केदारेश्वर माहात्म्य ,भीम उपद्रव का वर्णन ,भीमशंकर ज्योतिर्लिंग का माहात्म्य ,Greatness of Kedareshwar, description of Bhim disturbance, greatness of Bhimshankar Jyotirling, greatness of Kashipuri.

केदारेश्वर माहात्म्य ,भीम उपद्रव का वर्णन ,

भीमशंकर ज्योतिर्लिंग का माहात्म्य  काशीपुरी का माहात्म्य

केदारेश्वर माहात्म्य

सूत जी बोले- हे ऋषिगणो! भगवान विष्णु के नर-नारायण नामक अवतार ने बद्रिकाश्रम में तपस्या करनी आरंभ कर दी। तब अपने उन दोनों श्रेष्ठ भक्तों की इच्छा पूर्ण करने हेतु भगवान शिव पार्थिव लिंग में उनके पूजन को ग्रहण करने के लिए आते थे। इस प्रकार नर- नारायण को भगवान शिव का पूजन करते-करते बहुत समय व्यतीत हो गया। इससे उनकी भक्ति भावना दिन-प्रतिदिन प्रबल होती गई और वे शिवजी को प्रसन्न करने हेतु उनका पूजन करते रहे। उनकी उत्तम तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव उनके समक्ष प्रकट हो गए और बोले- हे नर-नारायण! मैं तुम्हारी आराधना से बहुत प्रसन्न हूं। तुम मुझसे वर मांगो। भगवान शिव के वचन सुनकर नर-नारायण बहुत प्रसन्न हुए और भक्तवत्सल कल्याणकारी शिव को प्रणाम करते हुए बोले- हे देवेश्वर! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो हमारी प्रार्थना से आप साक्षात रूप में यहां सदा विराजमान रहें। उन दोनों के अनुरोध पर देवाधिदेव महादेव जी हिमालय के केदार नामक उस तीर्थ में ज्योतिर्लिंग रूप में स्थित हो गए और वह ज्योतिर्लिंग संसार में केदारेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह लिंग दुख और भय का नाश करने वाला है। इसके दर्शनों से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। कहते हैं कि जो भक्त शिवलिंग के निकट शिव के रूप में अंकित वलय पर कंकड़ या कड़ा चढ़ाता है, उसे उनके वलय रूप के दर्शन होते हैं तथा सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। केदार तीर्थ का दर्शन कर केदारेश्वर लिंग का पूजन करने एवं वहां का जल पीने के पश्चात मनुष्य जीवन-मरण के चक्र से छूट जाता है और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार मैंने आपसे केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग महिमा का वर्णन किया।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता उन्नीसवां अध्याय

भीम उपद्रव का वर्णन

सूत जी बोले- हे ऋषियो ! पूर्वकाल में भीम नाम का एक बलशाली राक्षस हुआ था, जो कि रावण के भाई कुंभकरण और कर्कटी राक्षसी का पुत्र था। वह कर्कटी अपने पुत्र भीम के साथ सह्य पर्वत पर रहती थी। एक बार भीम ने अपनी माता से पूछा- माताजी ! मेरे पिताजी कौन हैं और कहां हैं? हम इस प्रकार यहां अकेले क्यों रह रहे हैं? अपने पुत्र के प्रश्न का उत्तर देते हुए कर्कटी बोली- पुत्र भीम ! तुम्हारे पिता रावण के छोटे भाई कुंभकर्ण थे। पूर्व में मैं विराध राक्षस की पत्नी थी, जिसे श्रीराम ने मार डाला था। फिर मैं अपने माता-पिता के साथ रहने लगी। एक दिन जब मेरे माता-पिता अगस्त्य ऋषि के आश्रम में एक मुनि का भोजन खा रहे थे, तब मुनि ने शाप द्वारा उन्हें भस्म कर दिया था। मैं पुनः अकेली रह गई। तब मैं इस पर्वत पर आकर रहने लगी। यहीं पर मेरी कुंभकर्ण से भेंट हुई थी और हमने विवाह कर लिया। उसी समय श्रीराम ने लंका पर आक्रमण कर दिया और तुम्हारे पिता को वापस जाना पड़ा। तब श्रीराम ने युद्ध में उनका वध कर दिया । अपनी माता के वचन सुनकर भीम को भगवान विष्णु से द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने बदला लेने की ठान ली। वह ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या करने लगा। उसकी घोर तपस्या से अग्नि प्रज्वलित हो गई, जिससे सभी जीव दग्ध होने लगे। तब ब्रह्माजी उसे वर देने के लिए गए। ब्रह्माजी ने उसके सामने प्रकट होकर वरदान मांगने के लिए कहा। तब भीम बोला- हे पितामह! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे महाबली होने का वर प्रदान करें। तब तथास्तु कहकर ब्रह्माजी वहां से अंतर्धान हो गए। वर प्राप्त करने के बाद प्रसन्न होकर भीम अपनी माता के पास आया और बोला-माता! मैं शीघ्र ही विष्णु से अपने पिता कुंभकर्ण के वध का बदला ले लूंगा। यह कहकर भीम वहां से चला गया। उसने देवताओं से भयानक युद्ध किया और उन्हें हराकर स्वर्ग पर अधिकार स्थापित कर लिया। फिर उसने कामरूप देश के राजा से युद्ध करना आरंभ कर दिया। उसे जीतकर कैद कर लिया और उसके खजाने पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। राजा दुखी था। उसने जेल में ही पार्थिव लिंग बनाकर शिवजी का पूजन करना शुरू कर दिया और विधिपूर्वक 'ॐ नमः शिवाय' मंत्र का जाप करने लगा। दूसरी ओर, राजा की पत्नी भी अपने पति को पुनः वापस पाने के लिए भगवान शिव की आराधना करने लगी। इधर, भीम नामक राक्षस से दुखी सभी देवता भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे। तब विष्णुजी ने सब देवताओं को साथ लेकर महाकेशी नदी के तट पर शिवजी के पार्थिव लिंग की विधि-विधान से स्थापना कर उसकी स्तुति-आराधना की। भगवान शिव उनकी उत्तम आराधना से प्रसन्न होकर वहां प्रकट हुए। शिवजी बोले- हे देवताओ ! मैं तुम्हारी स्तुति से प्रसन्न हूं। मांगो, क्या मांगना चाहते हो? शिवजी के वचन सुनकर देवता सहर्ष बोले कि भगवन्! भीम नामक उस असुर ने सभी देवताओं को दुखी कर रखा है। आप उसका वध करके हमें उसकी दुष्टता से मुक्ति दिलाएं। देवताओं को इच्छित वर प्रदान कर शिवजी वहां से अंतर्धान हो गए। देवता बहुत प्रसन्न हुए और जाकर राजा को भी सूचना दी कि भगवान जल्दी ही तुम्हारे शत्रु भीम का नाश कर तुम्हें मुक्त करेंगे।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता बीसवां अध्याय

भीमशंकर ज्योतिर्लिंग का माहात्म्य

सूत जी बोले- हे ऋषिगणो! अब मैं आपको भीमशंकर ज्योतिर्लिंग के माहात्म्य के बारे में बताता हूं। इधर, जब दानव भीम को यह ज्ञात हुआ कि राजा कैदखाने में कोई अनुष्ठान कर रहा है तब वह क्रोधित होकर जेलखाने में पहुंचा। भीम राजा से बोला- हे दुष्ट ! तू मुझे मारने के लिए कैसा अनुष्ठान कर रहा है। बता, अन्यथा मैं अपनी इस तलवार से तेरे टुकड़े- टुकड़े कर दूंगा। इस प्रकार भीम और उसके अन्य राक्षस सैनिक राजा को धमकाने लगे।  राजा भयभीत होकर मन ही मन भगवान शिव से प्रार्थना करने लगा। वह बोला- हे देवाधिदेव ! कल्याणकारी भक्तवत्सल भगवान शिव मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी इस राक्षस से रक्षा करें। इधर, जब राजा ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया तो वह क्रोधित होकर तलवार हाथ में लिए उस पर झपटा। एकाएक वह तलवार शिवजी के पार्थिव लिंग पर पड़ी और उसमें से भगवान शिव प्रकट हो गए। उन्होंने अपने त्रिशूल से उस तलवार के दो टुकड़े कर दिए। फिर उनके गणों का दैत्य सेना के साथ महायुद्ध हुआ। उस भयानक युद्ध से धरती और आकाश डोलने लगा। ऋषि तथा देवतागण आश्चर्यचकित रह गए। तब भगवान ने अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से भीम को भस्म कर दिया, जिससे वन में भी आग लग गई और अनेक औषधियां नष्ट हो गईं, जो अनेकों रोगों का नाश करने वाली थीं। तब अपने भक्तों का कल्याण करने के लिए कल्याणकारी भगवान शिव सदा के लिए राजा द्वारा स्थापित उस पार्थिव लिंग में विराजमान हो गए और संसार में भीमशंकर नाम से प्रसिद्ध हुए। भगवान शिव का यह लिंग सदैव पूजनीय और सभी आपत्तियों का निवारण करने वाला है।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता इक्कीसवां अध्याय

काशीपुरी का माहात्म्य

सूत जी बोले- हे मुनिवरों! इस पृथ्वी लोक में दिखाई देने वाली प्रत्येक वस्तु सच्चिदानंद स्वरूप, निर्विकार एवं सनातन ब्रह्मरूप है। वह अद्वितीय परमात्मा ही सगुण रूप में शिव कहलाए और दो रूपों में प्रकट हुए। वे शिव ही पुरुष रूप में शिव एवं स्त्री रूप में शक्ति नाम से प्रसिद्ध हुए। शिव-शक्ति ने मिलकर दो चेतन अर्थात प्रकृति एवं पुरुष (विष्णु) की रचना की है। तब प्रकृति एवं पुरुष अपने माता-पिता को सामने न पाकर सोच में पड़ गए। उसी समय आकाशवाणी हुई। आकाशवाणी बोली- तुम दोनों को जगत की उत्पत्ति हेतु तपस्या करनी चाहिए। तभी सृष्टि का विस्तार होगा। वे दोनों बोले- हे स्वामी! हम कहां जाकर तपस्या करें? यहां पर तो ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां तपस्या की जा सके। तब भगवान शिव ने पांच कोस लंबे-चौड़े शुभ व सुंदर नगर की तुरंत रचना कर दी। वे दोनों त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के चरणों का स्मरण करके वहां तपस्या करने लगे। उन्हें इस प्रकार तपस्या करते-करते बहुत समय बीत गया। उनकी कठिन तपस्या के कारण उनके शरीर से पसीने की बूंदें निकलीं। उन श्वेत जल की बूंदों को गिरता हुआ देखकर भगवान श्रीहरि विष्णु ने अपना सिर हिलाया तभी उनके कान से एक मणि गिरी और वह स्थान मणिकर्णिका नाम से प्रसिद्ध हो गया। जब उनके शरीर से निकली जलराशि से वह नगरी बहने लगी तब कल्याणकारी भगवान शिव ने अपने त्रिशूल की नोक पर उसे रोक लिया। तपस्या में किए गए परिश्रम से थककर विष्णु तथा उनकी पत्नी प्रकृति वहीं उसी नगर में सो गए। तब शिवजी की प्रेरणा स्वरूप विष्णुजी की नाभि से कमल उत्पन्न हुआ। उसी कमल से ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। भगवान शिव की आज्ञा पाकर ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना आरंभ कर दी। ब्रह्माजी ने पचास करोड़ योजन लंबा और पचास करोड़ योजन चौड़ा ब्रह्माण्ड रच दिया। इसमें चौदह अद्भुत लोकों का भी निर्माण ब्रह्माजी ने किया। इस प्रकार जब सर्वेश्वर शिव की आज्ञा से ब्रह्माजी द्वारा ब्रह्माण्ड का निर्माण हो गया तब भक्तवत्सल भगवान शिव के मन में विचार आया कि इस संसार के सभी प्राणी तो कर्मपाश में बंधे रहेंगे। सांसारिक मोह माया में पड़कर भला वे मुझे किस प्रकार पा सकेंगे। ऐसा सोचकर त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी भगवान शिव ने अपने त्रिशूल से पांच कोस नगरी उतारकर ब्रह्माण्ड से अलग की। तत्पश्चात उसमें अपने अविमुक्ति ज्योतिर्लिंग की स्थापना कर दी। यहीं पंचकोसी, कल्याणदायिनी, ज्ञानदात्री एवं मोक्षदात्री नगरी काशी कहलाई। भगवान शिव ने इस नगरी में अपने ज्योतिर्लिंग की स्थापना करने के पश्चात इसे पुनः मृत्युलोक में त्रिशूल के माध्यम से जोड़ दिया। कहते हैं ब्रह्माजी का एक दिन पूरा होने पर प्रलय आती है परंतु इस काशी नगरी का नाश असंभव है, क्योंकि प्रलय के समय शिवजी इस काशी नगरी को अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं तथा सब शांत हो जाने पर काशी को पृथ्वीलोक से जोड़ देते हैं। इसलिए मुक्ति की कामना करने वालों को काशी जाना चाहिए। यहां के दर्शनों से हर प्रकार के पापों से मुक्ति मिल जाती है। काशी मोक्ष देने वाली नगरी के रूप में प्रसिद्ध है। संसार के समस्त प्राणियों के मध्य में सत्व रूप में और बाहर तामस रूप में विराजमान परमात्मा भगवान शिव ही हैं। सत्व आदि गुणों से युक्त वही रुद्र हैं, जो सगुण होते हुए निर्गुण और निर्गुण होते हुए सगुण हैं। उन कल्याणकारी भगवान शिव को प्रणाम करके रुद्र बोले- हे विश्वनाथ! महेश्वर लोकहित की कामना से आपको यहां विराजमान रहना चाहिए। मैं आपके अंश से उत्पन्न हूं। आप मुझ पर कृपा करें और देवी पार्वती सहित यहीं पर निवास करें। ब्राह्मणो! जब विश्वनाथ ने भगवान शिव से इस प्रकार प्रार्थना की तब भगवान शिव संसार के कल्याण के लिए काशी में देवी पार्वती सहित निवास करने लगे। उसी दिन से काशी सर्वश्रेष्ठ नगरी हो गई।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिताबाईसवां अध्याय

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