नंदकेश की महिमा वर्णन ,महाबली शिव माहात्म्य Description of glory of Nandkesh, greatness of Mahabali Shiva

नंदकेश की महिमा वर्णन ,महाबली शिव माहात्म्य

नंदकेश की महिमा वर्णन

सूत जी बोले- हे ऋषियो ! कालंज्जर नामक पर्वत पर श्री नीलकंठेश्वर शिवलिंग स्थित है। यह भक्तों के लिए कल्याणकारी है। वहीं पर एक सुंदर कुण्ड है। जो मनुष्य उस कुण्ड में स्नान करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे मुक्ति मिल जाती है। रेवा नदी के किनारे असंख्य लिंग हैं, जो अमोघ फल देने वाले हैं। इनकी महिमा अनंत है। मैं आपको भगवान शिव के लिंगों की महिमा के बारे में बताता हूं। आर्तेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग पापों का नाश करने वाला है। यहीं पर परमेश्वर व सिद्धेश्वर नामक लिंग भी है। रेवा नदी के किनारे रामेश्वर, कुमारेश्वर, पुण्डरीश्वर, मंडलेश्वर एवं तीक्ष्णेश्वर नामक शिवलिंग हैं। इनके दर्शनों से भक्तों के सभी पापों का नाश हो जाता है। नर्मदा नदी के किनारे स्थित धुंधुरेश्वर, शालेश्वर, कुंभेश्वर, सोमेश्वर, नीलकण्ठेश्वर, मंगलेश्वर व नंदिकेश्वर नामक शिवलिंग सभी कामनाओं को पूरा करने वाले तथा मुक्ति प्रदान करने वाले हैं। ऋषियों ने कहा- हे सूत जी ! अब आप हम पर कृपा करके हमें नंदकेश्वर लिंग की महिमा के बारे में बताइए । ऋषियों का अनुरोध मानकर सूत जी ने नंदकेश लिंग की महिमा के विषय में बताना शुरू किया। वे बोले- रेवा नदी के किनारे कर्णि नामक नगरी है। उस नगरी में एक ब्राह्मण अपनी पत्नी और दो पुत्रों के साथ रहते थे। जब वे वृद्ध हो गए तब ब्राह्मण अपने परिवार को वहीं छोड़कर स्वयं शिवनगरी काशी चले गए। कुछ समय पश्चात वहां पर उनकी मृत्यु हो गई। जब ब्राह्मणी और उसके पुत्रों को इसकी सूचना मिली तो उन्होंने काशी जाकर ब्राह्मण की अंत्येष्टि एवं अन्य संस्कार किए। तत्पश्चात वे वापस घर लौट गए। कुछ समय बाद ब्राह्मणी का भी अंत समय निकट आ गया। वह बीमार रहने लगी थी। तब उसने अपने पुत्रों को बुलाकर उन्हें अपनी अंतिम इच्छा बताई। ब्राह्मणी बोली – पुत्रो ! मेरी मृत्यु के पश्चात मेरी अस्थियों को गंगाजी में प्रवाहित करना तथा मेरा पिण्डदान एवं श्राद्ध काशी में ही करना । पुत्रों ने उनकी इच्छा पूरी करने का वचन दिया। जैसे ही बड़ा पुत्र सुवाद माता के लिए पानी लेने गया उसने प्राण त्याग दिए। अपनी माता की आखिरी इच्छा पूर्ण करने हेतु सुवाद ने उसकी अस्थियों को काशी ले जाने का निश्चय किया। उसे बीस योजन का मार्ग तय करना था। रास्ते में ही रात घिर गई। तब सुवाद ने एक ब्राह्मण के यहां रात गुजारने का फैसला किया। उस ब्राह्मण के घर रुककर सुवाद भगवान शिव का पूजन करने के पश्चात वहीं पर विश्राम करने लगा। तभी वहां उसे एक अद्भुत बात दिखाई दी।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता पांचवां अध्याय

ब्राह्मणी की सद्गति व मुक्ति

सूत जी बोले - हे ऋषियो! जिस ब्राह्मण के घर में सुवाद ठहरा था, वह सुबह शाम दोनों समय अपनी गाय का दूध निकाला करता था। आज भी उसने अपनी स्त्री से कहा कि बरतन दे दो, मैं दूध निकालता हूं। तब उसकी पत्नी ने दूध का पात्र दे दिया और बछड़े को खोलकर गाय के पास भेज दिया। परंतु बछड़े ने जैसे ही थोड़ा-सा दूध पिया उसे तुरंत गाय के पास से हटा दिया गया। मां के पास से हटा देने पर बछड़ा उछलने लगा, जिससे ब्राह्मण के पैर में ठोकर लग गई। क्रोधित होकर ब्राह्मण ने बछड़े को बहुत पीटा और गाय का दूध निकाल लिया। गाय दुखी होकर रोने लगी कि अपने बच्चे को दूध भी नहीं पिला सकती। मैं अपने बच्चे को पिटते हुए देखती रही परंतु उसकी कोई मदद नहीं कर सकी। तब बछड़ा अपनी माता को समझाने लगा कि माता तुम धैर्य रखो। जो जैसा करता है वह उसी का फल भी भोगता है। अपने बछड़े की ज्ञान भरी बातें सुनकर गाय बोली- मैं जानती हूं कि तुम सही कह रहे हो परंतु अपने पुत्र की दुर्दशा मुझसे देखी नहीं जाती। मुझे उस ब्राह्मण को दण्ड देना ही होगा क्योंकि यदि मैं कुछ नहीं करूंगी तो यही सब बार-बार होगा। तब बछड़ा अपनी माता से बोला- मां! यदि आप ब्राह्मण को मारोगी तो आपको ब्रह्महत्या का पाप लगेगा । अपने पुत्र की ऐसी बातें सुनकर गाय ने कहा- पुत्र ! तुम ठीक कह रहे हो, परंतु गाय को सताने का दण्ड ब्राह्मण को अवश्य मिलना चाहिए। बाकी रही ब्रह्महत्या, उसके पाप को मिटाने का उपाय मैं जानती हूं। यह कहकर गाय चुप हो गई। गाय और बछड़े की ये बातें सुवाद ने सुन ली थीं। यह सब सुनकर उसने सोचा कि मैं अपनी मां की अस्थियां लेकर काशी जा रहा हूं परंतु मैं यह भी देखना चाहता हूं कि गाय ब्रह्महत्या के पाप से कैसे मुक्त होती है। और अपना बदला कैसे लेती है? प्रातःकाल होने पर सुवाद वहां का दृश्य देखने लगा। उस दिन ब्राह्मण ने अपने पुत्र से दूध निकालने के लिए कहा। उसके पुत्र ने भी गाय के बछड़े को पीटना शुरू कर दिया, जिससे गाय को क्रोध आ गया और उसने अपने सींगों का प्रहार लड़के की बगल में कर दिया। यह देखकर ब्राह्मण-ब्राह्मणी दोनों दौड़ते हुए अपने पुत्र के पास आए परंतु कुछ ही देर में उनके पुत्र के प्राण पखेरू उड़ गए। तब हाहाकार मच गया। सब रोने लगे। ब्राह्मण ने पीट-पीटकर गाय और उसके बछड़े को घर से निकाल दिया। ब्रह्महत्या की दोषी उस गाय का रंग सफेद से काला पड़ गया। जैसे ही गाय और बछड़ा घर से निकले, वह पथिक सुवाद भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। वह देखना चाहता था कि गाय क्या करती है और कहां जाती है? चलते-चलते वे नर्मदा नदी के किनारे पहुंचे, जहां पर पहले से ही नंदिकेश्वर महादेव विराजमान थे। गाय ने नर्मदा नदी में  तीन गोते लगाए तो उसका काला रंग पुनः सफेद हो गया। यह देखकर सुवाद को बड़ा आश्चर्य हुआ। गाय वहां से निकलकर कहीं अन्यत्र चली गई। तब नर्मदा को प्रणाम कर ब्राह्मणी पुत्र सुवाद ने भी नदी में स्नान किया। फिर नंदिकेश्वर का विधिपूर्वक पूजन करने के पश्चात वह काशी को चल पड़ा। रास्ते में सुवाद को एक युवती दिखाई दी, जिसने सुंदर वस्त्र एवं अलंकार धारण किए हुए थे। उसने सुवाद से पूछा-ब्राह्मण देवता! आप इस प्रकार प्रसन्न होकर कहां से आ रहे हैं और कहां जा रहे हैं? तब सुवाद ने उस युवती को सारी बातें बता दीं और कहा कि मैं अपनी माता की आज्ञा को पूर्ण करने हेतु उनकी अस्थियां काशी ले जा रहा हूं। तब यह सुनकर वह युवती बोली- ब्राह्मण! तुम बहुत भोले-भाले हो। यह तीर्थ अत्यंत पवित्र है। प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन नर्मदा की पवित्र धारा में स्वयं गंगाजी आती हैं। आज वही शुभ दिन है, इसलिए तुम अपनी माता की अस्थियों को यहीं प्रवाहित कर दो। यह कहकर वह युवती अंतर्धान हो गई। सुवाद पुनः नर्मदा नदी की ओर लौट आया तथा उसकी पवित्र धारा में सुवाद ने अपनी माता की अस्थियां प्रवाहित कर दीं। तभी उसे एक दिव्य दृश्य दिखाई दिया। उसकी माता दिव्य देह धारण किए शिवलोक को जा रही थी और उसे आशीर्वचन देते हुए कह रही थी कि तुम धन्य हो, तुमने अपनी माता को सद्गति प्रदान कर दी है। पुत्र को आशीर्वाद देते हुए वह ब्राह्मणी शिवलोक को चली गई।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता छठवां अध्याय

नंदिकेश्वर लिंग की स्थापना

यह कथा सुनकर ऋषियों ने सूत जी से पूछा-हे भगवान सूत जी ! वैशाख शुक्ल पक्ष की सप्तमी को गंगाजी नर्मदा नदी में क्यों आती हैं? वहां भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग नंदिकेश्वर कैसे स्थापित हुआ? कृपा कर हमारी इस जिज्ञासा को शांत कीजिए। ऋषियों के प्रश्न को सुनकर सूत जी बोले- एक बार की बात है, नर्मदा नदी के किनारे ऋषिका नाम की एक विधवा ब्राह्मणी रहा करती थी। तरुणावस्था में ही उसका पति पूर्व जन्म के पापों के कारण चल बसा था। तभी से ऋषिका भगवान शिव के चरणों का ध्यान करने लगी तथा उसने अपना सारा जीवन शिवजी के पूजन, ध्यान और व्रत में लगा दिया। उसने एक पार्थिव लिंग स्थापित किया और महादेव जी की कठोर तपस्या करनी आरंभ कर एक दिन एक बलवान मायावी राक्षस घूमता हुआ उस स्थान पर आ गया और बाल विधवा तपस्विनी को देखकर उस पर मोहित हो गया परंतु वह ब्राह्मणी अपनी आराधना में ही लगी रही। तब वह उसे डरा-धमकाकर पाने की कोशिश करने लगा। तब ऋषिका डरकर शिवजी की मूर्ति से चिपककर रोने लगी और शिवजी से रक्षा करने हेतु प्रार्थना करने लगी। भक्तवत्सल भगवान शिव तुरंत अपने भक्त की रक्षा के लिए उस ज्योतिर्लिंग से प्रकट हुए और उस पापी राक्षस को भस्म कर दिया। फिर उस ब्राह्मणी से बोले - ब्राह्मणी ! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। वर मांगो। अपने आराध्य त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को इस प्रकार अपने सामने पाकर वह दीन ब्राह्मणी शिवजी की स्तुति करने लगी और बोली- हे जगत का कल्याण करने वाले ! भक्तों के दुखों का नाश करने वाले देवाधिदेव भगवान शिव! आपने आज मेरे पतिव्रत धर्म की रक्षा करके मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है। यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हैं तो मेरी एक अभिलाषा को पूरा कीजिए। आप सदा मेरे द्वारा स्थापित इस पार्थिव मूर्ति में निवास करें। ऋषिका के वचनों को सुनकर शिवजी प्रसन्नतापूर्वक उस लिंग में समा गए। उस समय आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। सारे देवता शिवजी की प्रशंसा करते हुए वहां आ गए। उसी समय पतित पावनी श्रीगंगाजी भी वहां आईं और उस ब्राह्मणी से बोलीं- कल्याणी ! जहां भगवान शिव का निवास होता है, वहां मेरा आगमन अवश्य होता है। इसलिए वैशाख में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को मेरा यहां आगमन होगा। ऋषियो! उसी दिन से उस पार्थिव लिंग का नाम नंदिकेश्वर हुआ और उसमें भगवान शिव का वास हुआ और गंगाजी भी प्रत्येक वैशाख शुक्ल पक्ष सप्तमी को वहां आने लगीं। यह दिव्य तीर्थ पापों का निवारण करने वाला है। इस पवित्र कुंड में स्नान करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और मनुष्य को शिवपद की प्राप्ति होती है।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता सातवां अध्याय

महाबली शिव माहात्म्य

सूत जी बोले- हे ऋषियो ! पश्चिम दिशा में कपिला नामक नगरी में कालनेश्वर नामक शिवलिंग है, जिसके दर्शनों से सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है। पश्चिमी समुद्र पर सिद्धेश्वर शिवलिंग है, जो सभी कामनाओं को पूरा करने वाला है। इसी स्थान पर बहुत से तीर्थस्थल हैं। समुद्र के किनारे गोकर्ण नामक सरोवर है। इसमें स्नान करने से ब्रह्महत्या के पाप से भी 1 मुक्ति मिल जाती है। जो महाबली गोकर्ण सातों रसातल एवं गुफाओं का भ्रमण करते हैं और सदैव शिवजी का पूजन करते हैं वे शिव रूप को प्राप्त होते हैं। इसी गोकर्ण तीर्थ में जाकर सभी नक्षत्र शिव स्वरूप हो जाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, विश्वदेव मरुद्गण, वसु, सूर्य, अश्विनी कुमार चंद्रमा एवं नक्षत्र इसके पूर्व की ओर भ्रमण करते हैं। चित्रगुप्त, अग्नि और पितृ इसके दक्षिण दिशा से दर्शन और भ्रमण करते हैं। वरुणदेव गंगा, सिंधु और नर्मदा आदि नदियों के साथ पश्चिम की ओर इसका दर्शन व भ्रमण करते हैं। चण्डिका, भद्रकाली, भवानी एवं भूत- प्रेत, पिशाच इसका दर्शन उत्तर दिशा की ओर से करते हैं। सब देवता, पितृ, गंधर्व, चारण, सिद्ध, विद्याधर, किंपुरुष, गुह्य, खग, वैताल, बली, दिती के दैत्य पुत्र, मुनिगण एवं सर्प अपनी इच्छाओं की पूर्ति एवं कामनाओं की सिद्धि के लिए देवाधिदेव महादेव जी के दर्शन करते हैं। यहां स्थापित भगवान सदाशिव की मूर्ति साक्षात मोक्ष प्रदान करने वाली है। माघ माह के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी पर महाबल सदाशिव का पूजन-आराधन किया जाता है। इस परम पवित्र प्रतिमा के पूजन से एक चाण्डालिनी भी अपने पापों से मुक्त हो गई थी और उसे अंत में परम पवित्र शिवलोक की प्राप्ति हुई।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता आठवां अध्याय

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