शिवजी द्वारा हिमालय से पार्वती को मांगना,ब्राह्मण वेष में पार्वती के घर जाना

 श्रीरुद्र संहिता (तृतीय खण्ड )उन्नतीसवाँ अध्याय से तीसवाँ अध्याय तक

शिवजी द्वारा हिमालय से पार्वती को मांगना"

ब्रह्माजी बोले - हे महामुनि नारद! भगवान शिव के वहां से अंतर्धान हो जाने के उपरांत देवी पार्वती भी अपनी सखियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक अपने पिता के घर की ओर चल दीं। उनके आने का शुभ समाचार सुनकर देवी मैना और हिमालय बहुत प्रसन्न हुए और तुरंत सिंहासन से उठकर देवी पार्वती से मिलने के लिए चल दिए। उनके सभी भाई भी उनकी जय-जयकार करते हुए उनसे मिलने के लिए आगे चले गए। देवी पार्वती अपने नगर के निकट पहुंचीं। वहां उन्होंने अपने माता-पिता और भाइयों को नगर के मुख्य द्वार पर अपना इंतजार करते पाया। वे अत्यंत हर्ष से विभोर होकर उनका स्वागत करने के लिए खड़े थे। पार्वती ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। हिमालय और मैना ने अपनी पुत्री को अनेकानेक आशीर्वाद देकर गले से लगा लिया। भाव विह्वल होकर उनकी आंखों से आंसू टपकने लगे। सभी उपस्थित लोगों ने उनकी मुक्त हृदय से प्रशंसा की। वे कहने लगे कि पार्वती ने उनके कुल का उद्धार किया है और अपने मनोवांछित कार्य की सिद्धि की है। इस प्रकार सभी प्रसन्न थे और उनकी प्रशंसा करते हुए नहीं थक रहे थे। लोगों ने सुगंधित पुष्पों, चंदन एवं अन्य सामग्रियों से देवी पार्वती का पूजन किया। इस शुभ बेला में उन पर स्वर्ग से देवताओं ने भी पुष्प । वर्षा की तथा उनकी स्तुति की। तत्पश्चात बहुत आदर सहित उन्हें घर की ओर जाया गया और विधि-विधान से उनका गृह प्रवेश कराया गया। ब्राह्मणों, ऋषि-मुनियों, देवताओं और प्रजाजनों ने उन्हें अनेकों शुभ व उत्तम आशीर्वाद प्रदान किए।
इस शुभ अवसर पर शैलराज हिमालय ने ब्राह्मणों एवं दीन-दुखियों को दान दिया। उन्होंने ब्राह्मणों से मंगल पाठ भी कराया। उन्होंने पधारे हुए सभी ऋषि-मुनियों, देवताओं और स्त्री पुरुषों का आदर सत्कार किया। तत्पश्चात हिमालय अपनी पत्नी मैना को साथ लेकर गंगा स्नान को चलने लगे, तभी भगवान शिव नाचने वाले नट का वेश धारण करके उनके समीप पहुंचे। उनके बाएं हाथ में सींग और दाहिने हाथ में डमरू था और पीठ पर कथरी रखी थी उन्होंने सुंदर, लाल वस्त्र पहने थे । नाचने-गाने में वे पूर्णतः मग्न थे । नट रूप धारण किए हुए शिवजी ने बहुत सुंदर नृत्य किया और अनेक प्रकार के गीत गा-गाकर सभी का मन मोह लिया। नृत्य करते समय वे बीच-बीच में शंख और डमरू भी बजा रहे थे और मनोरम लीलाएं कर रहे थे। उनकी इस प्रकार की मन को हरने वाली लीलाएं देखने के लिए पूरे नगर के स्त्री पुरुष, बच्चे-बूढ़े, वहां आ गए। नटरूपी भगवान शिव को नृत्य करते हुए देखकर और उनका गाना सुनकर सभी मंत्र मुग्ध हो गए। परंतु देवी पार्वती से भला यह कब तक छिपता? उन्होंने मन ही मन अपने प्रिय महादेव जी के साक्षात दर्शन कर लिए। शिवजी का रूप ही अलौकिक है। उन्होंने पूरे शरीर पर विभूति मल रखी थी तथा उनके शरीर पर त्रिशूल बना हुआ था। गले में हड्डियों की माला पहन रखी थी। उनका मुख सूर्य के तेज के समान शोभा पा रहा था।
उनके गले में यज्ञोपवीत के समान नाग लटका हुआ था । त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के इस सुंदर, मनोहारी स्वरूप का हृदय में दर्शन कर लेने मात्र से ही देवी पार्वती हर्षातिरेक से बेहोश हो गईं। वे जैसे उनके स्वप्न में कह रहे थे कि देवी 'अपना मनोवांछित वर मांगो।' हृदय में विराजमान इस अनोखे स्वरूप को मन ही मन प्रणाम करके पार्वती ने कहा कि भगवन्! मेरे पति बन जाइए। तब देवेश्वर ने मुस्कुराते हुए 'तथास्तु' कहा और उनके स्वप्न से अंतर्धान हो गए। जब उनकी आंखें खुलीं तो उन्होंने शिवजी को नट रूप धारण किए वहां नाचते-गाते देखा।
नट के रूप में स्वयं भक्तवत्सल भगवान शिव के नाच-गाने से प्रसन्न होकर पार्वती की माता मैना सोने की थाली में रत्न, माणिक, हीरे और सोना लेकर उन्हें भिक्षा देने के लिए आईं। उनका ऐश्वर्य देखकर शिवजी बहुत प्रसन्न हुए परंतु उन्होंने उन सुंदर रत्नों और आभूषणों को लेने से इनकार कर दिया। 
वे बोले - देवी! भला मुझे रत्नों और आभूषणों से क्या लेना-देना। यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहती हैं तो अपनी कन्या का दान दे दीजिए । यह कहकर वे पुनः नृत्य करने लगे। उनकी बातें सुनकर देवी मैना क्रोध से उफन उठीं। वे उन्हें उसी समय वहां से निकालना चाहती थीं कि तभी गिरिराज हिमालय भी गंगा स्नान करके वापिस लौट आए। जब उनकी पत्नी मैना ने उन्हें सभी बातें बताईं तो वे भी जल्द से जल्द नट को वहां से निकालने को तैयार हो गए। उन्होंने अपने सेवकों को नट को बाहर निकालने की आज्ञा दी। परंतु यह असंभव था। वे साक्षात शिव भले ही नट का रूप धारण किए हुए थे परंतु उनका शरीर अद्भुत तेज से संपन्न था और वे परम तेजस्वी दिखाई दे रहे थे। उन्हें उठाकर निकाल फेंकना तो दूर की बात थी, उन्हें तो छूना भी कठिन था। तब उन्होंने मैना - हिमालय को अनेक प्रकार की लीलाएं रचकर दिखाईं। नट ने तुरंत ही श्रीहरि विष्णु का रूप धारण कर लिया। उनके माथे पर किरीट, कानों में कुण्डल और शरीर पर पीले वस्त्र अनोखी शोभा पा रहे थे। उनकी चार भुजाएं थीं। पूजा करते समय हिमालय और मैना ने जो पुष्प, गंध एवं अन्य वस्तुएं अर्पित की थीं वे सभी उनके शरीर और मस्तक पर शोभा पा रही थीं। यह देखकर सभी आश्चर्यचकित हो गए। तत्पश्चात नट ने जगत की रचना करने वाले ब्रह्माजी का चतुर्मुख रूप धारण कर लिया। उनका शरीर लाल रंग का था और वे वैदिक मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे। उन सभी ने उस नट भक्तवत्सल भगवान शिव के उत्तम रूप को देखा। उनके साथ देवी पार्वती भी थीं। वे रूद्र रूप में मुस्कुरा रहे थे। उनका वह स्वरूप अत्यंत सुंदर एवं मनोहारी था। उनकी ये सुंदर लीलाएं देखकर सभी आश्चर्यचकित रह गए थे और परम आनंद का अनुभव कर रहे थे। तत्पश्चात पुनः एक बार नट रूपी शिवजी ने मैना हिमालय से उनकी पुत्री का हाथ मांगा तथा अन्य भिक्षा ग्रहण करने से इनकार कर दिया परंतु शिवजी की माया से मोहित हुए गिरिराज हिमालय ने उन्हें अपनी पुत्री सौंपने से मना कर दिया। बिना कुछ भी लिए वह नट वहां से अंतर्धान हो गया। वे सोचने लगे कि श वे स्वयं भगवान शिव ही थे, जो स्वयं यहां पधार कर हमारी कन्या का हाथ मांग रहे थे और हमें अपनी माया से छलकर अपने निवास कैलाश पर वापिस चले गए हैं। यह सोचकर हिमालय और मैना दोनों ही एक पल को बहुत प्रसन्न हुए परंतु अगले ही पल यह सोचकर उदास हो गए कि हमने स्वयं साक्षात शिवजी को, बिना कुछ दिए और उनका आदर-सम्मान किए बिना ही खाली हाथ अपने द्वार से लौटा दिया। वे अत्यंत व्याकुल हो उठे।
श्रीरुद्र संहिता तृतीय खण्ड उन्नतीसवाँ अध्याय

ब्राह्मण वेष में पार्वती के घर जाना"

ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! गिरिराज हिमालय और देवी मैना के मन में भगवान शिव के प्रति भक्ति भाव देखकर सभी देवता आपस में विचार-विमर्श करने लगे। तब देवताओं के गुरु बृहस्पति और ब्रह्माजी से आज्ञा लेकर सभी भगवान शिव के पास कैलाश पर्वत पर गए। वहां पहुंचकर उन्होंने हाथ जोड़कर शिवजी को प्रणाम किया और उनकी अनेकानेक बार स्तुति की।तत्पश्चात देवता बोले - हे देवाधिदेव! महादेव! भगवान शंकर! हम दोनों हाथ जोड़कर आपकी शरण में आए हैं। हम पर प्रसन्न होइए और हम पर अपनी कृपादृष्टि बनाइए । प्रभो! आप तो भक्तवत्सल हैं और अपने भक्तों की प्रसन्नता के लिए कार्य करते हैं। आप दीन दुखियों का उद्धार करते हैं। आप दया और करुणा के अथाह सागर हैं। आप ही अपने भक्तों को संकटों से दूर करते हैं तथा उनकी सभी विपत्तियों का विनाश करते हैं। इस प्रकार महादेव जी की अनेकों बार स्तुति करने के बाद देवताओं ने भगवान शिव को गिरिराज हिमालय और उनकी पत्नी मैना की भक्ति से अवगत कराया और आदर सहित सभी बातें उन्हें बता दीं। तत्पश्चात भगवान शिव ने हंसते हुए उनकी सभी प्रार्थनाओं को स्वीकार कर लिया। तब अपने कार्य को सिद्ध हुआ समझकर सभी देवता प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने धाम लौट गए। जैसा कि सभी जानते हैं कि भगवान शिव को लीलाधारी कहा जाता है। वे माया के स्वामी हैं। पुनः वे शैलराज हिमालय के घर गए । उस समय राजा हिमालय अपनी पुत्री पार्वती सहित सभा भवन में बैठे हुए थे। उन्होंने ऐसा रूप धारण किया कि वे कोई ब्राह्मण अथवा साधु-संत जान पड़ते थे। उनके हाथ में दण्ड व छत्र था। शरीर पर दिव्य वस्त्र तथा माथे पर तिलक शोभा पा रहा था। उनके गले में शालग्राम तथा हाथ में स्फटिक की माला थी। वे मुक्त कंठ से हरिनाम जप रहे थे। उन्हें आया देखकर पर्वतों के राजा हिमालय तुरंत उठकर खड़े हो गए और उन्होंने ब्राह्मण को भक्तिभाव से साष्टांग प्रणाम किया। देवी पार्वती अपने प्राणेश्वर भगवान शिव को तुरंत पहचान गईं। उन्होंने उत्तम भक्तिभाव से सिर झुकाकर उनकी स्तुति की। वे मन ही मन बहुत प्रसन्न हुईं। तब ब्राह्मण रूप में पधारे भगवान शिव ने सभी को आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात हिमालय ने उन ब्राह्मण देवता की पूजा-आराधना की और उन्हें मधुपर्क आदि पूजन सामग्री भेंट की, जिसे शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया। तत्पश्चात पार्वती के पिता हिमालय ने उनका कुशल समाचार पूछा और बोले- हे विप्रवर! आप कौन हैं?
यह प्रश्न सुनकर वे ब्राह्मण देवता बोले ;- हे गिरिश्रेष्ठ! मैं वैष्णव ब्राह्मण हूं और भूतल पर भ्रमण करता रहता हूं। मेरी गति मन के समान है। एक पल में यहां तो दूसरे पल में वहां। मैं सर्वज्ञ, परोपकारी, शुद्धात्मा हूं। मैं ज्योतिषी हूं और भाग्य की सभी बातें जानता हूं। क्या हुआ है? क्या होने वाला है? यह सबकुछ मैं जानता हूं। मुझे ज्ञात हुआ है कि आप अपनी दिव्य सुलक्षणा पुत्री पार्वती को, जो कि सुंदर एवं लक्ष्मी के समान है, आश्रय विहीन, कुरूप और गुणहीन महेश्वर शिव को सौंपना चाहते हैं। वे शिवजी तो मरघट में रहते हैं। उनके शरीर पर हर समय सांप लिपटे रहते हैं और वे अधिक समय योग और ध्यान में ही बिताते हैं। वे नंग-धड़ंग होकर ही इधर-उधर भटकते फिरते हैं। उनके पास पहनने के लिए वस्त्र भी नहीं हैं। आज कोई उनके कुल के विषय में भी नहीं जानता है। वे स्वभाव से बहुत ही उग्र हैं । बात-बात पर उन्हें क्रोध आ जाता है। वे अपने शरीर पर सदा भस्म लगाए रहते हैं। सिर पर उन्होंने जटाजूट धारण कर रखा है। ऐसे अयोग्य वर को, जिसमें अच्छा और रुचिकर कहने लायक कुछ भी नहीं है, आप क्यों अपनी पुत्री का जीवन साथी बनाना चाहते हैं? आपका यह सोचना कि शिव ही आपकी पुत्री के योग्य हैं, सर्वथा गलत है। आप तो महान ज्ञानी हैं। आप नारायण कुल में उत्पन्न हुए हैं। भला आपकी सुंदर पुत्री को वरों की क्या कमी हो सकती है? उस परम सुंदरी से विवाह करने को अनेकों देशों के महान वीर, बलशाली, सुंदर, स्वस्थ राजा और राजकुमार सहर्ष तैयार हो जाएंगे। आप तो समृद्धिशाली हैं। आपके घर में भला किस वस्तु की कमी हो सकती है? परंतु शैलराज जहां आप अपनी पुत्री को ब्याहना चाह रहे हैं, वे बहुत निर्धन हैं। यहां तक कि उनके भाई-बंधु भी नहीं हैं। वे सर्वथा अकेले हैं। गिरिराज हिमालय! आपके पास अभी समय है। अतः आप अपने भाई-बंधुओं, पुत्रों व अपनी प्रिय पत्नी देवी मैना से इस विषय में सलाह कर लें परंतु अपनी पुत्री पार्वती से इस विषय में कोई सलाह न लें क्योंकि वे शिव के गुण-दोषों के बारे में कुछ भी नहीं जानती हैं। ऐसा कहकर ब्राह्मण देवता, जो वास्तव में साक्षात भगवान शिव ही थे, हिमालय का आदर-सत्कार ग्रहण करके आनंदपूर्वक वहां से अपने धाम को चले गए।
श्रीरुद्र संहिता तृतीय खण्ड तीसवाँ अध्याय

Comments