गणगौर या गनगौर (चैत्र शुक्ल तृतीया Gangaur or Gangaur (Chaitra Shukla Tritiya

गणगौर या गनगौर (चैत्र शुक्ल तृतीया)

गनगौर पूजन चैत्र मास की कृष्णपक्ष की प्रथमा यानि धूलण्ड़ी से शुरू होता है और चैत्र मास की शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि को समाप्त होता है। गनग़ौर का व्रत चैत्र मास की शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि के दिन किया जाता है। इस दिन सुहागिन स्त्रियाँ व्रत रखकर भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा करती हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार इसी दिन भगवान शिव और देवी का व्रत और पूजन करने से माता पार्वती की कृपा से सुहागिन स्त्रियों को अखण्ड सौभाग्य की प्राप्तिहोती है और कुंवारी लडकियों को मनचागा जीवनसाथी प्राप्त होता है।

 Gangaur or Gangaur (Chaitra Shukla Tritiya

गणगौर गौरी-तृतीया  राजस्थान का तो यह अत्यन्त विशिष्ट त्यौहार

भारत के सभी प्रान्तों में थोड़े-बहुत नाम भेद से पूर्ण-धूम पूर्ण-धूमधाम के साथ (गणगौर) मनाया जाता है गौरी पूजन का यह त्यौहार, जबकि राजस्थान का तो यह अत्यन्त विशिष्ट त्यौहार है। पुराणों और अन्य धर्मग्रन्थों में गौरी-तृतीया, गौरी उत्सव, ईश्वर गौरी और गनगौर आदि नाम से इसके विधि-विधान और महत्त्व का विस्तृत वर्णन मिलता है। हमारे यहाँ स्त्रियाँ इस व्रत को सदा सुहागिन रहने के लिए करती हैं।
शास्त्रों के अनुसार एक बार भगवान् शिव पार्वती के साथ भूलोक भ्रमण हेतु आए। चैत्र शुक्त शुक्ला तृतीया के दिन पार्वती जी एक नदी पर स्नान करने गई तथा वहाँ उन्होंने बालू का शिवलिंग बनाकर उसकी भक्तिभाव से पूजा की। यह पूजा उन्होंने एकांत में शिवज़ी से छिपकर की थी, फिर भी अन्तर्यामी भगवान् शिव ने उन्हें अटल सौभाग्य का वरदान दिया। कुछ समय बाद वहाँ गाँव की अन्य स्त्रियाँ आई और उन्होंने भक्तिभावपूर्वक पार्वतीजी की पूजा की। इस पूजा से प्रसन्न होकर पार्वतीजी ने सभी स्त्रियों को अटल सौभाग्य का वरदान प्रदान किया। यह व्रत और पूजा पार्वतीजी ने शिवजी से छिपकर की थी। यही कारण है कि केवल स्त्रियाँ ही इस व्रत में सभी कार्य करती हैं, पुरुषों को तो इसका प्रसाद तक नहीं दिया जाता। इस दिन स्त्रियाँ सुन्दर से सुन्दर वस्त्र और आभूषण धारण करके सम्पूर्ण श्रृंगार करती हैं। घर के किसी कमरे में एक पवित्र स्थान पर चौबीस अंगुल चौड़ी और चौबीस अंगुल लम्बी वर्गाकार वेदी बनाकर हल्दी, चंदन, कपूर, केसर आदि से उस पर चौक पूरा जाता है। फिर इस पर बालू से गौरी अर्थात् पार्वती बनाकर उन पर सुहाग की सभी वस्तुएँ, काँच की चूड़ियाँ, महावर, सिन्दूर, रोली आदि चढ़ाते हैं। गौरी की इस प्रतिमा को फल-फूल, नैवेद्य आदि अर्पण पूर्ण भक्ति भाव से की जाती है पार्वती जी अर्थात् गौरी की पूजा। गौरी पर चढ़ाया हुआ सिन्दूर महिलाएँ अपनी माँग में भरती हैं। पूजन दोपहर को होता है और इसके बाद कभी भी भोजन किया जा सकता है, परन्तु पूरे दिन मे एक ही बार भोजन करने का ही विधान है। गनगौर पर विशेष रूप से मैदा के गुने बनाए जाते हैं जो कई दिन तक खराब न होने वाले एक प्रकार की मिठाई होते हैं। लड़की की शादी के बाद लड़की अपने मायके में गणगौर मनाती है और इन गुनों तथा सास के कपड़ों का वायना निकालकर ससुराल में भेजती हैं। यह प्रथम वर्ष में ही होता है, बाद में प्रतिवर्ष गणगौर लड़की अपनी ससुराल में ही मनाती है। ससुराल में भी बहु गणगौर का उद्यापन करती है और अपनी सास को वायना, कपड़े तथा सुहाग का सारा सामान देती है। इसके साथ ही सोलह सुहागिन ब्राह्मणियों को भोजन कराकर प्रत्येक को सम्पूर्ण श्रृंगार की स्तुएँ और यथाशक्ति दक्षिणा दी जाती है। इस विधि-विधान में देश और काल के अनुरूप थोड़ा बहुत अन्तर हो सकता है, परन्तु आधारभूत विधान यही रहता है। गणगौर पूजन के समय महिलाएँ एक कहानी भी कहती हैं जो इस प्रकार है

गणगौर चैत्र शुक्ला तृतीया पूजन की कथा

एक समय महादेवजी नारदजी के साथ देश भ्रमण को निकले। साथ में पार्वतीजी भी थीं। चलते-चलते तीनों एक गाँव में पहुँचे। उस दिन चैत्र शुक्ला तृतीया थी। गाँव वालों ने जब सुना कि भगवान् शिवजी पार्वतीजी सहित यहाँ पर पधारे हैं तब कुलीन स्त्रियाँ उनके पूजन के लिए सुन्दर-सुन्दर और स्वादिष्ट भोजन बनाने लगीं। इसी तैयारी में उन्हें देर हो गई। किन्तु निम्न वर्ग की स्त्रियाँ जैसे बैठी थी वैसे ही थालियों में हल्दी-चावल रखकर दौड़ती हुई शिव-पार्वती के पास पहुँच गई। पार्वतीजी ने उनकी पूजा स्वीकार करके उनके ऊपर तमाम सुहाग-रस छिड़क दिया। वे अटल सौभाग्य प्राप्त कर लौट गई। इसके बाद उच्च कुल की नारियाँ सोलहों श्रृंगार और आभूषणों से सजी हुई, अनेक प्रकार के पकवान और पूजा की सामग्रियाँ सोने-चाँदी के थालों में सजाकर पूजन के लिए आई। उन्हें देखकर शिवजी ने कहा- हे पार्वती ! तुमने तमाम सुहाग-रस तो साधारण स्त्रियों में बाँट दिया, अब इन्हें क्या दोगी? पार्वतीजी ने उत्तर दिया- आप इसकी चिंता न करें। उन्हें सिर्फ ऊपरी पदार्थों से बना रस दिया गया है। इसलिए उनका सुहाग धोती से रहेगा, परन्तु इनको मैं अपनी अंगुली चीरकर अपने रक्त का सुहाग-रस दूँगी। जिसकी माँग में यह सुहाग-रस पड़ेगा वह मेरे समान ही तन-मन से सौभाग्यवती होगी। जब स्त्रियाँ पूजन कर चुकीं तब पार्वतीजी ने अपनी उंगली चीरकर उन पर छिड़की। जिस पर जैसे छींटे पड़े, उसने वैसा ही सुहाग पाया। इसके बाद पार्वतीजी ने शिवजी की आज्ञा से नदी तट पर जाकर स्नान किया। फिर बालू के महादेव बनाकर वह उनका पूजन करने लगीं। पूजन के बाद बालू के पकवान बनाकर शिवजी को भोग लगाया। इसके बाद प्रदक्षिणा की और नदी के किनारे की मिट्टी का टीका माथे पर लगा कर दो कण बालू का प्रसाद पाया और शिवजी के पास लौट आई। इस सब पूजन आदि में पार्वतीजी को नदी के किनारे बहुत देर हो गई थी। महादेवजी ने उनसे देरी का कारण पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि वहाँ मेरे भाई-भावज आदि मायके से आ गये थे, इसी कारण देर हो गई। शिवजी ने फिर पूछा कि तुमने पूजन करके किस वस्तु का भोग लगाया और स्वयं क्या प्रसाद पाया? पार्वतीजी ने उत्तर दिया कि मेरी भावजों ने मुझे दूध-भात खिलाया है, उसे ही खाकर मैं चली आ रही हूँ। ऐसा सुनकर शिवजी भी दूध-भात खाने के लिए वहाँ चल पड़े। पार्वतीजी दुविधा में पड़ गई। उन्होंने शिवजी का ध्यान करके प्रार्थना की कि हे प्रभु! यदि मैं आपकी अनन्य दासी हूँ तो आप ही इस समय मेरी लाज रखिए। इस प्रकार प्रार्थना करते हुए वे भी शंकरजी के पीछे-पीछे चलने लगीं। अभी कुछ ही दूर चले थे कि उन्हें नदी के किनारे एक सुन्दर माया का महल दिखाई देने लगा। जब वे उस महल के भीतर पहुँचे तब वहाँ शिवजी के साले और सलहज आदि परिवार के सभी लोग मौजूद थे। उन्होंने बहन-बहनोई का बड़े प्रेम से स्वागत किया। दो दिन तक खूब मेहमानदारी होती रही। तीसरे दिन सबेरे पार्वतीजी ने शिवजी से चलने के लिए कहा किन्तु वे तैयार न हुए। पार्वतीजी रूठकर चल दीं। तब तो शिवजी को उनका साथ देना ही पड़ा। नारदजी भी साथ ही थे। तीनों चलते-चलते बहुत दूर निकल गये। सायंकाल होने पर शिवजी बोले कि मैं तुम्हारे मायके में अपनी माला भूल आया हूँ। पार्वतीजी माला लेने के लिए जाने को तैयार हुई, किन्तु शिवजी के आग्रह पर वे न जा सकीं और नारदजी वहाँ गये। नारदजी ने जाकर देखा कि वहाँ किसी महल का निशान भी नहीं है। चारों ओर घोर वन है और हिंसक पशु घूम रहे हैं। नारदजी घंटों तक अन्धकार में भूलते- भटकते रहे। सहसा बिजली के चमकने पर उन्हें शिवजी की माला एक वट वृक्ष पर टंगी हुई दिखाई दी। नारदजी उसे लेकर वहाँ से भागे और शिवजी के पास पहुँचकर अपना कष्ट सुनाने लगे। शिवजी ने हँसते हुए कहा कि यह पार्वतीजी की लीला है। गौरी पार्वती ने विनम्र होकर कहा- कि मैं किस योग्य हूँ, यह सब तो आपकी ही कृपा का प्रभाव है। शिव-पार्वती की बात सुनकर नारदजी ने उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और कहा- माता! आप पतिव्रताओं में सर्वश्रेष्ठ है, सौभाग्यवती आदिशक्ति हैं। यह सब आपके पतिव्रत धर्म का ही प्रभाव है। संसार की स्त्रियाँ आपके नाम का स्मरण करने मात्र से अटल सौभाग्य प्राप्त कर सकती हैं और समस्त सिद्धियों को अपना बना सकती हैं। फिर आज के दिन आपकी भक्तिभाव से पूजा आराधना करने वाली नारियों को तो अटल सौभाग्य मिलेगा ही।

गणगौर व्रत और पूजन की विधि

  • गनगौर के दिन घर में सभी सुहागिन स्त्रियों व कुंवारी कन्याओं को गनगौर की पूजा करनी चाहिये।
  • अगर आपने अपने घर में सोलह दिन की गणगौर बिठाई है तो फिर अपने घर पर ही पूजा करें और यदि घर में सोलह दिन की गणगौर नही बिठाई हो तो जिसने गणगौर बिठाई हो उसके यहाँ जाकर पूज आयें।
  • यदि यह भी सम्भव ना हो तो घर पर मिट्टी की गणगौर बनाकर उसकी पूजा करें।
  • गणगौर के दिन प्रात:काल स्नानादि नित्यक्रिया से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। विवाहि स्त्रियाँ सोलह श्रृन्गार करें।
  • फिर पूजा स्थान पर गोबर और पानी का चौका लगाये।
  • फिर एक डलिया में दूप बिछाकर उसमें गणगौर बैठा बिठाये।
  • फिर दीपका जलाकर जल से छींटा लगायें, सोलह-सोलह दातुन दें। रोली से टीका करें, गणगौर के हाथ में मेंहदी लगाये, आँख में काजल डालें, मोली चढायें, फूल व दूप चढ़ायें। चूडी, बिंदी आदि श्रृंगार की सभी सामग्री गणगौर को चढायें। चुनरी चढायें।
  • व्रत रखने वाली सुहागिन स्त्री को गणगौर पर चढ़े सिन्दूर को अपनी मांग में लगाना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि ऐसा करने से सुहागिन स्त्री का सौभाग्य अखण्ड होता है।
  • हलवे का भोग लगाये व दक्षिणा भेंट करें।
  • दीवार पर रोली से, मेंहदी से, हल्दी से और काजल से सोलह-सोलह बिंदियाँ लगाये।
  • गणगौर की कहानी कहे और सुने। उसके बाद गणगौर की आरती करें।
  • पूजा के बाद सोलह मीठी मठरी, एक कटोरी में हलवा और रुपये रखकर बायना निकालें। और अपनी घर की बडी स्त्री या किसी ब्राह्मणी को पैर छूकर दें।

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