सप्तऋषियों का आगमन और हिमालय को समझाना "वशिष्ठ मुनि का उपदेश Arrival of the Saptarishis and explaining the Himalayas "Sermon of Vashishtha Muni

सप्तऋषियों का आगमन और हिमालय को समझाना "वशिष्ठ मुनि का उपदेश

सप्तऋषियों का आगमन और हिमालय को समझाना

ब्रह्माजी बोले ;- ब्राह्मण के रूप में पधारे स्वयं भगवान शिव की बातों का देवी मैना पर बहुत प्रभाव पड़ा और वे बहुत दुखी हो गईं। वे अपने पति हिमालय से कहने लगीं कि इस ब्राह्मण ने शिवजी की निंदा की है, उसे सुनकर मेरा मन बहुत खिन्न हो गया है। जब भगवान शिव का रूप और शील सभी कुत्सित हैं तथा सभी उनके विषय में बुरा ही सोचते हैं और उन्हें मेरी पुत्री के सर्वथा अयोग्य मानते हैं, तो मैं अपनी प्रिय पुत्री का हाथ कदापि उनके हाथ में नहीं दूंगी। मुझे अपनी पुत्री अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है। यदि आपने मेरी बात नहीं मानी तो मैं इसी समय विष खा लूंगी और अपने प्राण त्याग दूंगी। साथ ही अपनी बेटी पार्वती को लेकर इस घर से चली जाऊंगी। मैं पार्वती के गले में फांसी लगा दूंगी, उसे वनों में ले जाऊंगी अथवा किसी सागर में डुबो दूंगी परंतु किसी भी हालत में उसका ब्याह पिनाकधारी शिव के साथ नहीं होने दूंगी ।यह कहकर देवी मैना रोती हुई तुरंत कोप भवन में चली गईं और उन्होंने कीमती वस्त्रों आभूषणों का त्याग कर दिया और जमीन पर लेट गईं। जब इस विषय में भगवान शिव को जानकारी हुई तो उन्होंने सप्तऋषियों को याद किया। वे तुरंत ही वहां आ गए। तब त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने सप्तऋषियों को देवी मैना को समझाने की आज्ञा देकर उनके घर भेजा।
त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का आदेश मिलने पर सप्तऋषि उन्हें श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके आकाश मार्ग से पर्वतों के राजा हिमालय के राज्य की ओर चल दिए । सप्तऋषि जब हिमालय के नगर के निकट पहुंचे तो वहां का ऐश्वर्य देखकर उसकी प्रशंसा करने लगे। वे सातों ऋषि आकाश में सूर्य के समान चमकते हुए जान पड़ते थे। उन्हें आकाश मार्ग से आता देखकर हिमालय को बहुत आश्चर्य हुआ। शैलराज सोचने लगे कि इन तेजस्वी सप्तऋषियों के आगमन से आज मेरा संपूर्ण राज्य धन्य हो गया।तभी सूर्यतुल्य तपस्वी सप्तऋषि आकाश से उतरकर पृथ्वी पर खड़े हो गए। गिरिराज हिमालय ने दोनों हाथ जोड़कर और अपना मस्तक झुकाकर आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया और उनका पूजन तथा स्तुति की। तत्पश्चात गिरिराज हिमालय ने कहा कि आज मेरा घर आपके चरणों की रज पाकर पवित्र हो गया है। मेरा जीवन आपके दर्शनों से धन्य हो गया है। फिर आदरपूर्वक हिमालय ने सप्तऋषियों को आसनों पर बैठाया। 
हिमालय बोले ;- आज मेरा जीवन सफल हो गया है। आज मेरा सम्मान इस संसार में बहुत बढ़ गया है। जिस प्रकार अनेक तीर्थों के दर्शनों को पुण्य कमाने का स्रोत माना जाता है उसी प्रकार आज मैं भी पवित्र तीर्थों के समान वंदनीय हो गया हूं। हे ऋषिगणो! आप साक्षात भगवान विष्णु के समान हैं। आपने हम दीनों के घरों की शोभा बढ़ा दी है। आज मैं स्वयं को संसार का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति मान रहा हूं। यद्यपि मैं एक तुच्छ अदना-सा मनुष्य हूं, फिर भी मेरे योग्य कोई सेवा हो तो मुझे अवश्य बताएं। आपका कार्य करके मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी।सप्तऋषि कहने लगे ;– हे शैलराज! भगवान शिव इस संपूर्ण जगत के पिता हैं। वे निर्गुण और निराकार हैं। वे सर्वज्ञ हैं। वे ही परम ब्रह्म परमात्मा हैं और वे ही सर्वेश्वर हैं। वे ही इस जगत का आदि और अंत हैं। आप भली-भांति त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के विषय में सबकुछ जानते ही हैं। वे भक्तवत्सल हैं और सदा ही अपने भक्तों के अधीन हैं। तुम्हारी परम प्रिय पुत्री देवी पार्वती ने भगवान शिव को अपनी कठोर तपस्या से प्रसन्न करके अपना मनोवांछित वर प्राप्त कर लिया है। उन्होंने प्रभु शिव को पति रूप में पाने का वर प्राप्त किया है। जिस प्रकार भगवान शिव को इस जगत का पिता माना जाता है, उसी प्रकार शिवा जगत माता कही जाती हैं। अतः आप अपनी कन्या पार्वती का विवाह महात्मा शिव शंकर से कर दीजिए। ऐसा करके आपका जन्म सफल हो जाएगा और आप गुरुओं के भी गुरु बन जाएंगे।
सप्तऋषियों के ऐसे वचन सुनकर हिमालय बोले ;- हे महर्षियो ! मेरे अहोभाग्य हैं, जो आपने मुझे इस योग्य समझकर मुझसे यह बात कही। सच कहूं तो मेरी हार्दिक इच्छा भी यही है कि मेरी पुत्री का विवाह भगवान शिव के साथ ही हो परंतु एक परेशानी यह है कि कुछ दिनों पूर्व एक ब्राह्मणदेव हमारे घर पधारे थे। उन्होंने भक्तवत्सल भगवान शिव के विषय में अनेक उल्टी-सीधी बातें कीं। उस वैष्णव ब्राह्मण ने शिवजी की घोर निंदा की। उन्हें अमंगलकारी बताया। ये सब बातें सुनकर मेरी पत्नी देवी मैना की बुद्धि पलट गई है। उनका समस्त ज्ञान भ्रष्ट हो गया है। अब वे अपनी पुत्री पार्वती का विवाह परम योगी रुद्रदेव से कदापि नहीं करना चाहती हैं। हे सप्तऋषियो, वे जिद करके बैठीं हैं कि वे अपनी पुत्री पार्वती का विवाह भगवान शिव से नहीं करेंगी। इसलिए वे लड़-झगड़कर, सभी आभूषणों तथा राजसी वस्त्रों को त्यागकर कोप भवन में जाकर लेट गई हैं। मेरे बहुत समझाने पर भी वे कुछ नहीं समझ रही हैं। आपसे सच-सच अपने दिल की इच्छा कहूं तो उन वैष्णव ब्राह्मण की बातें सुनकर अब मैं भी नहीं चाहता कि मेरी पुत्री का विवाह शिवजी से हो।
नारद! इस प्रकार भगवान शिव की माया से मोहित होकर गिरिराज हिमालय ने ये सब बातें कहीं और यह कहकर चुप हो गए। तब सप्तऋषियों ने कोप भवन में लेटी हुई देवी मैना को समझाने के लिए देवी अरुंधती को भेजा। अपने पति की आज्ञा पाकर देवी अरुंधती उस कोप भवन में पहुंचीं, जहां देवी मैना रुष्ट होकर पृथ्वी पर लेटी हुई थीं और पार्वती उनके पास ही बैठकर उन्हें समझा रही थीं। 
साध्वी अरुंधती बड़े ही मधुर स्वर में बोलीं - देवी मैना! उठिए मैं अरुंधती और सप्तऋषि तुम्हारे घर पधारे हैं। देवी अरुंधती को वहां अपने कक्ष में देखकर देवी मैना उठकर बैठ गईं और साक्षात लक्ष्मी के समान उन परम तेजस्विनी को देख उनके चरणों में अपना सिर रखकर बोलीं- आज हमारे घर में ब्रह्माजी की पुत्रवधू और महर्षि वशिष्ठ की पत्नी अरुंधती सहित सप्तऋषियों ने पधार कर हमें किस पुण्य का फल दिया है? आपके आने से हमारा कुल धन्य हो गया है। मैं आपसे यह जानना चाहती हूं कि आपके इस तरह यहां आने का क्या उद्देश्य है? देवी मैना के ऐसा कहने पर देवी अरुंधती मुस्कुराईं और उन्हें समझाकर कोपभवन से बाहर उस स्थान पर ले गईं जहां सप्तऋषियों सहित गिरिराज हिमालय बैठे हुए थे। तब देवी मैना को वहां आया देखकर श्रेष्ठ और परम ज्ञानी सप्तर्षि भगवान शिव को मन में स्मरण कर समझाने लगे।
सप्तऋषि बोले ;- हे शैलराज! तुम अपनी पुत्री पार्वती का विवाह त्रिलोकीनाथ - भक्तवत्सल भगवान शिव से कर दो। वे तो सर्वेश्वर हैं, वे कभी भी किसी से याचना नहीं करते। जगत की रचना के स्रोत ब्रह्माजी ने तारकासुर को यह वरदान दिया है कि केवल शिव पुत्र के हाथों ही उसका वध होगा। इस समय तारकासुर के कारण तीनों लोकों में हाहाकार मचा हुआ है। उसने देवराज इंद्र सहित सभी देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया है। साथ ही वह निर्दोष लोगों का भी शत्रु बन बैठा है। साधुओं और ऋषि-मुनियों को यज्ञ नहीं करने देता तथा उनकी पूजा-उपासना को तारकासुर के सैनिक समय-समय पर नष्ट कर देते हैं। उन्होंने सभी के जीवन को कष्टकारी बना रखा है। इस संसार में व्याप्त बुराइयों और दुष्प्रवृत्तियों के विनाश के लिए संहारक रुद्रदेव का पुत्र ही सबसे उपयुक्त है। उस वीर और बलवान पुत्र' की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि भगवान शिव विवाह कर लें। इसलिए ब्रह्माजी ने भगवान शिव से विवाह करने की प्रार्थना की है। यह सर्वविदित है कि भगवान शिव परम योगी हैं और विवाह के लिए उत्सुक नहीं हैं । तुम्हारी पुत्री पार्वती ने भगवान शिव की कठोर तपस्या करके शिव को अपना पति बनाने के लिए वर प्राप्त किया था। यही कारण है कि महादेवजी देवी पार्वती का पाणिग्रहण करना चाहते हैं।
सप्तऋषियों की यह बात सुनकर हिमालय विनयपूर्वक बोले ;- हे ऋषिगण! आपकी बातें सहीं हैं। परंतु जहां तक मैं जानता हूं शिवजी के पास न तो रहने के लिए घर है, न ही कोई नाते-रिश्तेदार हैं और न ही बंधु-बांधव हैं। उनके पास कोई राजपाट भी नहीं है और न ही वे ऐश्वर्य और विलासिता का जीवन ही जीते हैं। आप वेद विधाता ब्रह्माजी के पुत्र हैं। इसलिए मैं आपका आदर और सम्मान करता हूं। आप परम ज्ञानी हैं और यह जानते हैं कि जो पिता काम, मोह, भय अथवा लोभ के कारण अपनी कन्या का विवाह अयोग्य वर से कर देते हैं वे मरने के बाद नरक के भागी होते हैं। इसलिए मैं कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहता, जिससे मैं नरक का भागी बनूं। मैं अपनी प्रिय पुत्री पार्वती का विवाह स्वेच्छा से कभी भी शूलपाणि शिव के साथ नहीं करूंगा। यही मेरा और मेरी पत्नी मैना दोनों का फैसला है। हे महर्षियो । आप परम ज्ञानी और समझदार हैं। इसलिए हमारे लिए उचित विधान को बताकर हमें कृतार्थ करें।
श्रीरुद्र संहिता तृतीय खण्ड इकत्तीसवाँ अध्याय

वशिष्ठ मुनि का उपदेश

ब्रह्माजी बोले – हे नारद! हिमालय के कहे वचनों को सुनकर महर्षि वशिष्ठ बोले– हे शैलराज! भगवान शंकर इस संपूर्ण जगत के पिता हैं और देवी पार्वती इस जगत की जननी हैं। शास्त्रों की जानकारी रखने वाला उत्तम मनुष्य वेदों में बताए गए तीन प्रकार के वचनों को जानता है। पहला वचन सुनते ही बड़ा प्रिय लगता है परंतु वास्तविकता में वह असत्य व अहितकारी होता है। इस प्रकार का कथन हमारा शत्रु ही कह सकता है। दूसरा वचन सुनने में अच्छा नहीं लगता परंतु उसका परिणाम सुखकारी होता है। तीसरा वचन सुनने में अमृत के समान लगता है तथा वह परिणामतः हित करने वाला होता है। इस प्रकार नीति शास्त्र में किसी बात को कहने के तीन प्रकार बताए गए हैं। आप इन तीनों प्रकार में किस तरह का वचन सुनना चाहते हैं? मैं आपकी इच्छानुसार ही बात करूंगा। भगवान शंकर सभी देवताओं के स्वामी हैं, उनके पास दिखावटी संपत्ति नहीं है। वे महान योगी हैं और सदैव ज्ञान के महासागर में डूबे रहते हैं। वे ही सबके ईश्वर हैं। गृहस्थ पुरुष राज्य और संपत्ति के स्वामी मनुष्य को ही अपनी पुत्री का वर चुनता है। ऐसा न करके यदि वह किसी दीन-हीन को अपनी कन्या ब्याह दे तो उसे कन्या के वध का पाप लगता है।
शैलराज! आप शिव स्वरूप को जानते ही नहीं हैं। धनपति कुबेर आपका सेवक है। कुबेर को यहां धन की कौन-सी कमी है? जो स्वयं सारे संसार की उत्पत्ति, पालन और संहार करते हैं, उन्हें भोजन की भला क्या कमी हो सकती है? ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रदेव सभी भगवान शिव का ही रूप हैं। शिवजी से प्रकट हुई प्रकृति अपने अंश से तीन प्रकार की मूर्तियों को धारण करती है। उन्होंने मुख से सरस्वती, वक्ष स्थल से लक्ष्मी एवं अपने तेज से पार्वती को प्रकट किया है। भला उन्हें दुख कैसे हो सकता है? तुम्हारी कन्या तो कल्प-कल्प में उनकी पत्नी होती रही है एवं होती रहेगी। अपनी कन्या सदाशिव अर्पण कर दो। तुम्हारी कन्या के तपस्या करते समय देवताओं की प्रार्थना पर सदाशिव तुम्हारी कन्या के समीप पहुंचकर, उन्हें उनका मनोवांछित वर प्रदान कर चुके हैं। तुम्हारी पुत्री पार्वती के कहे अनुसार शिवजी तुमसे तुम्हारी कन्या का हाथ मांगने के लिए तुम्हारे घर दो बार पधारे थे पर तुम उन्हें नहीं पहचान सके। वे नटराज और ब्राह्मण वेशधारी शिव ही थे जो तुम्हारी कन्या का हाथ मांगने आए थे पर तुमने मना कर दिया। यह तुम्हारा दुर्भाग्य नहीं है तो क्या है?
अब यदि तुमने प्रेम से शिवजी को अपनी कन्या का दान न किया तो भगवान शंकर बलपूर्वक ही तुम्हारी कन्या से विवाह कर लेंगे। शैलेंद्र! यह बात अगर आप ठीक से नहीं समझेंगे तो आपका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। आपको शायद ज्ञात नहीं है कि पूर्व में देवी शिवा ने ही प्रजापति दक्ष की पत्नी के गर्भ से जन्म लिया था और सती के नाम से प्रसिद्ध हुई थीं। उन्होंने कठोर तपस्या करके भक्तवत्सल भगवान शिव को वरदान स्वरूप पति के रूप में प्राप्त किया था परंतु अपने पिता दक्ष द्वारा आयोजित महान यज्ञ में अपने पति त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की अवहेलना एवं निंदा होते देखकर उन्होंने स्वेच्छा से अपने शरीर को त्याग दिया था। वही साक्षात जगदंबा इस समय आपकी पत्नी मैना के गर्भ से प्रकट हुई हैं और कल्याणमयी भगवान शिव को जन्म-जन्मांतर की भांति पति रूप में पाना चाहती हैं। अतः गिरिराज हिमालय, आप स्वयं अपनी इच्छा से अपनी पुत्री का हाथ महादेव जी के हाथों में सौंप दीजिए। इन दोनों का साथ इस जगत के लिए मंगलकारी है।
शैलराज! यदि आप स्वेच्छा से शिवजी व देवी पार्वती का विवाह नहीं करेंगे तो पार्वती स्वयं अपने आराध्य भगवान शिव के धाम कैलाश पर्वत चली जाएंगी। आपकी प्रिय पुत्री पार्वती की इच्छा का सम्मान करते हुए ही भगवान शिव स्वयं आपसे पार्वती का हाथ मांगने के लिए वेश बदलकर आपके घर आए थे परंतु आपने उनको नहीं पहचाना और अपनी कन्या देने से इनकार कर दिया। आपके शिखर पर तपस्या के लिए पधारे भगवान शिव की देवी पार्वती ने जब सेवा की थी तो आप भी उनके इस निर्णय में उनके साथ थे। आपकी आज्ञा प्राप्त करके ही देवी पार्वती भगवान शिव को पति रूप में पाने की इच्छा लेकर तपस्या करने हेतु वन में गई थीं। उनके इस प्रण और कार्य को आपने सराहा था। फिर आज ऐसा क्या हो गया कि आप अपने ही वचनों से पीछे हट रहे हैं ।
भगवान शिव ने देवताओं की प्रार्थना स्वीकार करके हम सप्तऋषियों को और देवी अरुंधती को आपके पास भेजा है। इसलिए हम आपको यह समझाने आए हैं कि आप पार्वती जी का हाथ भगवान शिव के हाथों में दे दें। ऐसा करके आपको बहुत आनंद मिलेगा। भगवान शिव ने तपस्या के पश्चात प्रसन्न होकर देवी पार्वती को यह वरदान दिया है कि वे उनकी पत्नी हों। भगवान शिव परमेश्वर हैं। उनकी वाणी कदापि असत्य नहीं हो सकती। उनका वरदान अवश्य सत्य सिद्ध होगा। इसलिए हम सप्तऋषि आपसे यह अनुरोध कर रहे हैं कि आप इस विवाह हेतु प्रसन्नतापूर्वक अपनी स्वीकृति प्रदान करें। ऐसा करके आप अपने परिवार का ही नहीं समस्त मानवों और देवताओं का कल्याण करेंगे।
श्रीरुद्र संहिता तृतीय खण्ड बत्तीसवाँ अध्याय

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