आदि सृष्टि का वर्णन ,मैथुनी सृष्टि वर्णन , कश्यप वंश का वर्णन,Description of Adi Creation, Description of Maithuni Creation, Description of Kashyap Dynasty
आदि सृष्टि का वर्णन ,मैथुनी सृष्टि वर्णन , कश्यप वंश का वर्णन
आदि सृष्टि का वर्णन
सूत जी बोले- हे ऋषिगण ! सत् और असत् का परम स्वरूप प्रधान पुरुष परमात्मा ही ब्रह्माजी के रूप में सृष्टि को उत्पन्न करते हैं। वे ही सृष्टि के रचयिता हैं। विष्णुजी इस सृष्टि का पालन और शंकरजी इसका संहार करते हैं। ब्रह्माजी ने जब सृष्टि की रचना के बारे में सोचा तो सबसे पहले जल की उत्पत्ति हुई। जल को नरक पुत्र कहा जाता है और जल में नारायण रहते हैं। ब्रह्माजी ने स्वयं यज्ञ किया और स्वयंभू कहलाए। जल में सर्वप्रथम एक अण्डा हुआ जिसके दो भाग हिरण्यगर्भ ने किए। अण्डे के ये दो भाग आकाश और पृथ्वी हुए। ब्रह्माजी ने अधो भाग में चौदह भुवन, मध्य में आकाश की रचना की। उन्होंने ही जल के ऊपर पृथ्वी की रचना की। आकाश में दस दिशाओं की रचना हुई। ब्रह्माजी ने तत्पश्चात मन, वार्णी, काम, क्रोध, रूप और रति की भी रचना की। मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, वशिष्ठ महामुनि तेजस्वी ऋषियों के रूप में विश्व प्रसिद्ध हुए। ये सब ऋषि ही सप्तऋषि के नाम से जाने जाते हैं और इनका वर्णन सभी पुराणों में किया गया है। पुराणों और सप्तऋषि रचना के पश्चात यज्ञ सिद्धि के लिए ऋग, यजु, साम और अथर्व वेदों का निर्माण ब्रह्माजी ने किया। तत्पश्चात उन्होंने देव पूजन किया। वक्षस्थल से पितर जंघाओं से मानव एवं जंघा के नीचे के भाग से दैत्य बनाए गए। इस प्रकार ब्रह्माजी ने सारी सृष्टि की रचना पूरी की परंतु उनकी बनाई गई इस सृष्टि में विकास न होता देखकर ब्रह्माजी ने प्रकृति और पुरुष को बनाया जिन्होंने सृष्टि का निर्माण किया। भगवान नर और नारायण द्वारा बनाई गई सृष्टि प्रजा अमैथुन सृष्टि से उत्पन्न हुई।
शिव पुराण श्रीउमा संहिता उनतीसवां अध्याय
सृष्टि रचना क्रम
सूत जी बोले- हे ऋषिगण ! इस प्रकार ब्रह्माजी द्वारा निर्मित सृष्टि का निरंतर प्रसार होने लगा। प्रजापति ने अयोनिजा शतरूपा से विवाह किया। शतरूपा ने सौ वर्षों तक तपस्या करके उन्हें पति रूप में प्राप्त किया। इन्हीं के मनु नामक पुत्र हुए। मनु से इकहत्तर मनुओं की रचना मन्वंतर संज्ञा कहलाती है। फिर वीरका हुई। इनसे उत्तानपाद की उत्पत्ति हुई। राजा उत्पाद का विवाह सुनीति से हुआ। इन्हीं के परम तेजस्वी पुत्र के रूप में ध्रुव पैदा हुआ। ध्रुव ने ब्रह्माजी की तीन हजार वर्षों तक कठोर तपस्या करके सप्तऋषियों से भी ऊपर स्थान प्राप्त किया था। पुष्टि और धान्य नामक ध्रुव के दो पुत्र हुए। पुष्टि की पत्नी सुनत्था थी। उनसे रिपु, रिपुजय, विप्र, नकल, वृष, तेजा नामक पांच पुत्र पुष्टि को प्राप्त हुए। रिपु से चाक्षुष, पूष्करर्ण पत्नी से चाक्षुष को वरुण नामक पुत्र प्राप्त हुए। सुनीथा से अंग को बेन नामक पुत्र की प्राप्ति हुई । बेन के शरीर से ऋषिगण ने मंथन किया। उनके दक्षिण हाथ से राजा पृथु पैदा हुए, जो भगवान विष्णु के अवतार थे। पृथु ने पृथ्वी का दोहन किया ताकि प्रजा का हित हो सके। इनके विजिताश्व और हर्यश्व नामक दो पुत्र हुए। शिखंडिनी ने वीर वर्णिनी से विवाह किया। इनसे प्रजापति की प्राप्ति हुई, जो कि सोम के अंश थे। तत्पश्चात दक्ष ने दो पैर वाले और चार पैर वाले जीवों को उत्पन्न किया। हर्यश्व नामक दस हजार पुत्र उत्पन्न किए, जो महर्षि नारद के वचनों और उपदेशों को सुनकर वैरागी हो गए। फिर ब्रह्माजी ने शवलाश्व नामक दस हजार पुत्र उत्पन्न किए जिन्हें नारद जी ने वैरागी बना दिया। यह सब जानकर दक्ष बहुत क्रोधित हुए। क्रोधित दक्ष ने देवर्षि नारद को शाप दिया- नारद! तुमने मेरे पुत्रों को गलत मार्ग पर डाल दिया है। उन्हें मुझसे दूर कर दिया है। इसलिए तुम भी कहीं चैन से नहीं बैठ सकोगे। तुम्हारा कोई निश्चित ठिकाना नहीं होगा। तुम जगह-जगह घूमते रहोगे । पुत्रों के बाद दक्ष की तेरह कन्याएं हुईं। जिनका विवाह कश्यप, अंगिरा, कृष्णश्व एवं चंद्रमा से हुआ। इस प्रकार अनेकों जीवों का निर्माण करने के पश्चात भी ब्रह्माजी की सृष्टि का विकास नहीं हुआ। तब उन्होंने मैथुनी सृष्टि का सृजन करने के बारे में सोचा।
शिव पुराण श्रीउमा संहिता तीसवां अध्याय मैथुनी सृष्टि वर्णन
शौनक जी बोले- हे सूत जी ! कृपा करके मुझे देव, दानव, गंधर्व, राक्षस और सर्पों आदि के बारे में बताइए । यह सुनकर सूत जी बोले- जब ब्रह्माजी द्वारा निर्मित सृष्टि का प्रजापति द्वारा विकास नहीं हुआ तब वीरसा ने अपनी कन्या का विवाह धर्म से कर दिया और मैथुनी- सृष्टि का आरंभ हुआ। प्रजापति दक्ष के पांच हजार पुत्र नारद जी के उपदेश का अनुसरण करते हुए ज्ञान की तलाश में घर छोड़कर चले गए और फिर कभी नहीं लौटे। इसी कारण दुखी दक्ष ने देवर्षि नारद को शाप दिया था। तत्पश्चात प्रजापति दक्ष ने अट्ठावन कन्याएं उत्पन्न की और उनका विवाह कश्यप, चंद्रमा, अरिष्टनेम, कृशाश्व, अंगिरा से कर दिया। जिनसे इन्हें विश्व से विश्व देवता, संध्या से साध्य, मरुवती से मरुत्वान, वसु से आठ वसु, भानु से बारह भानु, मुहूर्तज, लंबा से घोस, यामि से नाग, वीथी एवं अरुंधती से पृथ्वी उत्पन्न हुए। संकल्पा से संकल्प, वसु से अय, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूषा, प्रभाष ये आठ पुत्र पैदा हुए। आठवें वसु प्रभा से विश्वकर्मा प्रजापति की उत्पत्ति हुई। वे शिल्प कला में निपुण थे। विश्वकर्मा देवताओं के लिए आभूषण, विमान, घर एवं अनेक वस्तुएं उनकी इच्छानुसार बनाया करते थे। इसी कारण विश्वकर्मा देवताओं के शिल्पी कहलाए। रैवत अज, भीम, भव, उग्र, बाम, वृष, कपि, अजैकपाद, अहिर्बुघ्न, बहुरूप एवं महान ये ग्यारह रुद्र प्रधान हैं। वैसे तो सरूपा के अनेकों पुत्र हुए और उनसे पैदा हुए रुद्रों की संख्या करोड़ों में है परंतु इन्हीं ग्यारह रुद्रों को ही मुख्य माना जाता है। ग्यारह रुद्र संसार के स्वामी भी कहे जाते हैं।
शिव पुराण श्रीउमा संहिता इकतीसवां अध्याय
कश्यप वंश का वर्णन
सूत जी बोले- अदिति, दिति, सुरसा, अरिष्ठा, इला, दनु, सुरभि, विनीता, ताब्रा, क्रोध, वशी, कटू आदि कश्यप ऋषि की पत्नियां थीं। मन्वंतर में तुषिता नामक बारह देवता अदिति से उत्पन्न हुए। इनकी उत्पत्ति लोकहित के लिए ही हुई थी। दक्ष कन्या से ही विष्णुजी व इंद्रदेव की भी उत्पत्ति हुई। सोम की सत्ताईस पत्नियां थीं। उनके अरिष्टनेमि नामक सोलह पुत्र एवं एक कन्या हुई। कुशाश्व का देव प्रहरण नामक पुत्र हुआ। स्वधा तथा सती इनकी दो पत्नियां थीं। स्वधा से पितर व सती से अंगिरा पैदा हुए। कश्यप जी को दिति से हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष पुत्र प्राप्त हुए। विप्रचित्ति द्वारा सिंहा कन्या हुई। हिरण्यकशिपु को अनुह्लाद, व्रह्लाद, सव्लाद एवं प्रह्लाद नामक चार पुत्र प्राप्त हुए। प्रह्लाद भगवान के परम भक्त थे। हिरण्याक्ष के कुकर, शकुनि, महानाद, विक्रांत एवं काल नामक पांच पुत्र हुए। अयोमुख, शंबर, कपाल, वामन, वैश्वानर, पुलोमा, विद्रवण, महाशिर, स्वर्भानु, वृषपर्वा, विप्रचित्ति की प्रभा कन्याएं हुईं। वैश्वानर की पुलोम और पुलोमक कन्याओं का विवाह मरीचि से हुआ जिनसे उन्हें दानवों की प्राप्ति हुई। राहू, शल्प, सुबलि, बल, महाबल, बातपि, नमुचि, इल्वल, स्वसृप, ओजन, नरक, कालनाम, शरमाण, शर कल्प आदि इनके वंशवर्द्धक हुए। विनिता से गरुण एवं अरुण पैदा हुए। सुरसा से अत्यंत तेजस्वी एवं परम ज्ञानी सर्पों की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार क्रोधवशा के बहुत से गण हुए। सुरभ से शशा एवं भैंसा, झला से बैल एवं वृक्ष, शशि से यक्ष, राक्षस, अप्सरा व मुनिगण तथा अरिष्ठा से मनुष्य एवं सर्प उत्पन्न हुए। इस प्रकार मैंने आपको कश्यप जी के वंश में उत्पन्न पुत्र एवं पौत्रों का वर्णन किया।
शिव पुराण श्रीउमा संहिता बतीसवां अध्याय
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