छः मार्गों का वर्णन ,महेश्वर के सगुण और निर्गुण भेद ,अनुष्ठान का विधान,Description of six paths, distinction between Sagun and Nirgun of Maheshwar, method of ritual.

छः मार्गों का वर्णन ,महेश्वर के सगुण और निर्गुण भेद ,अनुष्ठान का विधान

छः मार्गों का वर्णन

वायुदेव बोले- हे ऋषिगण! भगवान शिव और देवी पार्वती का रूप प्राकृतिक एवं मूर्त दो प्रकार का है। स्थूल चिंता रहित और सूक्ष्म चिंता सहित है। सब कार्यों को पूर्ण करने की शक्ति प्रकृति के पास है। इसे परमादेवी कुण्डलिनी माया कहा जाता है। यह छः मार्गों वाली है। जिनमें तीन शब्द हैं और तीन उनके अर्थ हैं। ये परा प्रकृति के भेद हैं। सांख्य योग सब कलाओं में परिपूर्ण है। छः भागों में विभक्त यह पराशक्ति भाव सत्व और शिव तत्व से व्याप्त है। शक्ति से आरंभ करके पृथ्वी तक सभी शिव तत्व से ही उत्पन्न हुए हैं जिस प्रकार घड़ा मिट्टी से बना होता है, उसी प्रकार हर वस्तु का निर्माण शिव तत्व से हुआ है। पांच तत्वों से शुद्ध होने पर प्राण शिवतत्व के उत्तम स्थान को पा लेता है। विद्या कला से विश्वेश्वर की शुद्धि होती है। ऊर्ध्व मार्ग से शांतिकला शुद्ध होती है। संसार का आधार रूप होकर जो शक्ति, आज्ञा, परा, शैवी, चित्ररूपा परमेश्वरी देवी है उसे त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने संपूर्ण जगत में स्थिर कर रखा है। भगवान शिव पुरुष है और शक्ति स्त्री हैं। ये दोनों परस्पर पति-पत्नी है परंतु कई विद्वान इन्हें एकरूप ही मानते हैं। पराशक्ति शिवजी की आज्ञा से तीन गुण वाली है और कार्य के भेद तीन प्रकार के होते हुए छः मार्ग में विभक्त हो जाते हैं। ये शब्द व अर्थ रूप है तथा पूरे संसार में व्याप्त हैं।
शिव पुराण श्री वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) अट्ठाईसवां अध्याय

महेश्वर के सगुण और निर्गुण भेद

ऋषि बोले- हे वायुदेव! भगवान शिव तो अत्यंत अद्भुत लीलाएं रचने वाले है। शिव- शक्ति की क्रीडा प्रकृति का खेल है। सभी देवता, दानव और मनुष्य देवाधिदेव महादेव की कृपा के वश हैं, जबकि वे स्वच्छंद और वैभव संपन्न है। भगवान शिव तो सर्वेश्वर हैं। ये कला रहित निर्गुण हैं तो कला सहित सगुण हैं। ब्रह्मा से लेकर मनुष्य और दानव आदि सभी अपने कर्मों के अधीन हैं। सब जन्म लेते हैं और सबकी मृत्यु निश्चित है। भगवान शिव सब पर कृपा करने वाले तथा दुष्टों को उनके दुष्कर्मों का दंड देने वाले हैं। अपराध के कारण ही ब्रह्माजी का पांचवां सिर काटा गया था। श्रीहरि विष्णु को पैरों के नीचे दबाया गया था। शिवजी की आज्ञा पाकर शिव निंदा करने वाले प्रजापति दक्ष को वीरभद्र ने दंड दिया था कामदेव भी शिव क्रोध के कारण भस्म हुए। भगवान शिव और देवी पार्वती ने मिलकर अनेक लीलाएं रचीं। भगवान शिव ने लोक कल्याण के लिए पतित पावनी श्रीगंगा जी को अपनी जटाओं में धारण किया। देवाधिदेव महादेव और देवी को एक दिव्य रूप बालक की प्राप्ति हुई। उसे पाकर शिवजी और पार्वती बहुत प्रसन्न हुए परंतु देवेंद्र की प्रार्थना करने पर अपने पुत्र को महादैत्य तारकासुर के साथ युद्ध करने भेज दिया। शिव-पार्वती ने पुत्र को आशीर्वाद देते हुए क्रौंची मेमिनी नामक अमोघ शक्ति प्रदान की। अपने माता-पिता के आशीर्वाद से बालक ने तारकासुर का वध कर दिया। अपने परम भक्त ब्रह्मचारी मार्कण्डेयजी को अकाल मृत्यु से बचाकर चिरंजीव बना दिया। परमात्मा शिव सगुण और निर्गुण दोनों स्वरूप वाले हैं।
शिव पुराण श्री वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) उनतीसवां अध्याय

ज्ञानोपदेश

वायुदेव बोले- हे मुनियों! सज्जनों को सिर्फ भगवान शिव से ही प्रीति रखनी चाहिए, किसी अन्य से नहीं। भगवान शिव तो सर्वज्ञाता हैं। उनका अनादर करने वाले मनुष्य को संसार में कहीं भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता। हम परमात्मा की साकार व निराकार मूर्ति दोनों की आराधना करते है परंतु निराकार मूर्ति का ध्यान नहीं किया जा सकता, इसलिए शिवमूर्ति उसका साकार शिवरूप है। साधना के द्वारा ही ईश्वर का साक्षात्कार होता है। मूर्ति का चेतन रूप परमात्मा है, जो अगाध श्रद्धा भाव से प्रसन्न होकर दर्शन देने वाले है। आत्मा को सांसारिक मोह माया से शिवतत्व ही मुक्त कराता है। सुख-दुख तो कर्मों का फल है। ज्ञान द्वारा ही इंद्रियों का निग्रह होता है तथा भक्ति द्वारा सिद्धि प्राप्त होती है। आराधना साहस में वृद्धि करती है। ईश्वर की इच्छा को सर्वोच्च माना गया है और सभी को उसी मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। श्रेष्ठ कार्य करना हमारा कर्तव्य है। हमें अपने आराध्य का सदा पूजन करना चाहिए। त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी भगवान शिव के संयोग से आत्मा शुद्ध हो जाती है। अज्ञानी भगवान शिव की भक्ति करके अपनी आत्मा के अंधकार को दूर करते हैं। भगवान शिव की प्रेमरूपी तो मनुष्य को शिवरूप कर देती है। क्षमा, चतुरता मित्रता के संयोग से मानसिक वृत्ति गण और दोष का कारण होती है। संसार से मुक्ति की कामना करने वाले अनुग्रह को अपनाते हैं। भगवान शिव अपने भक्तों पर सदा कृपा करते हैं। वे अपने भक्तों की सभी कामनाओं को पूरा करते हैं। जीव इस संसार में परतंत्र होकर अनेक दुखों को भोगता है परंतु शिवजी की कृपा से ही वह स्वतंत्र हो जाता है। जीवात्मा तो अजर-अमर है। सुकर्म और कुकर्म दो प्रकार के कार्य हैं, जो जीवन को श्रेष्ठ या निकृष्ट बनाते हैं। माया-मोह में फंसकर प्राणी हिरन की तरह इधर-उधर भटकता रहता है। शरीर में सबसे ऊपर परमात्मा, मध्य में अंतरात्मा और अधोभाग में आत्मा का निवास होता है। इसी प्रकार भगवान शिव सबसे ऊपर, मध्य में ब्रह्मा और नीचे श्रीहरि विष्णु का निवास है। भगवान शिव को अंतरात्मा भी माना जाता है क्योंकि वे सर्वत्र विद्यमान है। अच्छे कर्मों द्वारा उच्च योनि तथा बुरे कर्मों द्वारा निम्न योनि की प्राप्ति होती है। सत्व, रज तथा तम गुण त्रिगुणात्मक योनि प्रदान करने वाले हैं। देवाधिदेव महादेव जी समस्त गुणों के स्वामी, सगुण-निर्गुण मूर्ति व सच्चिदानंद रूप हैं। वे पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। मनुष्य तो सदा माया से घिरा रहता है। परमेश्वर शिव की कृपा ही उसे आवागमन के इस चक्र से मुक्ति दिलाती है। उनके नामोच्चारण से ही सब दुखों से मुक्ति मिल जाती है। सब दुखों का नाश हो जाता है। माया से दूर होकर वह शिव कृपा को पा लेता है। अज्ञानी मनुष्य शिवजी को ईश्वर नहीं मानता और अपना सारा जीवन खो देता है। इसलिए मनुष्य को सदा त्रिलोकीनाथ शिवजी की भक्ति में डूबे रहना चाहिए।
शिव पुराण श्री वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) तीरावां अध्याय

 अनुष्ठान का विधान

वायुदेव बोले- हे मुनियो ! प्रत्यक्ष ज्ञान की प्राप्ति हेतु भगवान शिव का पूजन और उनका अनुष्ठान सर्वोत्तम साधन है। इसी के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति संभव है। क्रिया, जप, ध्यान और ज्ञान से आराधना का अनुष्ठान किया जाता है। वेदों में धर्म को वर्णित किया गया है। वेदों एवं उपनिषदों द्वारा वर्णित कर्म परम धर्म कहलाते हैं। निर्मल आत्मा वाले धर्म के अधिकारी होते हैं जबकि सांसारिक जन अधर्मी माने जाते हैं। शिवशास्त्र श्रुति और स्मृति दो प्रकार के हैं। श्रुति में पाशुपत व्रत का परम ज्ञान वर्णित है। कहते हैं कि हर युग में भगवान शिव योगाचार्य के रूप में अवतार लेते हैं और शिव तत्व का प्रचार-प्रसार करते हैं। रुद्र, दधीचि, अगस्त्य और उपमन्यु नामक महर्षि पाशुपति व्रत की संहिता के प्रचारक हैं। इसके अनुष्ठान से शिवजी का साक्षात्कार होता है। शिव, महेश्वर, रुद्र, पितामह, विष्णु, संसार, वैद्य, सर्वज्ञ एवं परमात्मा ये आठ परम कल्याणकारी कारक हैं। शिवतत्व का परम ज्ञान रखने वाले ज्ञानी और विद्वान पुरुष कहते हैं कि संपूर्ण मंगलमय गुणों के आधार व सबके स्वामी सदाशिव कहलाते हैं। प्रकृति व पुरुष इनके अधीन हैं। वे दुखों और दुखों के कारणों का नाश करने वाले हैं। भव रोग को दूर करने हेतु औषधि प्रदान करने वाले संसार के वैद्य भगवान शिव ही हैं। उन्हें संसार की हर अवस्था का ज्ञान है इसलिए सर्वज्ञ कहलाते हैं। भगवान शिव के आठ नाम हैं जिनकी निवृत्ति का कलात्मक ग्रंथि विभेदन करके गुणों के अनुसार आवृत्ति करें। हृदय, कंठ, तालु, भृकुटियों के बीच ब्रह्मरंध्र के साथ आठ रूपों की पुरी को छेदकर सुषुम्ना नाड़ी द्वारा आत्मा का लय करके अपने वमन का संहार करें, उसे शक्ति रूपी अमृत से सींचकर भगवान शिव के चरणों का ध्यान करें। नाभि के मध्य में शिवजी के आठ नाम धारण करें व आठ आहुतियां दें, फिर पूर्णाहुति देकर प्रणाम कर आठ फूल चढ़ाएं। फिर अपनी आत्मा शिवजी को समर्पित करें। इस क्रिया द्वारा परम ज्ञान की प्राप्ति होती है।
शिव पुराण श्री वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) इकतीसवां अध्याय

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