भगवान शिव का अवधूतेश्वर अवतार सुरेश्वर अवतार ,Avadhuteshwar incarnation of Lord Shiva, Bhikshuvarya Shiva incarnation description, Sureshwar incarnation
भगवान शिव का अवधूतेश्वर अवतार ,भिक्षुवर्य शिव अवतार वर्णन ,सुरेश्वर अवतार
भगवान शिव का अवधूतेश्वर अवतार
नंदीश्वर बोले – हे ब्रह्मपुत्र ! एक समय की बात है, देवगुरु बृहस्पति ने देवराज इंद्र और सब देवताओं को साथ लेकर त्रिलोकीनाथ देवाधिदेव भगवान शिव के दर्शन करने के लिए उनके धाम कैलाश पर्वत की ओर प्रस्थान किया। देवराज इंद्र की परीक्षा लेने के लिए महान लीलाधारी भगवान शिव ने भयंकर अवधूत का रूप धारण किया। अग्नि के तेज से प्रज्वलित विशालकाय वे पुरुष बीच रास्ते में ही विराजमान हो गए। बृहस्पति जी के साथ इंद्र व अन्य देवता अद्भुत विशालकाय आकार वाले पुरुष को अपने मार्ग में बैठा देखकर आश्चर्यचकित हो गए। इंद्रदेव क्रोधित हो उठे। वे भी भगवान शिव को नहीं पहचान सके।
वे पूछने लगे- तुम कौन हो? तुम्हारा क्या नाम है और तुम कहां से आ रहे हो? मुझे जल्दी से बताओ । भगवान शिव क्या अपने स्थान पर ही विराजमान हैं या फिर कहीं गए हुए हैं? मैं देवगुरु व अन्य देवताओं के साथ कल्याणकारी परमेश्वर के दर्शनों के लिए यहां आया हूं। उनकी ऐसी बातों और प्रश्नों को सुनकर भी अवधूत रूप धारण किए शिवजी ने कोई उत्तर नहीं दिया। देवराज ने दुबारा पूछा। शिवजी फिर भी चुप रहे। देवराज इंद्र के बार-बार पूछने पर भी महायोगी शिवजी कुछ नहीं बोले। तब देवराज अपने ऐश्वर्य के घमंड के कारण क्रोधित हो उठे और जोर से चिल्लाते हुए बोले- ओ मूर्ख ! मेरे बार-बार पूछने पर भी तू कोई उत्तर क्यों नहीं देता है? अब मैं तुझे तेरी करनी का फल देता हूं और तुझ पर अपने वज्र का प्रहार करता हूं। देखता हूं तुझे मुझसे आज कौन बचाता है? यह कहकर देवराज इंद्र ने अपने हाथ में वज्र उठा लिया और शिवजी पर प्रहार करने लगे। लेकिन भगवान शिव ने इंद्र को वहीं जड़ कर दिया। उनका हाथ अपने स्थान से हिल न सका। अब तो इन्द्र क्रोध में अपना आपा खो बैठे। यह दृश्य देखकर देवगुरु बृहस्पति भगवान शिव को तुरंत पहचान गए। उन्होंने जान लिया कि देवराज को इस प्रकार उनके स्थान पर जड़ करने वाले स्वयं देवाधिदेव महादेव जी हैं। वे हाथ जोड़कर भगवान शिव की स्तुति करने लगे। फिर उन्होंने शिवजी से देवराज इंद्र के अपराध को क्षमा करने की प्रार्थना की। बृहस्पति जी बोले- भगवन्! अपने नेत्र से निकली हुई ज्वाला से इंद्र की रक्षा करो। उसे जीवनदान दो । तब भगवान शिव बोले- क्रोध में निकली इस ज्वाला को मैं वापस नहीं ले सकता। शिवजी के इन वचनों को सुनकर बृहस्पति जी बोले कि आप इस ज्वाला को कहीं और स्थापित कर दीजिए। यह सुनकर शिवजी मुस्कुराए और बोले - हे देवगुरु! इंद्र की जीवन रक्षा करने के कारण आप जगत में 'जीव' नाम से भी प्रसिद्ध होंगे। यह कहकर उन्होंने अपने नेत्र से निकली ज्वाला को हाथ में लेकर समुद्र में फेंक दिया। समुद्र में गिरते ही वह ज्वाला एक बालक के रूप में प्रकट हो गई। वह बालक सिंधुपुत्र जलंधर के नाम से विख्यात हुआ । भगवान शिव ने ही देवताओं के आग्रह पर उसका वध किया था। अवधूत रूप में ऐसी लीला करके शिवजी वहां से अंतर्धान हो गए और देवराज इंद्र, बृहस्पति जी व अन्य देवताओं के साथ प्रसन्नतापूर्वक घर को लौट आए।
शिव पुराण श्रीशतरुद्र संहिता तीसवां अध्याय
भिक्षुवर्य शिव अवतार वर्णन
नंदीश्वर बोले – हे मुनिश्रेष्ठ ! विदर्भ नाम के एक नगर में सत्यरथ नामक राजा का राज्य - था। वह भगवान शिव का परम भक्त था। एक बार उसके नगर पर उसके शत्रुओं ने आक्रमण किया। राजा सत्यरथ ने अपने शत्रुओं का सामना बहुत दृढ़ता से किया परंतु वह युद्ध में हार गया। उसके शत्रुओं ने उसे मार डाला। राजा के मारे जाने पर सारी सेना भयभीत होकर तितर-बितर हो गई। उस समय विदर्भ नरेश की पत्नी गर्भवती थी। जब रानी को सारी बातें ज्ञात हुई तो अपने प्राणों की रक्षा के लिए उसने रात में ही नगर छोड़ दिया। भगवान शिव का स्मरण करते हुए रानी पूर्व दिशा की ओर चली गई। बहुत दूर जाकर एक सरोवर के निकट एक सघन वट वृक्ष के नीचे अपनी कुटिया बनाकर वह रहने लगी। उसी स्थान पर रानी ने एक दिव्य बालक को जन्म दिया। एक दिन रानी अपने पुत्र को कुटिया में ही लिटाकर सरोवर से जल लेने गई तो वहां उसे एक घड़ियाल ने पकड़ लिया। उधर वह बालक अकेला पड़ा भूख-प्यास से व्याकुल होकर जोर-जोर से रोने लगा। उस बालक को रोता देखकर भक्तवत्सल दयालु भगवान शिव को उस पर दया आ गई। उन्होंने एक गरीब ब्राह्मणी को प्रेरित कर उस स्थान पर भेजा। वह विधवा ब्राह्मणी उस स्थान पर पहुंची, जहां वह बालक रो रहा था । उसको देखकर ब्राह्मणी का दिल द्रवित हो उठा। वह उस बालक के विषय में सोचने लगी कि अब इस बालक का क्या होगा? तभी भगवान शिव स्वयं भिक्षुक का रूप धारण कर वहां पहुंच गए और ब्राह्मणी से बोले —हे ब्राह्मणी! अपने मन में आने वाली शंका दूर करो। इस छोटे से बालक को उठा लो और इसे अपना पुत्र मानकर इसका पालन करो। तब उनके वचन सुनकर वह ब्राह्मणी बोली- ब्रह्मन्! मैं तो स्वयं इस बालक को पालने के बारे में ही सोच रही थी परंतु मेरा मन शंकित था। अब आपने मेरी दुविधा दूर कर दी है। अब मैं अवश्य ही इस बालक की माता बनकर इसे पालूंगी। पर मैं आपसे इतना जानना चाहती हूं कि आप कौन हैं और कहां से आए हैं? यह बालक किसका है और इस सुनसान जंगल में कैसे आ गया है? भिक्षुवर ! आपको देखकर मेरा मन बार-बार यह कह रहा है कि आप दया और करुणा के सागर भगवान शिव हैं, जो अपने भक्त की रक्षा के लिए यहां आए हैं। मैं भी आपकी माया से मार्ग में भटककर यहां आ गई हूं। मैं जानती हूं कि आपकी कृपा से इसका अवश्य ही कल्याण होगा। उस गरीब ब्राह्मणी की बातें सुनकर भिक्षुरूप धारण किए भगवान शिव बोले- 'हे ब्राह्मणी! यह बालक विदर्भनगर के नरेश सत्यरथ का पुत्र है, जिसे उसके शत्रुओं ने युद्ध में हराकर मौत के घाट उतार दिया है। सत्यरथ की गर्भवती पत्नी नगर से भागकर यहां आ गई थी। इस बालक को जन्म देने के पश्चात वह सरोवर में जल पीने गई, तो वहीं उसे घड़ियाल ने अपना आहार बना लिया। शिवजी के वचनों को सुनकर ब्राह्मणी फिर प्रश्न करती हुई बोली - भगवन्! किस कारण से यह बालक अनाथ और बंधुहीन हो गया है? बालक के पिता सत्यरथ को शत्रुओं ने क्यों मार दिया और किसलिए शिशु की माता को घड़ियाल ने खा लिया? मेरा स्वयं का पुत्र भी गरीब और निर्धन है। भला इसको कैसे सुख प्राप्त होगा? ब्राह्मणी के इन प्रश्नों को सुनकर भक्तवत्सल भगवान शिव अपने उसी भिक्षुक रूप में बोले-हे देवी! राजा सत्यरथ अपने पूर्व जन्म में पाण्डय देश के श्रेष्ठ राजा थे। वे सदैव शिव धर्म का पालन करते और भक्तिभाव से उनकी आराधना करते थे। एक दिन प्रदोषकाल में जब राजा भगवान शिव का पूजन कर रहे थे, उसी समय नगर में कोलाहल मचा। राज्य में विद्रोह फैलने की आशंका से राजा ने पूजा बीच में ही छोड़ दी। सैनिकों ने जिसे राजद्रोही के रूप में राजा के सामने ला खड़ा किया वह और कोई नहीं उसी राज्य का एक सामंत था। उसे देखकर पाण्डयराज क्रोध में अपना आपा खो बैठे और उस सामंत का सिर कटवा दिया। प्रदोष पूजन के नियम को समाप्त किए बिना राजा ने भोजन भी कर लिया। इसी तरह राजकुमार ने भी प्रदोष पूजन किए बिना भोजन कर लिया और सो गया। वह पाण्डयराज इस जन्म में विदर्भराज हुआ। प्रदोष में शिव पूजन को बीच में छोड़ देने की वजह से उसका वध कर दिया गया और पूर्व जन्म का उसका पुत्र इस जन्म में भी उसका पुत्र बनकर जन्मा है। शिव पूजन बिना खा-पीकर सो जाने के कारण ही वह दरिद्रता में घिरा हुआ है। इसकी माता ने भी पूर्व जन्म में छल से अपनी सौतन को मार दिया था। इसलिए उसे भी घड़ियाल ने खा लिया है। तुम्हारा पुत्र पूर्व जन्म में ब्राह्मण था और महादानी था परंतु इसने कोई यज्ञकर्म नहीं किए, इसी कारण इसे भी दरिद्रता का दण्ड मिला है। इन दोनों पुत्रों के दोषों को दूर करने के लिए तुम भगवान शिव की शरण में जाओ। वे ही तुम सबका कल्याण करेंगे। ब्राह्मणी को सबकुछ बताकर भगवान ने अपना सत्यरूप उन्हें दिखाया। साक्षात भगवान शिव के दर्शन कर ब्राह्मणी कृतार्थ हो गई और हाथ जोड़कर शिवजी की स्तुति करने लगी। तब आशीर्वाद देकर महादेव जी अंतर्धान हो गए। तत्पश्चात वह ब्राह्मणी उस बालक को अपने साथ ले गई। फिर वह अपने पुत्रों के साथ एकचक्र नामक गांव में रहने लगी और अपने दोनों पुत्रों का लालन-पालन करने लगी। समय आने पर ब्राह्मणों ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार किया। दोनों शांडिल्य मुनि के उपदेश सुनते और शिवजी की आराधना करते । समय बीतता गया। दोनों पुत्र बड़े हो गए। एक दिन ब्राह्मणी पुत्र को नदी में स्नान के लिए जाते समय सोने से भरा कलश मिला। उस सोने के कलश से उनकी गरीबी दूर हो गई। फिर भी वे नियम से शिवजी की आराधना करते। एक दिन वे वन में गए। वहां एक गंधर्व कन्या अपने पिता के साथ आई और वह राजकुमार पर मोहित हो गई। उसके पिता ने उसका विवाह राजकुमार से कर अपना राज्य उसे सौंप दिया। ब्राह्मणी वहां की राजमाता हुई और ब्राह्मण पुत्र उसका भाई। अब वे सब लोग प्रसन्नतापूर्वक राजसुख भोगने लगे। भगवान शिव का भिक्षुवर्य अवतार पुरुषार्थ का साधक और अभीष्ट फल देने वाला है।
शिव पुराण श्रीशतरुद्र संहिता इकत्तीसवां अध्याय
सुरेश्वर अवतार
नंदीश्वर बोले - हे सनत्कुमार जी! व्याघ्रपाद के पुत्र उपमन्यु पूर्व जन्म में प्राप्त सिद्धि के कारण मुनिकुमार के रूप में जन्मे थे। बचपन से ही वे अपनी माता के साथ अपने मामा के घर में रहा करते थे। वे बहुत गरीब थे। एक दिन उन्हें पीने के लिए बहुत कम दूध मिला। बालक दूध पीने का हठ करने लगा। मां के समझाने पर जब बालक न माना तो उसकी माता ने खेतों से बीनकर लाए गए दानों को पीसकर उससे कृत्रिम दूध तैयार किया और उसे अपने पुत्र को दिया। बालक ने जब उसे पिया तो वह जान गया था कि वह दूध नहीं बल्कि कुछ और है। अपने पुत्र को इस प्रकार रोता-बिलखता देखकर उसकी माता ने उसे गोद में बैठाया और उसके आंसुओं को पोंछते हुए बोली- बेटा ! हम वनों में रहने वाले लोगों के पास भला दूध कहां से आएगा? भगवान शिव की कृपा से ही तुम्हें दूध मिल सकता है। अपनी माता के ऐसे वचन सुनकर शोकाकुल व्याघ्रपाद का पुत्र बोला- मां! यदि सबकुछ प्रदान करने वाले भगवान शिव ही हैं तो मैं निश्चय ही उन्हें अपनी भक्ति से प्रसन्न करूंगा। यह कहकर वह बालक अपनी माता को प्रणाम कर वहां से चला गया। वह हिमालय पर्वत पर पहुंचा। वहां उसने एक छोटा-सा मंदिर बनाया और भगवान शिव व माता पार्वती की मूर्ति स्थापित की। तत्पश्चात जंगल के अनेकों फल-फूलों व वनस्पतियों से वह नित्य शिव-पार्वती की आराधना करता तथा पंचाक्षर मंत्र 'ॐ नमः शिवाय' का जाप करता। इस प्रकार उस बालक ने काफी समय तक भगवान शिव की कठोर तपस्या की। उपमन्यु की घोर तपस्या के प्रभाव से तीनों लोक प्रदीप्त हो उठे। तब भगवान शिव इंद्र का और देवी पार्वती इंद्राणी का रूप धारण करके नंदी के स्थान पर ऐरावत हाथी पर बैठकर उपमन्यु के पास आए। वे उपमन्यु से बोले- ऐ बालक ! हम तुम पर प्रसन्न हैं, मांगो क्या मांगना चाहते हो? हम तुम्हें सभी अभीष्ट फल प्रदान करेंगे। उनके वचन सुनकर उपमन्यु बोले कि यदि आप मुझ पर प्रसन्न होकर कुछ देना ही चाहते हैं तो मुझे भगवान शिव की भक्ति प्रदान कीजिए। तब देवराज इंद्र ने उपमन्यु से कहा कि उपमन्यु मैं देवताओं का स्वामी इंद्र हूं। तुम मेरी आराधना करो। मैं तुम्हें सारी अभीष्ट वस्तुएं प्रदान करूंगा। भगवान शिव तो मेरे समक्ष कुछ भी नहीं हैं। तुम उनको भूल जाओ। इस प्रकार इंद्र ने भगवान शिव की बहुत निंदा की। अपने आराध्य भगवान शिव की निंदा सुनकर उपमन्यु को क्रोध आ गया। उसने भगवान शिव का स्मरण करते हुए अपने हाथ में भस्म उठा ली और उसे अघोरमंत्र से अभिमंत्रित करके उसमें अग्नि प्रवाहित कर उसे देवराज इंद्र पर चला दिया। लेकिन वहां तो सारा दृश्य ही बदल गया था। तब इंद्र रूप धारण किए भगवान शिव ने उपमन्यु को अपने परमेश्वर स्वरूप के साक्षात दर्शन कराए। शिव में ही समस्त सृष्टि समाई हुई है, ऐसा उपमन्यु ने देखा । भगवान शिव बोले- हे उपमन्यु! मैं तुम्हारा पिता और देवी पार्वती तुम्हारी माता हैं। हम तुम्हारी आराधना से बहुत प्रसन्न हैं। मैं तुम्हें सनातन कुमारत्व प्रदान करता हूं। मैं दूध, दही और शहद व अन्य भोज्य पदार्थों का खजाना तुम्हें देता हूं। तुम अमरता को प्राप्त होगे और तुम्हें मेरे गणों का आधिपत्य मिलेगा। इस प्रकार शिवजी ने उपमन्यु को अनेक दिव्य वर प्रदान किए। तत्पश्चात भगवान शिव-पार्वती वहां से अंतर्धान हो गए। फिर उपमन्यु ने घर आकर अपनी माता को सारी बातें बताईं जिसे सुनकर उसकी माता बहुत प्रसन्न हुई । जिसे भगवान शिव के दर्शन हो गए हों, उसे और क्या कुछ चाहिए । तात! इस प्रकार भगवान शिव के सुरेश्वरातार की उत्तम कथा मैंने तुम्हें सुनाई। यह कथा सुख देने वाली तथा पापों को दूर कर मनोवांछित फल देने वाली है। इसे सुनने अथवा पढ़ने से सुखों की प्राप्ति होती है और अंत में अर्थात मृत्यु के उपरांत शिवलोक में निवास होता है।
शिव पुराण श्रीशतरुद्र संहिता बत्तीसवां अध्याय
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