कुमार का अभिषेक 'कार्तिकेय का अद्भुत चरित्र "भगवान शिव द्वारा कार्तिकेय को सौंपना 'युद्ध का आरंभ"Kumar's Abhishek 'Amazing character of Kartikeya' "Handing over of Kartikeya by Lord Shiva marked the beginning of the war

कुमार का अभिषेक 'कार्तिकेय का अद्भुत चरित्र "भगवान शिव द्वारा कार्तिकेय को सौंपना 'युद्ध का आरंभ

कुमार का अभिषेक

ब्रह्माजी बोले-जब कार्तिकेय अपनी माताओं कृत्तिकाओं से आज्ञा लेकर भगवान शिव के पास जाने के लिए वहां से निकले तो द्वार पर देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा बनाया गया सुंदर रथ उनकी प्रतीक्षा कर रहा था । वह रथ दिव्य था और द्रुत गति से चलने वाला था। उस रथ को उनकी माता पार्वती ने उनके लिए भेजा था। उनके पार्षद उस रथ के पास खड़े हुए थे। कार्तिकेय दुखी मन से उस रथ पर चढ़ने लगे। तभी उनकी माताएं दौड़कर रोते हुए उनसे लिपट गईं और कहने लगीं कि पुत्र हम तुम्हारे बिना क्या करें? पुत्र हम तुमसे बहुत प्यार करती हैं, तुम्हारे बिना यहां रहना हमारे लिए संभव नहीं है। तुम शीघ्र ही वापिस लौट आना। यह कहकर उन्होंने कार्तिकेय को हृदय से लगा लिया और भारी मन से कार्तिकेय को रोते-रोते जाने की आज्ञा दी। तब कार्तिकेय ने कृत्तिकाओं को अध्यात्म ज्ञान प्रदान किया। तत्पश्चात कार्तिकेय उस दिव्य मनोहर रथ पर बैठ गए और वह उन्हें ले उड़ा। आकाशीय मार्ग से तीव्र गति से चलता हुआ वह रथ कैलाश पर्वत पर आकर रुका। तब शिवगणों ने भगवान शिव और माता पार्वती के पास जाकर, कार्तिकेय के आगमन की शुभ सूचना उन्हें दी। उनके आगमन के बारे में सुनकर भगवान शिव और देवी पार्वती बहुत प्रसन्न हुए। तत्पश्चात भगवान शिव, मुझे, विष्णुजी, देवी पार्वती और अन्य देवताओं को साथ लेकर उस स्थान पर पहुंचे जहां कार्तिकेय का रथ रुका हुआ था। सबके मन में गंगाजी से उत्पन्न उस बालक को देखने की बड़ी इच्छा थी। जब सब देवता कार्तिकेय से मिलने के लिए आ रहे थे उस समय चारों दिशाओं में शंख और भेरी बजने लगीं। सभी शिवगण नाचते-गाते और उनकी जय-जयकार करते हुए अपने आराध्य भगवान शिव के पुत्र को देखने के लिए चल दिए। वहां पहुंचकर सब बहुत प्रसन्न हुए। भगवान शिव ने प्रेमपूर्वक उस बालक को गोद में बैठा लिया। तब देवी पार्वती ने भी उस बालक को बहुत प्यार किया। भगवान शिव ने उस बालक के लिए एक सुंदर रत्नों से जड़ा हुआ सिंहासन मंगाया और उस सिंहासन पर बालक को बैठाया। तत्पश्चात भगवान शिव ने सब तीर्थ स्थानों से मंगाए गए जल को वेद मंत्रों से पवित्र करके उससे बालक को स्नान कराया। छः कृत्तिकाओं द्वारा पोषित होने के कारण उस दिव्य बालक को 'कार्तिकेय' के नाम से जाना गया। तीर्थों के पवित्र जल से स्नान कराने के उपरांत सभी देवताओं ने कार्तिकेय को तरह-तरह की अमूल्य वस्तुएं, विद्याएं और अद्भुत शक्तियां प्रदान कीं। तब सर्वप्रथम देवी पार्वती ने अपने पुत्र को हृदय से लगाकर उसे चिरंजीव होने का आशीर्वाद प्रदान किया।
माता लक्ष्मी ने दिव्य मनोहर हार उस बालक को पहनाया तो देवी सावित्री ने सारी सिद्धि विधाएं उन्हें प्रदान कीं। फिर श्रीविष्णुजी ने रत्नों से निर्मित, किरीट मुकुट, बाजूबंद, वैजयंतीमाला और अपना सुदर्शन चक्र उन्हें प्रदान किया। भगवान शिव ने प्रसन्नतापूर्वक अपने पुत्र कार्तिकेय को शूल, पिनाक, फरसा, शक्ति, पाशुपास्त्र, बाण, संहारास्त्र आदि परम दिव्य वस्तुएं प्रदान कीं। फिर मुझ ब्रह्मा ने यज्ञोपवीत, वेद माता गायत्री ने कमंडल, ब्रह्मास्त्र तथा शत्रुओं का नाश करने वाली विद्या प्रदान की। देवराज इंद्र ने अपना वाहन ऐरावत हाथी और वज्र प्रदान किया। वायु देव वरुण ने श्वेत छत्र और रत्नों की मालाएं प्रदान कीं। सूर्यदेव ने मन की तरह तीव्र गति से चलने वाला द्रुतगामी रथ और शरीर की रक्षा करने वाला कवच भी प्रदान किया। यमराज द्वारा दंड और समुद्र देव द्वारा उन्हें अमृत भेंट किया गया। धन के अकूत भंडार के स्वामी कुबेर ने गदा दी। इस प्रकार सब देवताओं ने भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय को अनेकों प्रकार के अस्त्र- शस्त्र और उपहार प्रदान किए। सभी देवताओं और शिवगणों ने उनका अभिवादन किया। इस समय वहां पर बहुत बड़ा उत्सव होने लगा। चारों ओर हर्ष की लहर दौड़ रही थी।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड) पांचवा अध्याय समाप्त

कार्तिकेय का अद्भुत चरित्र

ब्रह्माजी बोले- नारद! इस प्रकार सभी अभीष्ट देवताओं से आशीर्वाद प्राप्त करके कुमार कार्तिकेय बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने सभी देवताओं का धन्यवाद व्यक्त किया। तत्पश्चात वे अपने सिंहासन पर जा बैठे। तभी वहां एक ब्राह्मण दौड़ता हुआ आया। उस ब्राह्मण ने आकर कार्तिकेय को प्रणाम किया और उनके चरण पकड़ लिए और बोला- हे स्वामी! मैं आपकी शरण में आया हूं। मुझ पर कृपा करके मेरे कष्ट को दूर करें। तब कार्तिकेय ने उस ब्राह्मण को उठाया और आदरपूर्वक अपने पास बैठाकर उसके दुखी होने का कारण पूछा। तब वह ब्राह्मण बोला- हे भगवन्! मैं अश्वमेध यज्ञ कर रहा हूं परंतु आज मेरा घोड़ा अपने बंधनों को तोड़कर कहीं चला गया है। हे प्रभु! मुझ पर कृपा करें और मेरे घोड़े को यथाशीघ्र ढूंढ़ दें, अन्यथा मेरा यज्ञ भंग हो जाएगा। यह कहकर वह ब्राह्मण पुनः कार्तिकेय के चरणों को पकड़कर रोने-गिड़गिड़ाने लगा। वह रोते-रोते बोला- आप पूरे ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं। आप सबकी सेवा करने को सदा तत्पर रहते हैं। आप सब देवताओं के स्वामी हैं और त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के पुत्र हैं। इस प्रकार उस ब्राह्मण द्वारा की गई स्तुति को सुनकर कुमार कार्तिकेय बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होंने अपने वीर बलशाली प्रमुख गण वीरबाहु को बुलाकर उस घोड़े को जल्दी से जल्दी ढूंढ़ लाने की आज्ञा प्रदान की तथा यज्ञ को विधि-विधान के अनुसार पूर्ण कराने के लिए कहा। तब वीरबाहु ने कार्तिकेय को प्रणाम किया और ब्राह्मण के घोड़े को ढूंढने के लिए निकल पड़ा। उसने पृथ्वीलोक पर हर जगह उस घोड़े को ढूंढ़ा। जिस व्यक्ति ने जो भी जानकारी दी उसके अनुसार वीरबाहु ने हर जगह उसकी तलाश की, परंतु वह असफल रहा। तब वह उस घोड़े की तलाश करने के लिए भगवान श्रीहरि विष्णु के लोक बैकुंठधाम गया। वहां जाकर वीरबाहु ने देखा कि एक घोड़े ने विष्णुलोक में बहुत आतंक मचा रखा था। विष्णुलोक में वह घोड़ा खूब उपद्रव कर रहा था। कुमार कार्तिकेय के उस गण वीरबाहु ने तुरंत उस घोड़े को बंधक बना लिया और उसे पकड़कर अपने स्वामी कार्तिकेय के पास ले आया। तब स्वामी कार्तिकेय पूरे संसार का भार लेकर उस घोड़े पर चढ़कर बैठ गए और उस घोड़े को पूरे त्रिलोक की परिक्रमा करने का आदेश प्रदान किया। वह अद्भुत घोड़ा एक ही पल में तीनों लोकों की परिक्रमा करके लौट आया। तब कुमार कार्तिकेय उस घोड़े से उतरकर पुनः अपने आसन पर बैठ गए। तब वह ब्राह्मण हाथ जोड़कर कार्तिकेय का धन्यवाद करने लगा और उनसे बोला कि प्रभु! आप यह घोड़ा मुझे सौंप दीजिए ताकि मैं अपना यज्ञ पूर्ण कर सकूं। तब कार्तिकेय मुस्कुराए और बोले - हे ब्राह्मण! यह घोड़ा उत्तम है और यह वध के योग्य नहीं है। इसलिए आप इसे अपने साथ ले जाने के लिए न कहें। मैं आपके यज्ञ को पूर्ण होने का वरदान देता हूं। मेरे आशीर्वाद से आपका यज्ञ अवश्य सफल होगा।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड) छठा अध्याय समाप्त

भगवान शिव द्वारा कार्तिकेय को सौंपना

ब्रह्माजी बोले- हे नारद! अपने पुत्र कार्तिकेय का अद्भुत पराक्रम देखकर भगवान शिव और देवी पार्वती बहुत प्रसन्न हुए । तब सब देवताओं सहित श्रीहरि विष्णु और देवराज इंद्र और मैं भी बहुत हर्षित हुए और भगवान शिव से बोले - हे देवाधिदेव ! भगवन्! आप तो सर्वेश्वर हैं, सर्वज्ञाता हैं। संसार की सब घटनाएं आपकी इच्छा से ही घटती हैं। आप तो जानते ही हैं कि ब्रह्माजी द्वारा असुरराज तारक को दिए गए वर के अनुसार शिव पुत्र ही उसका वध करने में सक्षम होगा। इसलिए ही कुमार कार्तिकेय का जन्म हुआ है। प्रभु ! हम लोगों के कष्टों को दूर करके हमारे जीवन को सुखी करने के लिए आप अपने पुत्र कार्तिकेय को आज्ञा दीजिए कि वह तारकासुर का वध करे। यह कहकर सब देवता भगवान शिव की स्तुति करने लगे। तब भगवान शिव का हृदय हम सबकी प्रार्थना से द्रवित हो उठा। उन्होंने हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और अपने पुत्र र कार्तिकेय को देवताओं को सौंप दिया। तब भगवान शिव ने अपने पुत्र कार्तिकेय को कुमार यह आज्ञा दी कि देवताओं की विशाल सेना का नेतृत्व करें और देवताओं के दुखों और संकटों को दूर करने के लिए तारकासुर का वध करें। अपने पिता भगवान शिव की यह आज्ञा पाकर स्वामी कार्तिकेय बहुत प्रसन्न हुए । तब उन्होंने हाथ जोड़कर अपनी माता पार्वती और पिता महादेव जी को प्रणाम किया और कहा कि हे माता! हे पिता ! आप मुझे विजयी होने का आशीर्वाद प्रदान करें। यह सुनकर भगवान शिव मुस्कुराए और बोले— कुमार ! निश्चय ही तुम अपने इस प्रथम युद्ध में अपने घोर शत्रु तारकासुर का वध करके विजयी होगे। हमारा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है। इधर देवी पार्वती के हृदय में अपने प्रिय पुत्र के युद्ध में जाने की बात सुनकर ही पीड़ा होने लगी। वात्सल्य के कारण उनकी आंखों में आंसू आ गए थे। वे बहुत दुखी हुई और कहने लगीं- हे नाथ! हे देवाधिदेव ! मेरा पुत्र कार्तिकेय अभी बहुत छोटा है और वह तारकासुर महाबलशाली और शक्तिशाली है। उस दुष्ट ने अपनी दुष्टता से सभी देवताओं को भी परास्त कर दिया है। जब इतनी शक्तियों के स्वामी देवता उसका कुछ नहीं बिगाड़ सके तो मेरा यह नन्हा सा पुत्र भला कैसे उसको हरा सकता है। मेरा दिल मुझे कार्तिकेय को युद्ध में भेजने की आज्ञा नहीं देता है। मैं अपने पुत्र को अपने साथ रखना चाहती हूं। यह वचन सुनकर सभी देवताओं सहित भगवान शिव भी चिंतित हो गए। तब महादेव जी देवी पार्वती को समझाते हुए बोले – हे देवी! हे शिवा ! आप सामान्य स्त्रियों की तरह क्यों व्यवहार कर रही हैं? यह मेरा और आपका पुत्र होने के कारण महाशक्तिशाली और वीर योद्धा है। देवताओं ने इसे अपनी अभीष्ट शक्तियां प्रदान की हैं। कार्तिकेय की जीत निश्चित है। कार्तिकेय का उत्पन्न होना तारकासुर के वध का प्रतीक है। आप व्यर्थ में चिंतित न हों और अपने पुत्र को खुशी- खुशी तारक के वध के लिए भेजें। भगवान शिव के ऐसे वचन सुनकर देवी पार्वती को बहुत संतोष हुआ और उन्होंने कार्तिकेय को युद्ध में जाने की आज्ञा दे दी। तब सब देवताओं का भय दूर हुआ और उनमें प्रसन्नता की लहर दौड़ गई।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड) सातवा अध्याय समाप्त

युद्ध का आरंभ

ब्रह्माजी बोले- नारद! जब देवी पार्वती और भगवान शिव ने कुमार कार्तिकेय को युद्ध का नेतृत्व करने की आज्ञा प्रदान की, तो सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए और एकत्र होकर उस पर्वत की ओर चल दिए। सिंहनाद करते हुए वे आगे बढ़ने लगे। उस समय कार्तिकेय सेना का नेतृत्व करते हुए सबसे आगे चल रहे थे। सब देवता मन में यही सोच रहे थे कि अब उन्हें तारकासुर नाम की मुसीबत से छुटकारा मिल जाएगा। जब तारकासुर को इस बात का पता चला कि देवताओं ने युद्ध की तैयारी पूरी कर ली है, तो तारकासुर ने भी तुरंत युद्ध की घोषणा कर दी। अपनी विशाल चतुरंगिणी सेना को लेकर तारक भी सिंहनाद करता हुआ देवताओं की ओर बढ़ने लगा। राक्षसों की सेना देखकर एक पल के लिए देवता घबरा गए। उसी समय आकाशवाणी हुई- हे देवगणो! तुम लोग भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय के नेतृत्व में युद्ध करने जा रहे हो। इसलिए तुम जरूर जीतोगे। तारकासुर कार्तिकेय के हाथों अवश्य मारा जाएगा।उस आकाशवाणी को सुनकर सभी देवताओं का उत्साह बढ़ गया और उनका डर दूर हो गया। उस समय 'दुंदुभी' और अनेक प्रकार के बाजों की ध्वनि आकाश में गूंजने लगी। तब देवता और राक्षस युद्ध करने के लिए पृथ्वी और सागर के संगम पर पहुंचे। दोनों पक्षों में बड़ा भयानक युद्ध छिड़ गया। युद्ध की भयंकर गर्जना से पृथ्वी भी डोलने लगी। देवताओं की सेना का नेतृत्व शिवपुत्र कार्तिकेय कर रहे थे। उनके पीछे-पीछे देवराज इंद्र सहित देवताओं की विशाल सेना थी। कार्तिकेय उस समय इंद्रदेव के ऐरावत हाथी पर विराजमान थे। तब उन्होंने उस हाथी को छोड़दिया और रत्नों से जड़े सुंदर यान पर बैठ गए। उस सुंदर विमान पर प्रचेता ने सुंदर छत्र रखा। उस सुंदर विमान में बैठकर कार्तिकेय बहुत निराले और शोभा संपन्न लग रहे थे। उसी समय देवताओं और असुरों में भयानक युद्ध प्रारंभ हो गया। पृथ्वी कांपने लगी और फल भर में खण्ड-मुण्डों में बदलने लगी। हजारों सैनिक, जो पराक्रम से लड़ रहे थे, कट- कटकर और घायल होकर धरती पर गिरने लगे। चारों तरफ खून की नदियां बहने लगी थीं। ऐसा भयानक दृश्य देखकर बहुत से भूत-प्रेत और गीदड़ - गीदड़ी उस मांस को खाने और खून पीने के लिए वहां आ गए। तभी महाबली तारकासुर ने विशाल सेना सहित देवताओं पर आक्रमण किया। देवराज इंद्र सहित अनेक देवताओं ने उसे रोकने का बहुत प्रयत्न किया परंतु असफल रहे और तारकासुर भयानक गर्जना करता हुआ आगे बढ़ता गया। चारों ओर भयानक शोर मचा हुआ था। आक्रमण करते समय सैनिक बड़े जोर-जोर से अपने मुंह से आवाज निकालते हुए आगे बढ़ रहे थे। देवताओं और राक्षसों का युद्ध बड़ा वीभत्स रूप ले चुका था। वहां भारी कोलाहल मचा हुआ था। तत्पश्चात देवताओं और असुरराज तारक के राक्षसगण आपस में द्वंद्व युद्ध करने लगे थे। एक-दूसरे को मारकर वे अपने को बहुत बलशाली समझ रहे थे। वे पूरे बल के साथ एक-दूसरे पर प्रहार करते। कोई किसी के हाथ तोड़ देता तो कोई पैर। दोनों सेनाएं अपने को पराक्रमी समझ रही थीं।
शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खंड)आठवां अध्याय समाप्त

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