वज्रांग का जन्म एवं पुत्र प्राप्ति का वर मांगना "तारकासुर का जन्म व उसका तप,Birth of Vajrang and asking for the boon of having a son "Birth of Tarakasura and his penance
वज्रांग का जन्म एवं पुत्र प्राप्ति का वर मांगना "तारकासुर का जन्म व उसका तप
वज्रांग का जन्म एवं पुत्र प्राप्ति का वर मांगना
नारद जी कहने लगे ;- ब्रह्माजी! तारकासुर कौन था? जिसने देवताओं को भी पीड़ित किया। उन्हें स्वर्ग से निष्कासित कर दिया और स्वर्ग पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया। कृपया मुझे इसके विषय में बताइए ।ब्रह्माजी बोले - हे मुनि नारद! मरीचि के पुत्र कश्यप मुनि थे। उनकी तेरह स्त्रियां थीं, जिसमें सबसे बड़ी दिति थीं। उससे हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र हुए। हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष को श्रीहरि विष्णु ने वाराह तथा नृसिंह का रूप धारण करके मार दिया था। तब अपने पुत्रों के मर जाने से दुखी होकर दिति ने कश्यप से प्रार्थना की तथा उनकी बहुत सेवा की। उनकी कृपा से दिति पुनः गर्भवती हुई। जब इंद्र को इस बात का पता • चला तो उन्होंने दिति के गर्भ में ही उनके बच्चे के छोटे-छोटे टुकड़े कर दिए परंतु दिति के व्रत एवं अन्य भक्तिभाव से बालक को मारने में वे सफल न हुए। समय पूरा होने पर उसके गर्भ से उनचास बालक उत्पन्न हुए। ये सभी भगवान शिव के गण हुए तथा शीघ्र ही स्वर्ग में चले गए। तत्पश्चात दिति पुनः अपने पति कश्यप मुनि के पास गई और उनसे पुनः मां बनने के विषय में कहने लगीं। तब कश्यप मुनि ने कहा- हे प्रिय दिति! अपना तन-मन शुद्ध कर भक्ति भाव से तपस्या करो। दस हजार वर्ष बीतने के पश्चात तुम्हें तुम्हारी इच्छा के अनुरूप पुत्र की प्राप्ति होगी। यह सुनकर दिति ने श्रद्धापूर्वक दस हजार वर्षों तक कठोर तपस्या की। तपस्या के उपरांत पुनः वे अपने घर लौट आईं। तब कश्यप मुनि की कृपा से दिति गर्भवती हुई। इस बार उन्होंने एक अत्यंत पराक्रमी और बलवान पुत्र को जन्म दिया। इस पुत्र का नाम वज्रांग था । वज्रांग दिति की इच्छा के अनुरूप ही था। दिति इंद्र द्वारा किए गए छल-कपट से बहुत दुखी थी और उनसे बदला लेने के लिए अपने पुत्र वज्रांग को देवताओं से युद्ध करने की आज्ञा दी।वज्रांग और सभी देवताओं का बहुत भयानक युद्ध हुआ। तत्पश्चात वीर और पराक्रमी वज्रांग ने अपनी माता के आशीर्वाद से सभी देवताओं को परास्त कर दिया और स्वर्ग का राज्य हथिया कर वहां का राजा बन गया। सभी देवता उसके अधीन हो गए। तब यह देखकर दिति को बहुत प्रसन्नता हुई। एक दिन कश्यप मुनि के साथ मैं स्वयं वज्रांग के पास गया। मैंने वज्रांग से अनुरोध किया कि वह देवताओं को इंद्र की गलती की सजा न दे तथा इंद्र सहित सभी देवताओं को क्षमा कर दे। मेरे इस प्रकार कहने पर वज्रांग बोला- हे ब्रह्मन्! मुझे राज्य का कोई लोभ नहीं है। मैंने इंद्र की दुष्टता के कारण ही ऐसा किया है। इंद्र ने मेरी माता के गर्भ में घुसकर मेरे भाइयों को मारने का प्रयत्न किया था। तभी मैंने इंद्र के राज्य को जीतकर उसे स्वर्ग से निष्कासित कर दिया है। भगवन्! मुझे भोग-विलास की भी कोई इच्छा नहीं है। इंद्र सहित सभी देवता अपने-अपने कर्मों का फल भोग चुके हैं। अब मैं स्वर्ग का राज्य इंद्र को वापस सौंप सकता हूं। मैंने अपनी माता की आज्ञा मानकर यह सब किया है। प्रभो! आप मुझे सार तत्व का उपदेश दें, जिससे मुझे सुख की प्राप्ति हो। वज्रांग के उद्देश्य को उत्तम जानकर मैंने उसे सात्विक तत्व के बारे में समझाया। फिर मैंने एक सुंदर व गुणी स्त्री उत्पन्न की और उसका विवाह वज्रांग से करा दिया। वज्रांग ने अपने सभी बुरे विचारों को त्याग दिया परंतु उसकी पत्नी के हृदय में बुरे विचारों का ही मानो साम्राज्य था। उसकी पत्नी ने उसकी बहुत सेवा की। तब प्रसन्न होकर वज्रांग ने कहा- हे प्राणप्रिया! तुम क्या चाहती हो? मुझे बताओ। मैं तुम्हारी इच्छाएं अवश्य पूरी करूंगा। यह सुनकर वह परम सुंदरी बोली- पतिदेव! यदि आप मेरी सेवा से प्रसन्न हैं तो कृपया मुझे इस त्रिलोकी को जीतने वाला महापराक्रमी और बलवान पुत्र प्रदान करिए। जो ऐसा बलवान हो कि समस्त देवता उससे भयभीत रहें। अपनी पत्नी के ऐसे वचन सुनकर वज्रांग सोच में डूब गया क्योंकि वह स्वयं देवताओं से किसी प्रकार का कोई बैर नहीं रखना चाहता था परंतु उसकी पत्नी देवताओं के साथ शत्रुता बढ़ाना चाहती थी। वज्रांग सोचने लगा कि यदि सिर्फ अपनी पत्नी की इच्छा को सर्वोपरि मानकर उसे पूरा कर दिया तो सारे संसार सहित देवताओं एवं मुनियों को दुख उठाना पड़ेगा और यदि पत्नी की इच्छा को पूरा नहीं किया तो मैं नरक का भागी बनूंगा। तब इस धर्म संकट में पड़ने के बाद उसने अपनी पत्नी की अभिलाषा को पूरा किया। अपनी पत्नी की इच्छानुसार पुत्र प्राप्त करने हेतु वज्रांग ने बहुत वर्षों तक कठोर तपस्या की। मुझसे वर प्राप्त कर अत्यंत हर्षित होता हुआ वज्रांग अपनी पत्नी को पुत्र प्रदान करने हेतु अपने लोक में चला गया।
श्रीरुद्र संहिता तृतीय खण्ड चौदहवां अध्याय
तारकासुर का जन्म व उसका तप
ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! कुछ समय बाद वज्रांग की पत्नी गर्भवती हो गई। समय पूर्ण होने पर उसकी पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया। वह बालक बहुत लंबा-चौड़ा था। उसका शरीर बहुत अधिक विशाल था । वह अत्यंत शक्तिशाली और पराक्रमी था। उसके जन्म के समय सारे संसार में कोहराम मच गया। चारों ओर उपद्रव होने लगे। आकाश में भयानक बिजलियां चमकने लगीं तथा चारों दिशाओं में भयंकर गर्जनाएं होने लगीं। धरती पर भूकंप आ गया। पहाड़ कांपने लगे। नदी, सरोवर का जल जोर-जोर से उछलने लगा। चारों ओर आंधियां चलने लगीं। सूर्य को राहु ने निगल लिया और चारों ओर अंधकार छा गया। उसके जन्म के समय के ऐसे अशुभ लक्षणों को देखते हुए कश्यप मुनि ने उसका नाम तारक रखा । तारक का जन्म हो जाने पर वज्रांग के घर ही उसका लालन-पालन होने लगा। थोड़े ही समय में तारक का शरीर और बड़ा हो गया। वह पर्वत के समान विशाल और विकराल होता जा रहा था। कुछ समय पश्चात तारक ने अपनी माता और पिता वज्रांग से तपस्या करने की आज्ञा मांगी। तब उसके माता-पिता ने प्रसन्नतापूर्वक उसको आज्ञा प्रदान कर दी। साथ ही उसकी माता ने उसे यह आदेश दिया कि वह देवताओं को अवश्य जीते और उन पर अपना आधिपत्य कर स्वर्ग पर अधिकार कर ले।अपनी माता की आज्ञा पाकर वज्रांग का पुत्र तारक तपस्या करने के लिए मधुवन चला गया। वहां तारक ने मुझे प्रसन्न करने के लिए कठोर तप करना आरंभ कर दिया। उसने अपने दोनों हाथों को सिर के ऊपर ऊंचा कर लिया और ऊपर की ओर देखने लगा तथा एक पैर पर खड़े होकर एकाग्र मन से सौ वर्ष तक तपस्या करता रहा। उस समय वह केवल जल और वायु से ही अपना जीवन यापन कर रहा था। तत्पश्चात उसने सौ वर्ष जल में, सौ वर्ष थल में, सौ वर्ष अग्नि में रहकर कठिन तप करके मुझे प्रसन्न करने का प्रयत्न किया। फिर सौ वर्ष पृथ्वी पर हथेली धारण करके, सौ वर्ष वृक्ष की शाखा को पकड़कर तथा अनेकों प्रकार के दुख सह सहकर वह तप करता रहा। इस तपस्या के प्रभाव से उसके शरीर से तेज निकलने लगा। जिससे देव लोक जलने लगा। यह देखकर सभी देवता घबरा गए। फिर मैं स्वयं तारकासुर के पास वरदान देने के लिए गया। मैंने तारकासुर से कहा- तारक! मैं तुम्हारी इस दुस्सह तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। तुमने इस प्रकार कठोर तप करके मुझे प्रसन्न किया है। तुम्हारा इसके पीछे क्या प्रयोजन है, निस्संकोच मुझे बताओ। मैं तुम्हें तुम्हारा मनोवांछित फल अवश्य प्रदान करूंगा। तुम अपनी इच्छानुसार वर मांगो। ब्रह्माजी के इन वचनों को सुनकर तारकासुर उनकी स्तुति करने लगा।तत्पश्चात वह बोला ;- हे विधाता! हे ब्रह्माजी! अगर आप मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर मुझे वरदान देना चाहते हैं तो प्रभु मुझे पहला वर यह दें कि आपके द्वारा बनाई गई इस सृष्टि में, मेरे समान कोई भी तेजवान और बलवान न हो। दूसरा वर यह दें कि मैं अमर हो जाऊं अर्थात कभी भी मृत्यु को प्राप्त न होऊं। तब मैंने कहा कि इस संसार में कोई भी अमर नहीं है । इसलिए तुम इच्छानुसार मृत्यु का वर मांगो। तारक ने अहंकार भरी विनम्रता से निवेदन किया- भगवन्! मेरी मृत्यु भगवान शंकर के वीर्य से उत्पन्न बालक के चलाए हुए शस्त्र से ही हो और कोई मेरा वध न कर पाए।मैंने तारक को उसके मांगे हुए वर प्रदान कर दिए तथा अपने लोक में लौट आया। वर पाकर तारक बहुत खुश था। वह भी वर प्राप्ति का समाचार देने के लिए अपने घर को चला गया। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने तारक को असुरों का राजा बना दिया। अब तारक तारकासुर नाम से प्रसिद्ध हो गया। वह तीनों लोकों पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहता था इसलिए सबको पीड़ित कर, उनसे युद्ध कर, उन्हें हराकर सबके राज्यों पर अपना अधिकार करता जा रहा था। स्वर्ग के राजा इंद्र ने भी डरकर अपना वाहन ऐरावत हाथी, अपना खजाना और नौ सफेद रंग के घोड़े उसे दे दिए। ऋषियों ने डर के मारे कामधेनु गाय तारकासुर को दे दी। इसी प्रकार अन्य देवताओं ने भी अपनी-अपनी प्रिय वस्तुएं तारकासुर को अर्पित कर दीं। अन्य लोगों के पास भी जो उत्तम उत्तम वस्तुएं थीं उन्हें भी दैत्यराज तारक ने अपने अधिकार में कर लिया। इतना ही नहीं समुद्रों ने भी भयभीत होकर अपने अंदर छिपे सभी अमूल्य रत्न निकालकर तारकासुर को सौंप दिए। तारकासुर के भय से पूरा जगत कांपने लगा था। उसका आतंक दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा था। पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा, वायु, अग्नि सभी तारकासुर के डर के कारण अपने सभी कार्य सुचारु रूप से कर रहे थे। दैत्यराज तारकासुर ने देवताओं और पितरों के भागों पर भी अपना अधिकार जमा लिया था। उसने इंद्र को युद्ध में हराकर स्वर्ग का सिंहासन भी हासिल कर लिया था। उसने स्वर्ग के में सभी देवताओं को वहां से निष्कासित कर दिया, जो अपनी प्राण रक्षा के लिए इधर-उधर भटक रहे थे।
श्रीरुद्र संहिता तृतीय खण्ड पंद्रहवां अध्याय
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