पार्वती को सेवा में रखने के लिए हिमालय का शिव को मनाना "पार्वती-शिव का दार्शनिक संवाद, Himalaya's persuasion of Shiva to keep Parvati in his service "Parvati-Shiva Philosophical Dialogue,पार्वती को सेवा में रखने के लिए हिमालय का शिव को मनाना "पार्वती-शिव का दार्शनिक संवाद

पार्वती को सेवा में रखने के लिए हिमालय का शिव को मनाना "पार्वती-शिव का दार्शनिक संवाद

ब्रह्माजी बोले ;– हे मुनि नारद! तत्पश्चात हिमालय अपनी पुत्री पार्वती को साथ लेकर शिवजी के पास गए। वहां जाकर उन्होंने योग साधना में डूबे त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया तथा इस प्रकार प्रार्थना करने लगे- भगवन्, मेरी पुत्री पार्वती आपकी सेवा करने की बहुत उत्सुक है। इसलिए आपकी आराधना करने के लिए मैं इसे अपने साथ यहां लाया हूं। हे प्रभु! यह अपनी दो सखियों के साथ आपकी सेवा में रहेगी। आप मुझ पर कृपा करके इसे अपनी सेवा का अवसर प्रदान करिए। तब भगवान शिव ने उस परम सुंदरी हिमालय कन्या पार्वती को देखकर अपनी आखें बंद कर लीं और पुनः परमब्रह्म के स्वरूप का ध्यान करने में निमग्न हो गए। उस समय सर्वेश्वर एवं सर्वव्यापी शिवजी तपस्या करने लगे। यह देखकर हिमालय इस सोच में डूब गए कि भगवान शंकर उनकी तपस्या स्वीकार करेंगे या नहीं? 
तब एक बार पुनः हिमालय ने दोनों हाथ जोड़कर शिवजी के चरणों में प्रणाम किया और बोले – हे देवाधिदेव महादेव! हे भोलेनाथ! शिवशंकर ! मैं दोनों हाथ जोड़े आपकी शरण में आया हूं। कृपया आंखें खोलकर मेरी ओर देखिए भगवन्! आप सभी विपत्तियों को दूर करते हैं। हे भक्तवत्सल ! मैं रोज अपनी पुत्री के साथ आपके दर्शनों के लिए यहां आऊंगा। कृपया मुझे आज्ञा प्रदान कीजिएहिमालय के वचनों को सुनकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने अपने नेत्र खोल दिए और बोले-हे गिरिराज हिमालय ! आप अपनी कन्या को घर पर ही छोड़कर मेरे दर्शनों को आ सकते हैं, नहीं तो आपको मेरा भी दर्शन नहीं होगा। महेश्वर की ऐसी बात सुनकर हिमालय ने अपना मस्तक झुका दिया और शिवजी से बोले - हे प्रभु! हे महादेव जी! कृपया यह बताइए कि मैं अपनी पुत्री के साथ आपके दर्शनों के लिए क्यों नहीं आ सकता? क्या मेरी पुत्री आपकी सेवा के योग्य नहीं है? फिर इसे न लेकर आने का कारण मुझे समझ में नहीं आता
हिमालय की बात सुनकर शिवजी हंसने लगे और बोले ;- हे गिरिराज! आपकी पुत्री सुंदर, चंद्रमुखी और अनेक शुभ लक्षणों से संपन्न है। इसलिए आपको इसे मेरे पास नहीं लाना चाहिए क्योंकि विद्वानों ने नारी को माया रूपिणी कहा है। युवतियां ही तपस्वियों की तपस्या में विघ्न डालती हैं। मैं योगी हूं। सदैव तपस्या में लीन रहता हूं और माया-मोह से दूर रहता हूं। इसलिए मुझे स्त्री से दूर ही रहना चाहिए । हे हिमालय आप धर्म के ज्ञानी और वेदों की रीतियां जानते हैं। स्त्री की निकटता से मन में विषय वासना उत्पन्न हो जाती है और वैराग्य नष्ट हो जाता है जिससे तपस्वी और योगी का ध्यान नष्ट हो जाता है। इसलिए तपस्वी को स्त्रियों का साथ नहीं करना चाहिए।इस प्रकार कहकर भगवान शिव चुप हो गए हिमालय शिवजी के ऐसे वचनों को सुनकर चकित और व्याकुल हो गए। उन्हें चुप देखकर पार्वती देवी असमंजस में पड़ गईं।
श्रीरुद्र संहिता तृतीय खण्ड बारहवां अध्याय 

पार्वती-शिव का दार्शनिक संवाद"

भगवान शंकर के वचन सुनकर पार्वती जी बोलीं ;- योगीराज ! आपने जो कुछ भी मेरे पिताश्री गिरिराज हिमालय से कहा उसका उत्तर मैं देती हूं। अंतर्यामी । आपने महान तप करने का निश्चय किया है। ऐसा करने का निश्चय आपने शक्ति के कारण ही लिया है। सभी कर्मों को करने की यह शक्ति ही प्रकृति है। प्रकृति ही सबकी सृष्टि, पालन और संहार करती है। प्रभु! आप थोड़ा विचार करें, प्रकृति क्या है? और आप कौन हैं? यदि प्रकृति न हो तो शरीर तथा स्वरूप किस प्रकार हों? आप सदा प्राणियों के लिए वंदनीय और चिंतनीय हैं। यह सब प्रकृति के ही कारण है।पार्वती जी के वचनों को सुनकर उत्तम लीला करने वाले भगवान शिव हंसते हुए बोले- मैं अपने कठोर तप द्वारा प्रकृति का नाश कर चुका हूं। अब मैं तत्व रूप में स्थित हूं। साधु पुरुषों को प्रकृति का संग्रह नहीं करना चाहिए। भगवान शिव के इस प्रकार के वचनों को सुनकर पार्वती हंसती हुई बोलीं ;- हे करुणानिधान! कल्याणकारी योगीराज ! आपने जो कहा, क्या वह प्रकृति नहीं है, तो फिर आप उससे अलग कैसे हो सकते हैं? बोलना या कुछ भी करना अर्थात हमारे द्वारा किया गया हर क्रियाकलाप ही प्रकृति है। हम सदा ही प्रकृति के ही वश में हैं। यदि आप प्रकृति से अलग हैं तो न आपको बोलना चाहिए और न ही कुछ और करना चाहिए क्योंकि ये कार्य तो प्रकृति के हैं अर्थात प्राकृत हैं। भगवन्! आप हंसते, सुनते, खाते देखते और करते हैं वह सब भी तो प्रकृति का ही कार्य है। इसलिए व्यर्थ के वाद-विवाद से कोई लाभ नहीं है। यदि आप वाकई प्रकृति से अलग हैं तो इस समय यहां तपस्या क्यों कर रहे हैं? सच तो यह है कि आप प्रकृति के वश में हैं और इस समय अपने स्वरूप को खोजने के लिए ही तपस्या में लीन रहना चाहते हैं। योगीराज ! आप किस प्रकार की बात कर रहे हैं, थोड़ा विचार कर कहें। यदि आपने प्रकृति का नाश कर डाला है तो आप किस प्रकार विद्यमान रहेंगे, क्योंकि संसार तो सदा से ही प्रकृति से बंधा हुआ है। क्या आप प्रकृति का यह तत्व नहीं जान रहे हैं कि मैं ही प्रकृति हूं। आप पुरुष हैं। यह पूर्णतया सच है । मेरे ही कारण आप सगुण और साकार माने जाते हैं। भगवन्, आप जितेंद्रिय होने पर भी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करते हैं। हे महादेव! यदि आप यही मानते हैं कि आप प्रकृति से अलग हैं तो आपको मेरी किसी भी सेवा से और किसी भी प्रकार से डरना नहीं चाहिए।पार्वती के मुख से निकले सांख्य-शास्त्र में डूबे हुए वचन सुनकर भगवान शिव निरुत्तर हो गए। तब उन्होंने पार्वती जी को अपने दर्शन और सेवा करने की आज्ञा प्रसन्नतापूर्वक प्रदान कर दी। तत्पश्चात भगवान शिव पर्वतराज हिमालय से बोले - हे गिरिराज हिमालय! मैं तुम्हारे इस शिखर पर तपस्या करना चाहता हूं। कृपया मुझे इसकी आज्ञा प्रदान करें । देवाधिदेव भगवान शिव के इस प्रकार के वचनों को सुनकर गिरिराज हिमालय दोनों हाथ जोड़कर बोले - हे महादेव! यह पूरा संसार आपका ही है। सभी देवता, असुर और मनुष्य सदैव आपका ही पूजन और चिंतन करते हैं। मैं आपके सामने एक तुच्छ मनुष्य हूं, भला मैं आपको किस प्रकार आज्ञा दे सकता हूं? प्रभु! यह आपकी इच्छा है, आप जब तक यहां निवास करना चाहें, कर सकते हैं। गिरिराज के इन वचनों को सुनकर भगवान शिव मुस्कुराने लगे और आदरपूर्वक हिमालय से बोले- अब आप जाइए। अब हमारी तप करने की इच्छा है। तुम्हारी कन्या नित्य आकर मेरे दर्शन कर सकती है और मेरी सेवा करने की भी मैं उसे आज्ञा देता हूं। लोक कल्याणकारी भगवान शिव के इन उत्तम वचनों को सुनकर हिमालय और पार्वती जी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को नमस्कार किया और अपने घर लौट गए। उसी दिन से पार्वती जी प्रतिदिन भगवान शिव के दर्शनों के लिए वहां आतीं। उस समय उनके साथ उनकी दो सखियां भी वहां जातीं और भक्तिपूर्वक शिवजी की सेवा करती । वे महादेव के चरणों को धोकर उस चरणामृत को पीती थीं। तत्पश्चात उनके चरणों को पोंछतीं। फिर उनका षोडशोपचार अर्थात सोलह उपचारों से विधिवत पूजन करने के पश्चात अपने घर वापस लौट आतीं। इस प्रकार प्रतिदिन शिवजी का पूजन करते हुए बहुत समय व्यतीत हो गया। कभी- कभी पार्वतीजी अपनी सखियों के साथ वहां भक्तिपूर्वक उनके भजनों को भी गाती थीं। एक दिन सदाशिव ने पार्वती जी को इस प्रकार अपनी सेवा में तत्पर देखकर विचार किया कि जब इनके हृदय में उपजे अभिमान के बीज के अंकुर का नाश हो जाएगा, तभी मैं इनका पाणिग्रहण करूंगा। ऐसा सोचकर लीलाधारी भगवान शिव पुनः ध्यान में मग्न हो गए। तब उनका मन चिंतामुक्त हो गया। तब देवी पार्वती भगवान शिव के रूप का चिंतन करती हुई भक्तिभाव से उनकी सेवा करती रहतीं। भगवान शंकर भी शुद्ध भाव से पार्वती को प्रतिदिन दर्शन देते थे।इसी बीच इंद्र और अन्य देवता व मुनि ब्रह्माजी के पास पहुंचे। ब्रह्माजी की आज्ञा से कामदेव हिमालय पर्वत पर गए। सभी देवताओं के कार्य की सिद्धि हेतु काम की प्रेरणा से वे पार्वती - शिव का संयोग कराना चाहते थे। इसका कारण यह था कि महापराक्रमी तारकासुर ने ऋषि-मुनियों और देवताओं की नाक में दम कर रखा था। उसका वध करने के लिए उन्हें भगवान शिव जैसे महापराक्रमी और बलवान पुत्र की आवश्यकता थी ।कामदेव ने हिमालय के शिखर पर पहुंचकर अनेक यत्न किए परंतु भगवान शिव काम की माया से मोहित न हो सके। उन्होंने क्रोध से कामदेव को भस्म कर दिया। अब शक्ति में ही सामर्थ्य थी कि शिव को मोहित कर वे देवताओं की इच्छा को साकार करतीं। इसीलिए काम के अनंग होने के बाद जनकल्याण के लिए तथा अपने व्रत को पूरा करने के लिए पार्वती ने मन ही मन शिवजी को पति रूप में पाने का दृढ़ निश्चय कर लिया। कठोर तपस्या करके देवी पार्वती ने शिवजी के हृदय को जीत लिया। तब वे दोनों अत्यंत प्रेम से प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे और उन्होंने देवताओं के महान कार्य को सिद्ध किया।
श्रीरुद्र संहिता तृतीय खण्ड तेरहवां अध्याय

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