शिवरूप वर्णन ,उपासना मूर्ति ,शिव तत्व विवेचन Description of Shiva form, worship idol, interpretation of Shiva elements

शिवरूप वर्णन ,उपासना मूर्ति ,शिव तत्व विवेचन

शिवरूप वर्णन

वामदेव बोले- हे भगवन्! वे छः प्रकार के अर्थ कौन से हैं और उनका क्या ज्ञान है? इनके प्रतिपादक कौन हैं? और इनका क्या फल है? इस संसार में वह कौन-सा ज्ञान है, जिसे जाने बिना जीव शास्त्रों से विमोहित हो जाता है। मैं भी शिव माया से विमोहित हूं। मैं कुछ भी नहीं जानता। आपकी शरण में आया हूं। मुझ पर कृपा कर मुझे ज्ञानरूपी अमृत पिलाइए ताकि मेरी अज्ञानता दूर हो जाए। मुनि वामदेव के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए शिव पुत्र स्कंद बोले- हे मुनि शार्दूल! इस संसार में भगवान शिव ही समस्त प्रणवार्थ परिज्ञान के भण्डार हैं। वे ही समष्टि व्यष्टि का भाव रखते हैं। अब मैं एक ही परिज्ञान के छः अर्थों का वर्णन करता हूं। जिनमें पहला मंत्र रूप, दूसरा भाव, तीसरा देवार्थ, चौथा प्रपंचार्थ, पांचवां गुरुरूप और छठा शिष्य के आत्मानुरूप कार्य है। पहला स्वर अकार, दूसरा उकार, तीसरा मकार है। इसी पर नाद रूपी बिंदु है। इन्हीं को वेद में ॐकार कहा गया है। यही समष्टि रूप है। नाद में ही सबकी समष्टि है। अकार, उकार और मकार ये सब बिंदु नाद के आदि हैं। व्यष्टि रूप में सिद्ध होकर ओंकार की उत्पत्ति होती है, जो शिवजी का याचक है। इसी प्रकार ॐकार रूपी पांच वर्णों की समष्टि कला भी शिवजी की वाचक है। जो त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के उपदेश मार्ग का अनुसरण करते हैं उन्हें अवश्य ही शिवपद की प्राप्ति होती है। प्रणव मंत्र शिव का ही रूप है।
शिव पुराण श्रीकैलाश संहिता  चौदहवां अध्याय

उपासना मूर्ति

भगवान स्कंद बोले- त्रिलोकीनाथ! कल्याणकारी भगवान शिव ही इस संसार के सृष्टिकर्ता और आकाश के अधिपति हैं। वे ही समष्टि हैं और वे ही व्यष्टि भी हैं। उन्हीं देवाधिदेव सदाशिव से महेश्वर की उत्पत्ति हुई है। अनंत रूप पुरुष होने के कारण वे वायु के भी अधिपति हैं। वे ही सभी प्रकार की मायाओं और शक्तियों से युक्त हैं। ईश्वर, विश्वेश्वर, परमेश्वर और सर्वेश्वर यही चतुष्टय व्यष्टि रूप कहा गया है। यही श्रेष्ठ तिरोभाव चक्र कहा जाता है। तिरोभाव दो प्रकार का होता है- रुद्रादि गोचर एवं जीव समूह का शरीर रूप । पाप और पुण्य जब तक इस संसार में हैं, तब तक इसमें कर्म की साम्यता रहती है। इसी में अनुग्रह करने की सामर्थ्य होती है। इसी विभु में तिरोभाव और कर्म की साम्यता होती है। वहीं कल्याणकारी भगवान शिव ही साक्षात परब्रह्म, निर्विकल्प तथा निरामय स्वरूप हैं। तिरोभाव के शांतिकलामय तिरोभाव चक्र को महेश्वर के अधिष्ठित उत्तम पद कहा गया है। महेश्वर के चरणों की सच्चे हृदय से भक्ति करने वाले को यही पद प्राप्त होता है। उन्हीं महेश्वर के हजारवें अंश से रुद्र उत्पन्न हुए हैं। वे अधीर शरीरधारी और तेज तत्व के स्वामी हैं। वे प्रभु ही वाम भाग में देवी गौरी शक्ति धारण करते हैं। रुद्र ही पापियों का संहार करने वाले हैं। व्यष्टि रूप शिव, हर, मुंड और भव अद्भुत चक्रविदित हैं। ये सप्रावरण से रक्षित होते हैं। इनके ऊपर की ओर दस गुना जल है। इस जल के मध्य में रहने वाले को श्रुति द्वारा जलमध्यसायी कहा जाता है। भगवान शिव अनुग्रह, तिरोभाव, संहार, स्थित और सृष्टि से युक्त होकर नई-नई लीलाएं करते रहते हैं। वे ही सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं।
शिव पुराण श्रीकैलाश संहिता पंद्रहवां अध्याय

शिव तत्व विवेचन

सूत जी बोले—मुनि वामदेव को भगवान स्कंद के मुख से ओंकाररूपी अमृत कथा का श्रवण करके आनंद की अनुभूति हुई। वे बोले - प्रभु! इस अमृतमयी कथा को सुनकर मेरा ज्ञान और बढ़ गया है परंतु फिर भी मैं आपसे एक प्रश्न पूछता हूं। भगवन्! सदाशिव से लेकर कीर्ति पर्यंत तक इस जगत में स्त्री-पुरुष ही दिखाई देते हैं। इस रूपवान अद्भुत संसार की उत्पत्ति का कारण वे परमेश्वर ही हैं या कोई अन्य रूप है? विद्वान और शास्त्रों के अनुसार इसके अनेक प्रकारों का वर्णन करते हैं। कृपा कर मुझे जगतस्रष्टा भगवान शिव के भाव का वर्णन कीजिए। मुनि वामदेव के इस प्रकार उपनिषद गर्भित रहस्य को समझकर स्कंद देव बोले- हे महामुनि ! जिन परम शिव तत्व, शिव ज्ञान को आप सुनना चाहते हैं, वह मैं आपको सुनाता हूं। यही ज्ञान मेरे पिता देवाधिदेव भगवान शिव ने मेरी माता देवी पार्वती को सुनाया था। उस समय मैं छोटा सा बालक था और मां की गोद में बैठकर दूध पी रहा था। वे बातें आज भी मुझे याद हैं। कर्मसत्ता से लेकर सभी शास्त्रों में लिखा सभी कुछ ज्ञानदायक है। आप जैसे ज्ञानी पुरुष ही इतना कुछ जानते हुए भी भगवान के विषय में और अधिक जानने की जिज्ञासा रखते हैं परंतु मूर्ख और अज्ञानी पुरुष तो सबकुछ जानते और समझते हुए भी ईश्वर के स्वरूप से इनकार कर देते हैं। परमेश्वर परमात्मा को जानना एवं उन्हें पहचानने में कोई संदेह एवं परेशानी नहीं है। वे स्त्री-पुरुष के रूप में विश्व के सामने प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। श्रुतियों ने ही कहा है कि सच्चिदानंद परब्रह्म सिर्फ सत्य है। जो भी असत्य एवं प्रपंचों से निवृत्त अथवा दूर होकर सदाचार के मार्ग का अनुसरण करते हैं वे सदात्मा कहलाते हैं। वही प्रकाश से चित्त होकर जगत के कारण बन जाते हैं, वे ही शिव भक्ति भाव को प्राप्त हुए हैं। उन्हीं को भगवान शिव और शक्ति संयोग से परम आनंद की प्राप्ति होती है।
शिव पुराण श्रीकैलाश संहिता सोलहवां अध्याय

Comments