ठ गंधर्व तथा किन्नर भी प्रसन्न मन से नाचते-गाते उनके साथ हो लिए। इस विवाह में शामिल होने में स्त्रियां भी पीछे न थीं। सभी जगत्माताएं, देवकन्याएं, गायत्री, सावित्री, लक्ष्मी और सभी देवांगनाएं और देवपत्नियां तथा देवमाताएं भी खुशी-खुशी शंकर जी के विवाह में सम्मिलित होने के लिए बारात के साथ हो लीं। वेद, शास्त्र, सिद्ध और महर्षि जिसे धर्म का स्वरूप मानते हैं, जो स्फटिक के समान श्वेत व उज्ज्वल है, वह सुंदर बैल नंदी भगवान शिव का वाहन है। शिवजी नंदी पर आरूढ़ होकर उसकी शोभा बढ़ाते हैं। भगवान शिव की यह छवि बड़ी मनोहारी थी। वे सज-धजकर समस्त देवताओं, ऋषि-मुनियों, शिवगणों, भूत-प्रेतों, माताओं के सान्निध्य में अपनी विशाल बारात के साथ अपनी प्राणवल्लभा देवी पार्वती का पाणिग्रहण करने के लिए सानंद होकर अपने ससुर गिरिराज हिमालय की नगरी की ओर पग बढ़ा रहे थे। वे सब मदमस्त होकर नाचते-गाते हुए हिमालय के भवन की तरफ बढ़े जा रहे थे। हिमालय की तरफ बढ़ते समय उनके ऊपर आकाश से पुष्पों की वर्षा हो रही थी। बारात का वह दृश्य बहुत ही मनोहारी लग रहा था। चारों दिशाओं में शहनाइयां बज रही थीं और मंगल गान गूंज रहे थे। उस बारात का अनुपम दृश्य सभी पापों का नाश करने वाला तथा सच्ची आत्मिक शांति प्रदान करने वाला था।
श्रीरुद्र संहिता (तृतीय खण्ड)चालीसवां अध्याय

मंडप वर्णन व देवताओं का भय

ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! तुम भी भगवान शिव की बारात में सहर्ष शामिल हुए थे। भगवान शिव ने श्रीहरि विष्णु से सलाह करके सबसे पहले तुमको हिमालय के पास भेजा, वहां पहुंचकर तुमने विश्वकर्मा के बनाए दिव्य और अनोखे मंडप को देखा तो बहुत आश्चर्यचकित रह गए। विश्वकर्मा द्वारा बनाई गई विष्णु, ब्रह्मा, समस्त देवताओं की मूर्तियों को देखकर यह कह पाना कठिन था कि ये असली हैं या नकली। वहां रत्नों से जड़े हुए लाखों कलश रखे थे। बड़े-बड़े केलों के खंभों से मण्डप सजा हुआ था। तुम्हें वहां आया देखकर शैलराज हिमालय ने तुमसे पूछा कि देवर्षि क्या भगवान शिव बारात के साथ आ गए हैं? तब तुम्हें साथ लेकर हिमालय के पुत्र मैनाक आदि तुम्हारे साथ बारात की अगवानी के लिए आए। तब मैंने और विष्णुजी ने भी तुमसे वहां के समाचार के बारे में पूछा। हमने तुमसे यह भी पूछा कि शैलराज हिमालय अपनी पुत्री पार्वती का विवाह भगवान शिव से करने के इच्छुक हैं या नहीं? कहीं उन्होंने अपना इरादा बदल तो नहीं दिया है। यह प्रश्न सुनकर आप मुझे विष्णुजी और देवराज इंद्र को एकांत स्थान पर ले गए और वहां जाकर तुमने वहां के बारे में बताना शुरू किया। तुमने कहा कि हे देवताओ। शैलराज हिमालय ने शिल्पी विश्वकर्मा से एक ऐसे मंडप की रचना करवाई है जिसमें आप सब देवताओं के जीते-जागते चित्र लगे हुए हैं। उन्हें देखकर मैं तो अपनी सुध-बुध ही खो बैठा था। इसे देखकर मुझे यह लगता है कि गिरिराज आप सब लोगों को मोहित करना चाहते हैं। यह सुनकर देवराज इंद्र भय के मारे कापने लगे और बोले- हे लक्ष्मीपति विष्णुजी ! मैंने त्वष्टा के पुत्र को मार दिया था। कहीं उसी का बदला लेने के लिए मुझ पर विपत्ति न आ जाए। मुझे संदेह हो रहा है कि कहीं मैं वहां जाकर मारा न जाऊं। तब इंद्र के वचन सुनकर श्रीहरि विष्णु बोले कि- इंद्र! मुझे भी यही लगता है कि वह मूर्ख हिमालय हमसे बदला लेना चाहता है क्योंकि मेरी आज्ञा से ही तुमने पर्वतों के पंखों को काट दिया था। शायद यह बात आज तक उन्हें याद है और वे हम सब पर विजय पाना चाहते हैं, परंतु हमें डरना नहीं चाहिए। हमारे साथ तो स्वयं महादेव जी हैं, भला फिर हमें कैसा भय? हमें इस प्रकार गुप-चुप बातें करते देखकर भगवान शिव ने लौकिक गति से हमसे बात की और पूछा- हे देवताओ! क्या बात है? मुझे स्पष्ट बता दो। शैलराज हिमालय मुझसे अपनी पुत्री पार्वती का विवाह करना चाहते हैं या नहीं? इस प्रकार यहां व्यर्थ बातें करते रहने से भला क्या लाभ? भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर नारद तुम बोले- हे देवाधिदेव ! शिवजी । गिरिजानंदिनी पार्वती से आपका विवाह तो निश्चित है। उसमें भला कोई विघ्न-बाधा कैसे आ सकती है? तभी तो शैलराज हिमालय ने अपने पुत्रों मैनाक आदि को मेरे साथ बारात की अगवानी के लिए यहां भेजा है। मेरी चिंता का कारण दूसरा है। प्रभु! आपने मुझे हिमालय के यहां बारात के आगमन की सूचना देने के लिए भेजा था। जब मैं वहां पहुंचा तो मैंने विश्वकर्मा द्वारा बनाए गए मंडप को देखा। शैलराज हिमालय ने देवताओं को मोहित करने के लिए एक अद्भुत और दिव्य मंडप की रचना कराई है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वे ब इतने जीवंत हैं कि कोई भी उन्हें देखकर मोहित हुए बगैर नहीं रह सकता। उन चित्रों को देखकर ऐसा महसूस होता है कि वे अभी बोल पड़ेंगे। प्रभु! उस मंडप में श्रीहरि, ब्रह्माजी, देवराज इंद्र सहित सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों सहित अनेक जानवरों और पशु-पक्षियों के सुंदर व लुभावने चित्र बनाए गए हैं। यही नहीं, मंडप में आपकी और मेरी भी प्रतिमूर्ति बनी है, जिन्हें देखकर मुझे यह लगा कि आप सब लोग यहां न होकर वहीं हिमालय नगरी में पहुंच गए हैं। नारद! तुम्हारी बातें सुनकर भगवान शिव मुस्कुराए और देवताओं से बोले - आप सभी को भय की कोई आवश्यकता नहीं है। शैलराज हिमालय अपनी प्रिय पुत्री पार्वती हमें समर्पित कर रहे हैं। इसलिए उनकी माया हमारा क्या बिगाड़ सकती है? आप अपने भय को त्यागकर हिमालय नगरी की ओर प्रस्थान कीजिए। भगवान शिव की आज्ञा पाकर सभी बाराती भयमुक्त होकर उत्साह और प्रसन्नता के साथ पुनः नाचते-गाते शिव बारात में चल दिए । शैलराज हिमालय के पुत्र मैनाक आगे-आगे चल रहे थे और बाकी सभी उनका अनुसरण कर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। इस प्रकार बारात हिमालयपुरी जा पहुंची।
श्रीरुद्र संहिता (तृतीय खण्ड) इकतालीसवां अध्याय

बारात की अगवानी और अभिनंदन 

ब्रह्माजी बोले- भगवान शिव अपनी विशाल बारात के साथ हिमालय पुत्रों के पीछे चलकर हिमालय नगरी पहुंच गए। जब गिरिराज हिमालय ने उनके आगमन का समाचार सुना तो वे प्रसन्नतापूर्वक, भक्ति से ओत-प्रोत होकर भगवान शिव के दर्शनों के लिए स्वयं आए। हिमालय का हृदय प्रेम की अधिकता के कारण द्रवित हो उठा था और वे अपने भाग्य को सराह रहे थे। हिमालय अपने साथी पर्वतों को साथ लेकर बारात की अगवानी के लिए पहुंचे। भगवान शंकर की बारात देखकर शैलराज हिमालय आश्चर्यचकित रह गए। तत्पश्चात देवता और पर्वत प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार एक-दूसरे के गले लगे मानो पूर्व और पश्चिम के समुद्रों का मिलन हो रहा हो। सभी अपने को धन्य मान रहे थे। इसके बाद शैलराज महादेव जी के पास पहुंचे और दोनों हाथ जोड़कर उनको प्रणाम करके स्तुति करने लगे। सभी पर्वतों और ब्राह्मणों ने भी शिवजी की वंदना की। शिवजी अपने वाहन बैल पर बैठे थे। भगवान शिव आभूषणों से विभूषित थे तथा दिव्य प्रकाश से आलोकित थे। उनके लावण्य से सारी दिशाएं प्रकाशित हो रही थीं। भगवान शिव के मस्तक पर रत्नों से जड़ा हुआ मुकुट शोभा पा रहा था। उनके गले और अन्य अंगों पर लिपटे सर्प उनके स्वरूप को अद्भुत और शोभनीय बना रहे थे। उनकी अंगकांति दिव्य और अलौकिक थी। अनेक शिवगण हाथ में चंवर लेकर उनकी सेवा कर रहे थे। उनके बाएं भाग में भगवान श्रीहरि विष्णु और दाएं भाग में स्वयं मैं था। समस्त देवता भगवान शिव की स्तुति कर रहे थे। नारद! जैसा तुम जानते ही हो भगवान शिव परमब्रह्म परमात्मा हैं। वे ही सबके ईश्वर हैं। वे इस जगत का कल्याण करते हैं और अपने भक्तों की सभी इच्छाओं को पूरा कर उन्हें मनवांछित फल प्रदान करते हैं। वे सदा ही अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। वे सच्चिदानंद स्वरूप हैं और सर्वेश्वर हैं। उनके बाएं भाग में श्रीहरि विष्णु गरुड़ पर बैठे थे तो दाएं भाग में मैं (ब्रह्मा) स्थित था। हम तीनों के स्वरूप का एक साथ दर्शन कर गिरिराज आनंदमग्न हो गए। तत्पश्चात शैलराज ने शिवजी के पीछे तथा उनके आस-पास खड़े सभी देवताओं के सामने अपना मस्तक झुकाया और सभी को बारंबार प्रणाम किया। फिर भगवान शिव की आज्ञा लेकर, शैलराज हिमालय अपने निवास की ओर चल दिए और वहां जाकर उन्होंने सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों एवं अन्य बारातियों के ठहरने की उत्तम व्यवस्था की । हिमालय ने प्रसन्नतापूर्वक अपने पुत्रों को बुलाकर कहा कि तुम सभी भगवान शिव के पास जाकर उनसे प्रार्थना करो कि वे स्वयं अतिशीघ्र यहां पधारें। मैं उन्हें अपने भाई-बंधुओं से मिलवाना चाहता हूं। तुम वहां जाकर कहो कि मैं उनकी यहां प्रतीक्षा कर रहा हूं। अपने पिता गिरिराज हिमालय की आज्ञा पाकर उनके पुत्र उस ओर चल दिए जहां बारात के ठहरने की व्यवस्था  की गई थी। वहां वे भगवान शिव के पास पहुंचे। प्रणाम करके उन्होंने अपने पिता द्वारा कही हुई सभी बातों से शिवजी को अवगत करा दिया। तब भगवान शंकर ने कहा कि तुम जाकर अपने पिता से कहो कि हम शीघ्र ही वहां पहुंच रहे हैं। शिवजी से आज्ञा लेकर हिमालय के पुत्र वापिस चले गए। तत्पश्चात देवताओं ने तैयार होकर गिरिराज हिमालय के घर की ओर प्रस्थान किया। महादेव जी के साथ भगवान विष्णु और मैं (ब्रह्मा) शीघ्रतापूर्वक चलने लगे। तभी देवी पार्वती की माता देवी मैना के मन में त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को देखने की इच्छा हुई। इसलिए देवी मैना ने तुमको संदेशा भेजकर अपने पास बुलवा लिया। भगवान शिव से प्रेरित होकर देवी मैना की हार्दिक इच्छा को पूरा करने के लिए आप वहां गए।
श्रीरुद्र संहिता (तृतीय खण्ड)  बयालीसवां अध्याय

शिवजी की अनुपम लीला

ब्रह्माजी बोले- हे नारद! तुमको अपने सामने देखकर देवी मैना बहुत प्रसन्न हुईं और तुम्हें प्रणाम करके बोलीं- हे मुनिश्रेष्ठ नारद जी ! मैं भगवान शिव के इसी समय दर्शन करना चाहती हूं। मैं देखना चाहती हूं, जिन शिवजी को पाने के लिए मेरी बेटी पार्वती ने घोर तपस्या की तथा अनेक कष्टों को भोगा उन शिवजी का रूप कैसा है? वे कैसे दिखते हैं? यह कहकर तुमको साथ लेकर देवी मैना चंद्रशाला की ओर चल पड़ीं। इधर भगवान शिव भी मैना के इस अभिमान को समझ गए और मुझसे व विष्णुजी से बोले कि तुम सब देवताओं को अपने साथ लेकर गिरिराज हिमालय के घर पहुंचो। मैं भी अपने गणों के साथ पीछे-पीछे आ रहा भगवान विष्णु ने इसे भगवान शिव की आज्ञा माना और सब देवताओं को बुलाकर उनकी आज्ञा का पालन करते हुए शैलराज के घर की ओर प्रस्थान किया। देवी मैना तुम्हारे साथ अपने भवन के सबसे ऊंचे स्थान पर जाकर खड़ी हो गईं। तब देवताओं की सजी-सजाई सेना को देखकर मैना बहुत प्रसन्न हुई । बारात में सबसे आगे सुंदर वस्त्रों एवं आभूषणों से सजे हुए गंधर्व गण अपने वाहनों पर सवार होकर बाजे बजाते और नृत्य करते हुए आ रहे थे। इनके गण अपने हाथों में ध्वज की पताका लेकर उसे फहरा रहे थे। साथ में स्वर्ग की सुंदर अप्सराएं मुग्ध होकर नृत्य कर रही थीं। उनके पीछे वसु आ रहे थे। फिर मणिग्रीवादि यक्ष, यमराज, निरृति, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, देवराज इंद्र, चंद्रमा, सूर्य, भृगु आदि देव मुनीश्वर एक से एक सुंदर और मनोहारी रूप के स्वामी थे और सर्वगुण संपन्न जान पड़ते थे। उन्हें देखकर नारद वह तुमसे यही प्रश्न करती कि क्या ये ही शिव हैं? तब तुम मुस्कुराकर यह उत्तर देते कि नहीं ये भगवान शिव के सेवक हैं। देवी मैना यह सुनकर हर्ष से विभोर हो जाती कि जब उनके सेवक इतने सुंदर और वैभवशाली हैं तो वे स्वयं कितने रूपवान और ऐश्वर्य संपन्न होंगे। उधर, दूसरी ओर भगवान शिव, जो कि सर्वेश्वर हैं, उनसे भला जगत की कोई बात कैसे छिप सकती है? वे देवी मैना के हृदय की बात तुरंत जान गए और मन ही मन उन्होंने उनके मन में उत्पन्न अहंकार का नाश करने का निश्चय कर लिया। तभी वहां से, जहां मैना और नारद तुम खड़े हुए थे, श्रीहरि विष्णु पधारे। उनकी कांति के सामने चंद्रमा की कांति भी फीकी पड़ जाती है। वे जलंधर के समान श्याम तथा चार भुजाधारी थे और उन्होंने पीले वस्त्र पहन रखे थे। उनके नेत्र कमल दल के समान सुंदर व प्रकाशित हो रहे थे। वे गरुड़ पर विराजमान थे। शंख, चक्र आदि उनकी शोभा में वृद्धि कर रहे थे। उनके सिर पर मुकुट जगमगा रहा था और वक्ष स्थल में श्रीवत्स का चिन्ह था। उनका सौंदर्य अप्रतिम तथा देखने वाले को मंत्रमुग्ध करने वाला था। उन्हें देखकर देवी मैना के हर्ष की कोई सीमा न रही और वे तुमसे बोलीं कि जरूर ये ही मेरी पार्वती के पति भगवान शिव होंगे। नारद जी! देवी मैना के वचनों को सुनकर आप मुस्कुराए और उनसे बोले कि देवी, ये आपकी पुत्री पार्वती के होने वाले पति भगवान शिव नहीं, बल्कि क्षीरसागर के स्वामी और जगत के पालक श्रीहरि विष्णु हैं। ये भगवान शिव के प्रिय हैं और उनके कार्यों के अधिकारी भी हैं। हे देवी! गिरिजा के पति भगवान शिव तो संपूर्ण ब्रह्माण्ड के अधिकारी हैं। वे सर्वेश्वर हैं और वही परम ब्रह्म परमात्मा हैं। वे विष्णुजी से भी बढ़कर हैं। तुम्हारी ये बातें सुनकर मैना शिवजी के बारे में बहुत कुछ सोचने लगीं कि मेरी पुत्री बहुत भाग्यशाली और सौभाग्यवती है, जिसे धन-वैभव और सर्वशक्ति संपन्न वर मिला है। यह सोचकर उनका हृदय हर्ष से प्रफुल्लित हो रहा था। वे शिवजी को दामाद के रूप में पाकर अपने कुल का भाग्योदय मान रही थीं। वे कह रही थीं कि पार्वती को जन्म देकर मैं धन्य हो गई। मेरे पति गिरिराज हिमालय भी धन्य हो गए। मैंने अनेक तेजस्वी देवताओं के दर्शन किए, इन सभी के द्वारा पूज्य और इन सबके अधिपति मेरी पुत्री पार्वती के पति हैं फिर तो मेरा भाग्य सर्वथा सराहने योग्य है। इस प्रकार मैना अभिमान में आकर जब यह सब कह रही थी उसी समय उसका अभिमान दूर करने के लिए अपने अद्भुत रूप वाले गणों को आगे करके शिवजी भी आगे बढ़ने लगे। भगवान शिव के सभी गण मैना के अहंकार और अभिमान का नाश करने वाले थे। भूत, प्रेत, पिशाच आदि अत्यंत कुरूपगणों की सेना सामने से आ रही थी। उनमें से कई बवंडर का रूप धारण किए थे, किसी की टेढ़ी सूंड थी, किसी के होंठ लंबे थे, किसी के चेहरे पर सिर्फ दाढ़ी-मूंछें ही दिखाई देती थीं, किसी के सिर पर बाल नहीं थे तो किसी के सिर पर बालों का घना जंगल था। किसी की आंखें नहीं थीं, कोई अंधा था तो कोई काणा । किसी की तो नाक ही नहीं थी। कोई हाथों में बड़े भारी-भारी मुद्गर लिए था, तो कोई औंधा होकर चल रहा था। कोई वाहन पर उल्टा होकर बैठा हुआ था। उनमें कितने ही लंगड़े थे। किसी ने दण्ड और पाश ले रखे थे। सभी शिवगण अत्यंत कुरूप और विकराल दिखाई देते थे। कोई सींग बजा रहा था, कोई डमरू तो कोई गोमुख को बजाता हुआ आगे बढ़ रहा था। उनमें किसी का सिर नहीं था तो किसी के धड़ का पता नहीं चल रहा था तो किसी के अनेकों मुख थे। किसी के चेहरे पर अनगिनत आंखें लगी थीं तो किसी के अनेकों पैर थे। किसी के हाथ नहीं थे तो किसी के अनेकों कान थे, तो किसी के अनेकों सिर थे। सभी शिवगणों ने अचंभित करने वाली वेश-भूषा धारण की हुई थी। कोई आकार में बहुत बड़ा था तो कोई बहुत छोटा था। वे देखने में बहुत ही भयंकर लग रहे थे। उनकी लंबी-चौड़ी विशाल सेना मदमस्त होकर नाचते-गाते हुए आगे बढ़ रही थी। तभी तुमने अंगुली के इशारे से शिवगणों को दिखाते हुए देवी मैना से कहा- देवी! पहले आप भगवान शिव के गणों को देख लें, तत्पश्चात महादेव जी के दर्शन करना। भूत-प्रेतों की इतनी बड़ी सेना को देखकर देवी मैना भय से कांपने लगीं। इसी सेना के बीच में पांच मुख वाले, तीन नेत्रों, दस भुजाओं वाले, शरीर पर भस्म लगाए, गले में मुण्डों की माला पहने, गले में सर्पों को डाले, बाघ की खाल को ओढ़े, पिनाक धनुष हाथ में उठाए, त्रिशूल कंधे पर रखकर बड़े कुरूप और बूढ़े बैल पर चढ़े हुए भगवान शंकर देवी मैना को दिखाई दिए। उनके सिर पर जटाजूट थी और आंखें भयंकर लाल थीं। नारद! तभी तुमने मैना को बताया कि वे ही भगवान शिव हैं। तुम्हारी यह बात सुनकर देवी मैना अत्यंत व्याकुल होकर तेज वायु के झकोरे लगने से टूटी लता के समान धरती पर धड़ाम से गिरकर मूर्छित हो गईं। उनके मुख से सिर्फ यही शब्द निकले कि सबने मिलकर मुझे छल-कपट से राजी किया है। मैं सबके आग्रह को मानकर बरबाद हो गई। मैना के इस प्रकार बेहोश हो जाने पर उनकी अनेकों दासियां वहां भागती हुई आ गईं। अनेकों प्रकार के उपाय करने के पश्चात धीरे-धीरे मैना होश में आईं। 
श्रीरुद्र संहिता (तृतीय खण्ड) तेंतालीसवां अध्याय

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