ब्रह्मचारी अवतार,सुन नर्तक अवतार ,शिवजी का द्विज अवतार ,Brahmachari incarnation, Sun dancer incarnation, Dwija incarnation of Shiva, Shiva incarnation of Ashwatthama.
ब्रह्मचारी अवतार,सुन नर्तक अवतार ,शिवजी का द्विज अवतार ,अश्वत्थामा का शिव अवतार
ब्रह्मचारी अवतार
नंदीश्वर बोले-हे महामुने! प्रजापति दक्ष की पुत्री सती ने जब अपने पिता द्वारा होने वाले यज्ञ में अपने पति देवाधिदेव महादेव जी का अपमान होते हुए देखा तो वहीं, उसी यज्ञ में उन्होंने अपने प्राणों को त्याग दिया। तत्पश्चात वे गिरिराज हिमालय के यहां पार्वती के नाम से जन्मीं। अपनी सखियों के साथ वन में विहार करतीं। पार्वती के मन में देवर्षि नारद ने भगवान शिव को पाने की ललक जगाई। इस कार्य की सिद्धि के लिए देवी पार्वती ने भगवान शिव की आराधना और तपस्या करनी आरंभ कर दी। जब भगवान शिव को उनके इस उत्तम तप की सूचना मिली तो उन्होंने पार्वती जी के पास सप्तऋषियों को भेजा । सप्तऋषियों ने वहां जाकर देवी पार्वती की परीक्षा ली और भगवान शिव के पास लौट आए। शिवजी को प्रणाम कर उन्होंने वहां का सारा समाचार उन्हें सुनाया। सप्तऋषियों से देवी पार्वती की तपस्या के विषय में जानकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने स्वयं उनकी परीक्षा लेने का निर्णय किया। शिवजी ने वृद्ध ब्रह्मचारी का वेश बनाया और पार्वती जी के आश्रम की ओर चल दिए। अपने द्वार पर एक वृद्ध ब्राह्मण ब्रह्मचारी को आया देखकर देवी पार्वती ने उनको आसन पर बैठाया और उनका पूजन-आराधन करने के पश्चात उनका आतिथ्य किया। तत्पश्चात वे उनसे पूछने लगीं- हे महात्मा ! आप कौन हैं और कहां से आए हैं? तब उन मुनि ने उत्तर दिया - हे देवी! मैं तो स्वच्छंद विचरण करने वाला एक साधारण तपस्वी हूं। मैं सदा मानव सेवा में लगा रहता हूं और दूसरों को सुख देने का कार्य करता हूं। देवी, आप मुझे बताइए कि आप कौन हैं? और इतनी कम उम्र में सब सुखों आदि का त्याग कर इस निर्जन वन में क्यों तपस्या कर रही हैं? तब देवी पार्वती उन ब्रह्मचारी रूप धारण किए भगवान शिव के प्रश्नों का उत्तर देते हुए बोलीं- हे मुने! मैं गिरिराज हिमालय और देवी मैना की पुत्री पार्वती हूं। मैंने भगवान शिव को अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है और उन्हीं को अपने पति के रूप में पाने की इच्छा मन में लेकर मैं शिवजी की तपस्या कर रही हूं ताकि वे मुझ पर अपनी कृपादृष्टि कर मुझे कृतार्थ करें। देवी पार्वती के वचन सुनकर वे मुनि बोले- हे देवी! तुमने सारे देवताओं को, जो कि अत्यंत सुंदर, सजीले और ऐश्वर्य संपन्न हैं, छोड़कर उस वैरागी, विकृतात्मा और जटाधारी भगवान शिव को अपने वर के रूप में चुना है। वे सदा अकेले रहते हैं और इधर-उधर भटकते रहते हैं। इस प्रकार वह ब्रह्मचारी भगवान शिव की बहुत निंदा करने लगा। उस ब्रह्मचारी के मुंह से अपने आराध्य भगवान शिव की निंदा सुनकर पार्वती को बहुत क्रोध आया। तब वह बोलीं- हे मुने! मैंने तो आपको एक योगी-तपस्वी जानकर आपकी पूजा और आराधना की थी, परंतु आप तो मूर्ख और धूर्त हैं, जो परमेश्वर शिव के विषय में ऐसे विचार रखते हैं। आपने मेरे सम्मुख भगवान शिव की निंदा करके मुझे भी अपने पाप का भागी बना दिया है और मेरी तपस्या के सारे पुण्यों को नष्ट कर दिया है। फिर वे अपनी सखी से बोलीं कि यह ब्राह्मण है, इसलिए हम इसको इनकी करनी का फल अर्थात दण्ड नहीं दे सकते। इससे पूर्व कि यह फिर हमसे त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी भक्तवत्सल देवाधिदेव शिव की निंदा करे, हमें यह स्थान छोड़कर चले जाना चाहिए। यह कहकर देवी पार्वती अपनी सखियों के साथ उस स्थान से जाने लगीं तब परमेश्वर शिव ने उन्हें अपने साक्षात शिव स्वरूप के दर्शन दिए, जिस स्वरूप की आराधना पार्वती जी करती थीं। उन्हें देखकर पार्वती जी बहुत प्रसन्न हुईं और उनकी स्तुति करने लगीं। तब भगवान शिव मुस्कुराते हुए बोले- हे देवी! मैं तुम्हारी उत्तम तपस्या से प्रसन्न हूं। मैं तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए ही ब्रह्मचारी का रूप धारण करके आया था। मेरे प्रति तुम्हारी श्रद्धा और भक्ति ने मुझे यहां आने पर मजबूर कर दिया है। मांगो, क्या मांगना चाहती हो? मैं तुम्हारी प्रसन्नता के लिए सब अभीष्ट तुम्हें प्रदान करूंगा। भगवान शिव के ये उत्तम वचन सुनकर देवी पार्वती शर्माते हुए बोलीं- हे भक्तवत्सल ! आप तो तीनों लोकों के ज्ञाता हैं। भला आपसे भी कोई बात छिपी रह सकती है। फिर भी यदि आप मेरे मन की इच्छा जानना चाहते हैं तो मुझे अपनी पत्नी होने का वरदान दीजिए। तब भगवान शिव ने देवी पार्वती को उनका इच्छित वर दिया और उनका पाणिग्रहण किया। इस प्रकार मैंने आपसे शिवजी के ब्रह्मचारी अवतार का वर्णन किया। यह कथा सुख देने वाली और दुखों को दूर करने वाली है।
शिव पुराण श्रीशतरुद्र संहिता तेंतीसवां अध्याय
सुन नर्तक अवतार
नंदीश्वर बोले - हे सनत्कुमार जी ! देवी पार्वती की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर जब भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए तब देवी पार्वती ने उनसे उनकी पत्नी बनने का वर मांगा। भगवान शिव ने प्रसन्नतापूर्वक उनका इच्छित वरदान उन्हें प्रदान किया। देवी पार्वती को वरदान देकर शिवजी अंतर्धान हो गए और पार्वती जी अपने घर वापस आ गईं। वहां आकर उन्होंने अपने माता-पिता को सारी बातें बताईं। तब उनके घर में प्रसन्नता छा गई और चारों ओर महोत्सव होने लगा। खुश होकर गिरिराज हिमालय ने ब्राह्मणों को बहुत दान-दक्षिणा दी। फिर गंगा स्नान करने चले गए। एक दिन जब गिरिराज हिमालय गंगा स्नान हेतु गए थे, भगवान शिव ने सुंदर नट-नर्तक का रूप धारण किया और मैना के घर पहुंच गए। उनके बाएं हाथ में शिवलिंग और दाहिने हाथ में डमरू था। उन्होंने लाल रंग के वस्त्र पहन रखे थे। पीठ पर गुदड़ी टांग रखी थी। ऐसे रूप में वे मैना के घर के आंगन में आकर सुंदर नृत्य एवं गान करने लगे। अपने डमरू को बजाकर वे अनेक प्रकार की लीलाएं दिखाने लगे। नगर के सारे वृद्ध, नर-नारी और बच्चे प्रसन्नतापूर्वक उनका नृत्य देख रहे थे। महारानी मैना खुश होकर एक पात्र भरकर स्वर्ण मुद्राएं एवं रत्न नट को देने गई परंतु नट के रूप में आए भगवान शिव ने उन्हें लेने से इनकार कर दिया और कहा कि यदि आप वाकई प्रसन्न होकर मुझे कुछ देना ही चाहती हैं तो अपनी पुत्री पार्वती का हाथ मेरे हाथ में दे दीजिए। उस नट-नर्तक की बात सुनकर देवी मैना को बहुत क्रोध आया और वे नट को बुरा-भला कहने लगीं। उसी समय गिरिराज हिमालय भी गंगा स्नान करके वापस लौट आए। जब उन्हें इस बात का पता चला तो उन्होंने अपने सेवकों को उस नट को वहां से बाहर निकालने की आज्ञा दी। सेवक नट की ओर बढ़े ही थे कि मायावर लीलाधारी भगवान शिव ने मैना और हिमालय को पार्वती सहित क्षणभर के लिए अपने दिव्यरूप के दर्शन कराए और अगले ही पल तेज कदमों से चलकर वहां से गायब हो गए। नट-नर्तक के चले जाने के उपरांत देवी मैना और गिरिराज हिमालय बैठकर नट के विषय में बात करने लगे और उसी की लीलाओं की प्रशंसा करने लगे। तभी माया से मोहित उनको उस नट-नर्तक के देवाधिदेव महादेव भगवान शिव होने का ज्ञान प्राप्त हुआ। तब उन्हें बहुत दुख हुआ कि हमने अपने द्वार पर पधारे शिवजी का अपमान किया और उन्हें अपनी कन्या नहीं सौंपी। यह विचारकर दोनों बहुत दुखी हुए और अपने अपराध का प्रायश्चित करने हेतु भगवान शिव की आराधना करने लगे। उनकी भक्तिभाव से की गई पूजा से प्रसन्न होकर शिवजी ने देवी पार्वती का पाणिग्रहण किया। यह शिवजी के नट-नर्तक अवतार का माहात्म्य मैंने तुम्हें सुनाया। यह वर्णन सब अभीष्ट फलों को प्रदान करने वाला है।
शिव पुराण श्रीशतरुद्र संहिता चौंतीसवां अध्याय
शिवजी का द्विज अवतार
नंदीश्वर बोले- हे सनत्कुमार जी ! जब देवी मैना और गिरिराज हिमालय ने अपने द्वार पर नट का रूप धारण करके आए शिवजी को अपनी कन्या देने से इनकार कर दिया तब उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ और वे क्षमा याचना करने हेतु भगवान शिव की भक्तिभाव से आराधना करने लगे। उनकी शिवजी में परम भक्ति स्थापित हो गई। उनकी इस घनिष्ठ भक्ति से देवता चिंतित हो उठे। उन्हें लगा कि यदि गिरिराज ने अपनी भक्ति से प्रसन्न कर शिवजी को अपनी कन्या पार्वती दे दी तो उन्हें भगवान शिव द्वारा निर्वाण प्राप्त हो जाएगा और वे संसार के बंधनों से छूटकर परम शिवलोक को प्राप्त कर लेंगे। गिरिराज हिमालय तो रत्नों का आधार हैं और यदि ये मुक्त हो गए तो पृथ्वी रत्नगर्भा कैसे कहलाएगी? फिर तो वे अपना वर्तमान स्थिर रूप त्याग कर दिव्य रूप को धारण कर लेंगे और शिवलोक के वासी हो जाएंगे। यह सब सोचकर देवताओं को चिंता सताने लगी और वे अपनी समस्या का समाधान करने हेतु देवगुरु बृहस्पति की शरण में गए। वहां जाकर उन्होंने बृहस्पति जी को प्रणाम किया और बोले - हे देवगुरु! आप कोई ऐसा उपाय करें जिससे गिरिराज हिमालय भगवान शिव की भक्ति से विरक्त हो जाएं। आप हिमालय के पास जाकर उनसे शिवजी की निंदा करें। देवराज इंद्र के ऐसे वचन सुनकर देवगुरु बृहस्पति बोले कि मैं परम कल्याणकारी परमेश्वर की निंदा नहीं कर सकता। आप अपना यह कार्य किसी अन्य देवता से पूर्ण कराइए। देवगुरु के इनकार कर देने पर इंद्र सब देवताओं सहित ब्रह्माजी के पास गए और उनसे हिमालय के घर जाकर भगवान शिव की निंदा करने के लिए कहने लगे। तब ब्रह्माजी ने भी भक्तवत्सल कल्याणकारी भगवान शिव की निंदा करने से मना कर दिया। यह सुनकर देवराज इंद्र निराश हो गए। तब ब्रह्माजी ने उनसे कहा कि इंद्र इस संसार में हर कार्य भगवान शिव की आज्ञा से ही पूर्ण होते हैं। तुम अपने कार्य की सिद्धि हेतु उन्हीं की शरण में जाओ। वे अवश्य ही तुम्हारे हित का कार्य करेंगे। तब ब्रह्माजी से आज्ञा लेकर देवराज भगवान शिव के पास गए और उनसे सारी बातें कहीं। उनकी बातें सुनकर कल्याणकारी भगवान शिव ने इंद्र को उनके कार्य की पूर्ति का आश्वासन देकर वहां से विदा किया। देवराज इंद्र के कार्य को पूरा करने के लिए शिवजी ने साधु का वेश धारण किया। उन्होंने हाथ में दण्ड और छत्र लिया, मस्तक पर तिलक, गले में शालिग्राम और हाथ में स्फटिक की माला ली तथा भगवान श्रीहरि विष्णु का नाम जपते हुए गिरिराज हिमालय के राजदरबार में पहुंच गए। अपने दरबार में आए उन तपस्वी को देखकर हिमालय ने सिंहासन को त्याग दिया और स्वयं उन्हें प्रणाम कर यथायोग्य आसन देकर उनका परिचय पूछा। तब ब्राह्मण देवता बोले-हे गिरिराज मैं एक तपस्वी ब्राह्मण हूं और परोपकार व सेवा के लिए भ्रमण करता रहता हूं। अपनी दिव्य दृष्टि और योगबल से मुझे ज्ञात हुआ है कि आप अपनी लक्ष्मी स्वरूपा बेटी पार्वती का विवाह शिवजी से करना चाहते हैं परंतु शायद आप यह नहीं जानते कि शिवजी कुलहीन, बंधु-बांधवहीन, आश्रयहीन, एकाकी रहने वाले, कुरूप, निर्गुण, अव्यय, श्मशान वासी, गले में सर्प धारण करने वाले हैं। वे सदा अपने शरीर पर चिता की भस्म लपेटे रखते हैं। ऐसे व्यक्ति को अपनी परमगुणी सुंदर कन्या को सौंपना सर्वथा अनुचित है। यह कहकर महान लीलाधारी भगवान शिव साधु रूप में ही वहां से चले गए। उनकी बातों का मैना - हिमालय पर गहरा प्रभाव पड़ा और वे भगवान शिव की भक्ति से विमुख होकर इस सोच में डूब गए कि आगे क्या करें? इस प्रकार मैंने तुमसे शिवजी के साधु वेशधारी द्विज अवतार का वर्णन किया।
शिव पुराण श्रीशतरुद्र संहिता पैंतीसवां अध्याय
अश्वत्थामा का शिव अवतार
नंदीश्वर बोले - हे सर्वज्ञ सनत्कुमार जी ! देवगुरु बृहस्पति के पुत्र मुनि भारद्वाज हुए और उनके पुत्र के रूप में द्रोण का जन्म हुआ। द्रोण बचपन से महान धनुर्धारी, महातेजस्वी और सब अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता थे। यही नहीं, धनुर्वेद और सभी वेदों के महाज्ञाता थे। अपने इन्हीं गुणों के कारण आप कौरवों और पाण्डवों के आचार्य बने और द्रोणाचार्य इस नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्हीं द्रोणाचार्य ने अपने मन में पुत्र प्राप्ति की कामना लेकर भगवान शिव की आराधना की और अपनी घोर तपस्या से त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया। शिव ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए । शिवजी द्वारा वर मांगने के लिए कहने पर द्रोणाचार्य बोले - हे प्रभु! यदि आप मेरी आराधना से संतुष्ट होकर प्रसन्न हुए हैं तो भगवन्! मुझे अपने अंश से पैदा होने वाला पुत्र प्रदान कीजिए, जो वीर, पराक्रमी और अजेय हो । द्रोणाचार्य को उनका इच्छित वर प्रदान कर शिवजी अंतर्धान हो गए। तत्पश्चात मुनि द्रोण प्रसन्नतापूर्वक अपने घर को चल दिए और वहां जाकर उन्होंने अपनी पत्नी को वरदान प्राप्ति के बारे में बताया। जिसे सुनकर उनकी पत्नी बहुत प्रसन्न हुई । निश्चित समय पर मुनि द्रोण की पत्नी ने एक वीर बालक को जन्म दिया, जिसका नाम अश्वत्थामा रखा गया। अश्वत्थामा वीर और पराक्रमी योद्धा हुए और उन्होंने कौरव सेना का मान बढ़ाया। जब कौरव पाण्डवों का युद्ध हुआ तो अश्वत्थामा के कारण कौरव सेना अजेय हो गई और वह पाण्डव सेना पर हावी होने लगी। शिवजी के अंश से उत्पन्न होने के कारण ही अश्वत्थामा ने पाण्डव पुत्रों को युद्ध में मार डाला था। यह देखकर अर्जुन बहुत क्रोधित हुए और अपने पुत्रों का नाश करने वाले पर आक्रमण करने लगे। अर्जुन के सारथी के रूप में स्वयं श्रीकृष्ण थे। अर्जुन को अपनी ओर आता देखकर अश्वत्थामा ने उन पर ब्रह्मशिर नामक अस्त्र छोड़ दिया, जिससे सारी दिशाएं प्रचण्ड तेज से प्रकाशित हो उठीं। अश्वत्थामा के इस अस्त्र को देख अर्जुन एक पल के लिए विचलित हो गए। उन्होंने श्रीकृष्ण से इसका उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण बोले- हे अर्जुन! यह बहुत घातक शक्ति है। और इससे तुम्हारी रक्षा स्वयं भगवान शिव ही कर सकते हैं। तुम उन्हीं का स्मरण करके इस अस्त्र का नाश करो। तब अर्जुन ने हाथ जोड़कर भगवान शिव की मन से बहुत आराधना और स्तुति की। तत्पश्चात उन्होंने जल को छूकर शैवास्त्र छोड़ा। इसके प्रभाव से अश्वत्थामा द्वारा चलाया गया ब्रह्मशिर अस्त्र शांत हो गया। फिर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन सहित सब पाण्डवों को अश्वत्थामा से आशीर्वाद लेने के लिए कहा। श्रीकृष्ण की आज्ञा मानते हुए सभी पाण्डवों ने अश्वत्थामा को प्रणाम किया। तब प्रसन्न होकर अश्वत्थामा ने पाण्डवों को अनेकों वर प्रदान किए और फिर अपने कर्तव्य को निभाते हुए कौरव सेना से मिलकर पुनः पाण्डवों से युद्ध करने लगे। इस प्रकार भगवान शिव ने परम भक्त द्रोण के घर पुत्र के रूप में जन्म लेकर अनेक लीलाएं रचीं।
शिव पुराण श्रीशतरुद्र संहिता छत्तीसवां अध्याय
टिप्पणियाँ