रामेश्वर महिमा वर्णन ,सुदेहा सुधर्मा की कथा ,श्रीविष्णु को सुदर्शन चक्र की प्राप्ति

रामेश्वर महिमा वर्णन ,सुदेहा सुधर्मा की कथा ,श्रीविष्णु को सुदर्शन चक्र की प्राप्ति

रामेश्वर महिमा वर्णन

सूत जी बोले- हे ऋषियो! अब मैं आपको रामेश्वर शिवलिंग की उत्पत्ति की कथा एवं माहात्म्य सुनाता हूं। भगवान श्रीहरि विष्णु ने अयोध्या के राजा दशरथ के घर उनके बेटे राम के रूप में अवतार लिया, ताकि वे दुष्ट राक्षसराज रावण का संहार करके पृथ्वी को दुष्टों से मुक्त करा सकें। श्रीराम का विवाह जनक नंदिनी देवी सीता से हुआ था। अपनी माता कैकेयी के मांगे वरदान के अनुसार वे चौदह वर्षों के लिए वनवास गए। एक दिन जब श्रीराम व लक्ष्मण कुटिया से बाहर गए। तब रावण ने सीता का हरण कर लिया और उन्हें लंका ले गया। श्रीराम अपनी पत्नी की खोज करते हुए अपने भाई लक्ष्मण के साथ किष्किंधा पहुंचे। वहीं पर उनकी मित्रता सुग्रीव से हुई, जिसे उसके भाई बाली ने राज्य से निकाल दिया था। तब श्रीराम ने उसकी सहायता की। श्रीराम ने बाली को मारकर सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बना दिया। सुग्रीव ने श्रीराम की पत्नी देवी सीता की खोज के लिए अपनी वानर सेना को चारों ओर तलाश करने के लिए भेजा। वानरों में श्रेष्ठ हनुमान ने माता सीता को लंका में ढूंढ़ लिया और श्रीराम का संदेश उन तक पहुंचाया। जब श्रीराम को ज्ञात हुआ कि उनकी पत्नी का हरण लंकाधिपति रावण ने किया है तो उन्होंने वानर सेना के साथ लंका की ओर प्रस्थान किया। जब उनकी सेना दक्षिणी छोर पर समुद्र के किनारे पहुंची तो उन्हें चिंता हुई कि सेना इस अथाह सागर को कैसे पार करेगी? वे इसी सोच में डूब गए। श्रीराम को प्यास लगी और उन्होंने पानी मांगा। जब वानर उनके लिए पानी लेकर आए, तब उन्हें स्मरण हुआ कि आज उन्होंने अपने आराध्य का दर्शन व पूजन तो किया ही नहीं। तब श्रीराम ने जल नहीं पिया और भगवान शिव का पार्थिव लिंग स्थापित करके उसका विधिपूर्वक सोलह उपचारों से पूजन किया और भक्तिभाव से हाथ जोड़कर प्रार्थना की। श्रीराम बोले- हे देवाधिदेव ! त्रिलोकीनाथ भक्तवत्सल भगवान शिव ! मेरी सहायता कीजिए, आपके सहयोग के बिना मेरा कार्य पूर्ण नहीं हो सकता है। मैं आपकी शरण में आया हूं। मुझ पर अपनी कृपादृष्टि कीजिए । इस प्रकार प्रार्थना करके रामजी अपने आराध्य की स्तुति में निमग्न हो गए। तब भगवान शिव ने प्रसन्न होकर दर्शन दिए और बोले-हे राम! तुम्हारा कल्याण हो। वर मांगो। अपने सामने साक्षात त्रिलोकीनाथ शिव को पाकर श्रीराम अत्यंत हर्षित हुए और हाथ जोड़कर उनको प्रणाम करते हुए स्तुति करने लगे। उन्होंने शिवजी से युद्ध में विजयी होने का वर मांगा तथा भगवान शिव से जगत के कल्याण हेतु वहीं निवास करने की प्रार्थना की। श्रीराम के वचन सुनकर कल्याणकारी शिव बहुत प्रसन्न हुए और बोले- हे राम! तुम्हारा मंगल हो, युद्ध में तुम्हारी जीत अवश्य होगी क्योंकि तुम सत्य और धर्म के मार्ग का अनुसरण कर रहे हो। यह कहकर शिवजी श्रीराम द्वारा स्थापित उस शिवलिंग में ज्योतिर्मय रूप में स्थित हो गए। उसी दिन से वह लिंग जगत में रामेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ । इसी शिवलिंग के पूजन के फल के रूप में श्रीराम की सेना को समुद्र पार करने का मार्ग मिल गया और वह युद्ध में विजयी हुए। श्रीराम ने रावण एवं अन्य राक्षसों का संहार किया और अपनी पत्नी सीता को मुक्त कराया। यह रामेश्वर ज्योतिर्लिंग भक्तों को भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है। इस शिवलिंग को गंगाजल से स्नान कराने से मोक्ष की प्राप्ति होती है और मनुष्य जीवन- मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है। रामेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा सुनने वालों के सभी पापों का नाश हो जाता है।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता इकतीसवां अध्याय

सुदेहा सुधर्मा की कथा

सूत जी बोले- हे महर्षियो! दक्षिण दिशा में देव नामक एक विशाल अद्भुत पर्वत है। उसके पास ही सुधर्मा नामक ब्राह्मण अपनी पत्नी सुदेहा के साथ रहता था। वह भगवान शिव का परम भक्त था। वह सदा ही वेदों द्वारा बताए मार्ग पर चलता और प्रतिदिन अग्नि से हवन, कर्म, अतिथि का पूजन और शिवजी की आराधना करता था। इस प्रकार पूजन करते हुए वे दोनों पति-पत्नी अनेक सत्कर्मों में लिप्त रहते थे। उनकी पत्नी सुदेहा पतिव्रता स्त्री थी। उनकी पत्नी को एक बात का दुख था कि उनकी कोई संतान नहीं थी। इस कारण उनका मन परेशान रहता था। जब भी सुदेहा अपने पति से इस विषय में कहती तो वह उन्हें समझाते कि पुत्र प्राप्ति से क्या लाभ है? आजकल सभी रिश्ते-नाते स्वार्थी हो गए हैं परंतु फिर भी वे सदा दुखी रहती थीं। एक दिन की बात है। सुदेहा अपनी सखियों के साथ पानी भरने गई थी। वहीं पर उनका परस्पर झगड़ा हो गया और तब उनकी सहेलियों ने उसे बांझ कहकर अपमानित करना शुरू कर दिया। वे बोलीं- तू बांझ होकर इतना घमंड क्यों करती है? तेरा सारा धन तो राजा के पास ही चला जाएगा, क्योंकि तेरा कोई पुत्र तो है नहीं। दुखी मन से सुदेहा घर लौट आई। उसने सारी बातें अपने पति को बताई। उन्होंने अपनी पत्नी को बहुत समझाया परंतु वह कुछ भी मानने को तैयार नहीं थी। तब उन ब्राह्मण देवता ने मन में भगवान शिव का ध्यान करते हुए दो फूल अग्नि की तरफ उछाले और सुदेहा से एक फूल चुनने के लिए कहा। उनकी पत्नी ने गलत फूल चुन लिया। उन्होंने अपनी पत्नी को समझाया- तुम्हारे भाग्य में पुत्र नहीं है। इसलिए अब अपनी इच्छा त्याग दो और शिवजी के पूजन में लग जाओ।  अपने पति सुधर्मा की बातों का सुदेहा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह उनसे इस प्रकार बोली- हे प्राणनाथ! यदि आपको मेरे गर्भ से पुत्र प्राप्त नहीं हो सकता तो आप दूसरा विवाह कर लीजिए। परंतु सुधर्मा ने विवाह से इनकार कर दिया। तब सुदेहा अपनी छोटी बहन घुश्मा को अपने घर ले आई और अपने पति से प्रार्थना करने लगी कि वे उससे विवाह कर लें। सुधर्मा ने उसे समझाते हुए कहा - यदि मैंने इससे विवाह कर लिया और इससे पुत्र हो भी गया तो भी तुम दोनों बहनें सौतन बन जाने पर एक-दूसरे का विरोध करोगी और मेरे घर में झगड़ा होता रहेगा । तब सुदेहा बोली- हे प्राणनाथ! भला मैं अपनी बहन का विरोध क्यों करूंगी। आप चिंता त्याग दें और घुश्मा से विवाह कर लें। अपनी पत्नी की प्रार्थना मानकर सुधर्मा ने घुश्मा से विवाह कर लिया। विवाह के पश्चात सुधर्मा ने सुदेहा और घुश्मा से मिल-जुलकर रहने एवं आपस में एक- दूसरे की बात मानने के लिए कहा। फिर घुश्मा अपने पति सुधर्मा के साथ प्रतिदिन एक सौ एक शिव पार्थिव लिंगों का षोडषोपचार से पूजन करके तालाब में उनका विसर्जन कर देती । इस प्रकार जब उसने एक लाख पार्थिव लिंगों का पूजन पूर्ण कर लिया तो शिवजी की कृपा से उसे परम सुंदर गुणवान पुत्र की प्राप्ति हुई। पुत्र पाकर घुश्मा और सुधर्मा बहुत प्रसन्न हुए परंतु सुदेहा को अपनी बहन से जलन होने लगी।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता बत्तीसवां अध्याय

घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति व माहात्म्य

सूत जी बोले- हे मुनिगणो! सुदेहा अपनी छोटी बहन घुश्मा से बहुत ईर्ष्या करती थी। उसके पुत्र के प्रति भी उसका व्यवहार बुरा था। धीरे-धीरे घुश्मा का पुत्र बड़ा हो गया। उसे विवाह योग्य जानकर ब्राह्मण सुधर्मा ने उसका विवाह एक योग्य कन्या से करा दिया। इससे सुदेहा की ईर्ष्या और अधिक बढ़ गई। उसने निश्चय किया कि जब तक घुश्मा के पुत्र की मृत्यु न होगी तब तक मेरा दुख कम नहीं होगा। अपनी खोई प्रतिष्ठा और घुश्मा को सबक सिखाने का निश्चय सुदेहा ने कर लिया। एक रात सब प्राणियों के सो जाने के बाद सुदेहा ने घुश्मा के सोते हुए पुत्र की हत्या कर दी। फिर उसके छोटे-छोटे टुकड़े करके उसी तालाब में बहा आई, जहां घुश्मा प्रतिदिन शिव पार्थिव लिंगों का पूजन के उपरांत विसर्जन करती थी। घर आकर सुदेहा आराम से सो गई। प्रातः काल उठकर सुधर्मा भगवान शिव का पूजन करने चले गए, सुदेहा और घुश्मा भी अपने-अपने काम में लग गई। जब घुश्मा की पुत्र वधू ने अपने पति की चारपाई पर खून और शरीर के अंगों के टुकड़े देखे तो वह अत्यंत व्याकुल हो गई और उसने अपनी सास को सूचित किया। वहां का दृश्य देखकर वह फौरन समझ गई कि किसी ने उनके पुत्र की हत्या कर दी है। यह जानकर घुश्मा जोर-जोर से रोने लगी। सुदेहा भी उनकी देखा-देखी आंसू बहाने लगी परंतु मन में वह अपनी सौत के दुख से बहुत प्रसन्न थी। कुछ देर पश्चात सुधर्मा शिवजी के पूजन से वापस लौटे तो उन्हें सब बातें पता चलीं। सुधर्मा घुश्मा से बोले – देवी! इस तरह से रोना छोड़ दो। अपने दुख को दूर करके अपना कार्य पूरा करो। भगवान शिव ने ही हमें कृपा करके पुत्र प्रदान किया था और वही उसकी रक्षा करेंगे। इसलिए तुम रोना छोड़ो और अपना नित्य कर्म करो। तब पति की आज्ञा मानकर देवी घुश्मा ने शिवजी के पार्थिव लिंगों का पूजन किया और उन्हें बहाने के लिए तालाब पर गई। जब लिंगों का विसर्जन करने के उपरांत वह मुड़ी तो उसे अपना पुत्र वहीं तालाब के किनारे खड़ा मिला। अपने पुत्र को जीवित पाकर वह बहुत प्रसन्न हुई और मन ही मन अपने आराध्य देव भगवान शिव का स्मरण करके उनका धन्यवाद व्यक्त करने लगी। उसी समय भगवान शिव वहां प्रकट हो गए और बोले- देवी घुश्मा! तुम्हारी आराधना से मैं प्रसन्न हूँ । मांगो, क्या वर मांगना चाहती हो? तुम्हारी बहन सुदेहा ने ही तुम्हारे पुत्र की हत्या की थी परंतु मैंने इसे पुनर्जीवित कर दिया है। मैं तुम्हारी सौत को उसकी करनी का दण्ड अवश्य दूंगा।  भगवान शिव के वचन सुनकर देवी घुश्मा बोली- हे नाथ! सुदेहा मेरी बड़ी बहन है। इसलिए आप उनका अहित न करें। तब शिवजी बोले- तुम्हारी सौत ने तुम्हारे पुत्र को मारा, फिर भी तुम उसको दंड नहीं देना चाहती हो। यह सुनकर घुश्मा ने कहा- हे देवाधिदेव ! अपकार करने वालों पर भी उपकार करना चाहिए, यह मैंने भगवद्वाक्य पढ़ा है और मैं यही मानती भी हूं। अतः आप सुदेहा को क्षमा कर दें। तब घुश्मा की बात सुनकर शिवजी बोले-ठीक है! जैसा तुम चाहती हो वैसा ही होगा। तुम और कोई वर मांगो। यह सुनकर घुश्मा बोली- हे प्रभो! आप इस जगत का हित व कल्याण करने हेतु यहीं निवास करें। तब शिवजी बोले- हे देवी! तुम्हारी इच्छा पूरी करने हेतु मैं तुम्हारे ही नाम से घुश्मेश्वर कहलाता हुआ यहां निवास करूंगा। यह कहकर शिवजी ज्योतिर्मय रूप में शिवलिंग में स्थित हो गए। वह सरोवर शिवालय नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस सरोवर के दर्शनों के बाद घुश्मेश्वर लिंग का दर्शन करने से अभीष्ट फलों की प्राप्ति होती है। इस प्रकार शिवजी वहां सदा के लिए स्थित हो गए। उधर, सुधर्मा भी सुदेहा के साथ वहां आ पहुंचे और उन्हें सारी बातें ज्ञात हो गईं। सुदेहा अपनी करनी पर बहुत लज्जित हुई और उसने सबसे क्षमायाचना की। उसके मन का मैल धुल गया। तत्पश्चात उन सबने मिलकर शिवलिंग की एक सौ एक परिक्रमा की और उसके बाद सुखपूर्वक घर को चले गए। हे मुनियो! इस प्रकार मैंने आपको बारह शिव ज्योतिर्लिंगों की कथा एवं माहात्म्य सुनाया। जो प्राणी भक्ति भावना से इसे सुनता अथवा पढ़ता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है और उसे भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता तेंतीसवां अध्याय

श्रीविष्णु को सुदर्शन चक्र की प्राप्ति

व्यासजी बोले- सूत जी के वचन सुनकर सभी ऋषिगणों ने उनकी बहुत प्रशंसा की । तत्पश्चात वे बोले-सूत जी आप सबकुछ जानते हैं इसलिए हम अपनी जिज्ञासा की शांति के लिए आपसे प्रश्न पूछते हैं। अब आप हमें हरिश्वर नामक शिवलिंग का माहात्म्य बताइए । हमने सुना है कि इसी शिवलिंग के पूजन के फलस्वरूप भगवान श्रीहरि विष्णु को सुदर्शन चक्र की प्राप्ति हुई थी। ऋषिगणों द्वारा किए गए प्रश्नों को सुनकर सूत जी बोले- हे मुनिगणो! एक समय की बात है। पृथ्वीलोक पर दैत्यों का अत्याचार बढ़ने लगा। वे अत्यंत वीर और बलशाली हो गए तथा उन्होंने मनुष्यों को प्रताड़ित करना आरंभ कर दिया। यही नहीं, वे देवताओं के भी घोर शत्रु हो गए और उन्हें भी दण्डित करने लगे। संसार से धर्म का लोप होने लगा क्योंकि दैत्य अधर्मी थे और अन्य मनुष्यों को भी पूजन नहीं करने देते थे। इस प्रकार दुष्ट दैत्यों से दुखी होकर देवता भगवान श्रीहरि विष्णु की शरण में गए। उन्होंने विष्णुजी को अपने सारे दुख बताए तथा उनसे दुखों को दूर करने की प्रार्थना की। तब सब देवताओं को समझाकर उन्होंने वापस भेज दिया और स्वयं कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान शिव की आराधना करने लगे। भगवान विष्णु ने कैलाश पर्वत पर जाकर सर्वेश्वर शिव का पार्थिव लिंग स्थापित किया और विधि-विधान से परमेश्वर शिव की आराधना आरंभ कर दी। श्रीहरि ने घोर तपस्या की फिर भी शिवजी प्रसन्न न हुए। तब उन्होंने देवाधिदेव महादेव जी को संतुष्ट करने के लिए शिवजी के सहस्रनामों का पाठ आरंभ कर दिया। श्रीहरि शिवजी का एक नाम लेते और एक कमल का पुष्प उन्हें अर्पित करते। इस प्रकार उन्हें शिव सहस्रनाम का पाठ करते हुए बहुत समय व्यतीत हो गया। तब एक दिन शिवजी ने भगवान विष्णु की तपस्या की परीक्षा लेने का निश्चय किया। विष्णु भगवान प्रतिदिन एक हजार कमल के फूलों से उनका पूजन करते थे। शिवजी ने एक फूल छिपा दिया। जब पूजा करते हुए एक फूल कम पड़ा तो विष्णुजी को बहुत आश्चर्य हुआ और वे इधर-उधर फूल ढूंढ़ने लगे। जब फूल कहीं पर भी नहीं मिला तो उन्होंने पूजन को पूर्ण करने के लिए अपने कमल के समान नेत्र को निकालकर त्रिलोकीनाथ शिवर्जी को अर्पण कर दिया। श्रीहरि विष्णु की ऐसी उत्तम भक्ति भावना देखकर शिवजी ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए । शिवजी को इस प्रकार अपने सामने पाकर विष्णुजी उनकी स्तुति करने लगे। तब शिवजी बोले- हे विष्णो! तुम्हारी उत्तम भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हूं। मांगो, क्या वर मांगना चाहते हो। शिवजी के वचनों को सुनकर विष्णुजी बोले- हे देवाधिदेव ! भगवान शिव आप तो अंतर्यामी हैं। सबकुछ जानते हैं। आप अपने भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करने वाले हैं। प्रभो! इस समय दैत्यों ने पूरे संसार में घोर उपद्रव किया हुआ है। सारे मनुष्य एवं देवता भय से पीड़ित हैं। भगवन्! त्र-शस्त्रों से दैत्यों पर काबू नहीं पाया जा सकता, इसीलिए मेरे अस्त्र- मैं आपकी शरण में आया हूं। शिवजी ने जब विष्णुजी के ऐसे वचन सुने तब उन्हें सुदर्शन चक्र प्रदान किया जिससे विष्णुजी ने सभी राक्षसों का नाश कर दिया। इस प्रकार सब सुखी हो गए।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता चौंतीसवां अध्याय

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