कलिनाशक मंत्र ,व्रत ग्रहण करने का विधान , शिव भक्त वर्णन Kalinashak mantra, method of observing fast, description of Shiva devotee

कलिनाशक मंत्र ,व्रत ग्रहण करने का विधान , शिव भक्त वर्णन

कलिनाशक मंत्र

देवी पार्वती बोलीं- हे स्वामी! कलियुग में पाप रूपी अंधकार निरंतर बढ़ता जाता है, धर्म से विमुखता आ जाती है। धर्म के आचार-विचार सभी परंपराएं एवं मर्यादाएं नष्ट हो जाती हैं। तब उसमें आपके भक्तों की क्या गति होगी? और वे कैसे मुक्त हो पाएंगे? पार्वती जी के वचन सुनकर शिवजी बोले- हे देवी! कलियुग में 'पंचाक्षर मंत्र' का भक्तिपूर्वक जाप करने वाले मनुष्यों को मुक्ति मिल जाती है। पापियों, निर्दयी एवं कुटिल जन भी श्रद्धाभावना से पंचाक्षर मंत्र का जाप करने से भवसागर से पार हो जाते हैं। पंचाक्षर मंत्र के जपने से शिवलोक की प्राप्ति होती है। यह सर्वोत्तम मंत्र है। महर्षि इसी मंत्र के प्रभाव से स्वधर्माचरण करते हैं। प्रलय आने पर सभी स्थावर जंगम जीव नष्ट हो जाते हैं। तब मैं ही एकमात्र जीवित रहता हूं। सारे वेद और शास्त्र मुझ में लीन हो जाते हैं। फिर नई सृष्टि का आरंभ होता है। सृष्टि के पुनः आरंभ में जब श्रीहरि क्षीरसागर में सो रहे थे, उस समय उनकी नाभि से पंचमुखी ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। उन्होंने सृष्टि की रचना करने हेतु मेरी तपस्या की। तब मैंने ब्रह्माजी को साक्षात दर्शने देकर उन्हें 'ॐ नमः शिवाय' मंत्र की दीक्षा दी। इसी मंत्र के प्रभाव से उन्होंने देवताओं, दानवों, ऋषियों एवं प्राणीजन की रचना की। 'नमः शिवाय' यह पांच अक्षरीय मंत्र महा महिमावान है और सारे जगत का बीज रूप है। इसे वेदों से उत्तम माना गया है। मेरे द्वारा प्रकट प्रथम विद्या यही है। वामदेव इसके ऋषि हैं और पंक्ति छंद हैं। मैं इस मंत्र का देवता हूं। यह मेरा परम प्रिय मंत्र है। पंचाक्षर मंत्र कलियुग में इस भवसागर से तारने वाला मंत्र है।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता उत्तरार्द्ध तेरहवां अध्याय

व्रत ग्रहण करने का विधान

भगवान शिव बोले- हे प्रिये! ऐसा व्रत, जो क्रिया और श्रद्धा से हीन हो, निष्फल होता है। तभी सिद्ध व्यक्ति श्रद्धा भाव बढ़ाते हैं और तत्वज्ञाता गुरु की शरण में जाते हैं। प्राणीजन शरीर, मन और वाणी द्वारा उनका पूजन करते हैं और यथायोग्य वस्तुओं का दान करते हैं। इसलिए जब प्राणीजन गुरु की शरण में जाते हैं तो गुरु उन्हें मंत्र की दीक्षा देते हैं और जब शिष्य का अहंकार का भाव समाप्त हो जाता है तब उसे घृत से स्नान करा, आभूषण से भूषित कर ब्राह्मणों का पूजन करे। फिर गौशाला या मंदिर में जाकर विधिपूर्वक ज्ञान का उपदेश दे। गुरु द्वारा दीक्षित मंत्र का प्रतिदिन एक सौ आठ बार जाप करना चाहिए। इससे परम गति प्राप्त होती है। वाचिक जप का फल एक गुना, उपांशु जप का सौ गुना, मानस का हजार गुना, सगर्भ का लक्ष गुना होता है। मंत्र के अंत में ओंकार होना चाहिए। ध्यान के साथ मंत्र का जाप करना चाहिए। सूर्य, अग्नि, गुरु, चंद्रमा, दीपक, जल, ब्राह्मण और गौ के पास ही जप करना चाहिए। वशीकरण हेतु पूर्व, घात करने हेतु दक्षिण, धन प्राप्ति हेतु पश्चिम, शांति हेतु उत्तर की ओर मुख करके जाप करना चाहिए। आचारहीन व्यक्तियों को लोकनिंदक माना जाता है। तप, उत्तम धन एवं श्रेष्ठ विद्या को आचार माना जाता है। निंदक मनुष्य को परलोक में भी सुख नहीं मिलता। इसलिए हमें सदाचार का पालन करना चाहिए। गुरु द्वारा दीक्षित मंत्र पतित, चाण्डालों को भी सुधार वाला तथा परम गति प्रदान करने वाला होता है।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता उत्तरार्द्ध चौदहवां अध्याय

दीक्षा विधि

श्रीकृष्ण बोले- हे महर्षे! अब आप मुझे शिव संस्कारों के बारे में बताइए । यह सुनकर उपमन्यु बोले- हे श्रीकृष्ण ! मनुष्य द्वारा छः मार्गों को शुद्ध कर लेना संस्कार कहलाता है। ज्ञान प्रदान करने वाले तथा बंधनों का नाश करने वाले संस्कार दीक्षा कहलाते हैं। शांभवी, शाक्ती एवं मांत्री शांभवी दीक्षा तीन प्रकार की होती है। शांभवी तीव्र और तीव्रतरा दो प्रकार की होती है। पाप नष्ट करने वाली तीव्र तथा आनंद प्रदान करने वाली तीव्रतरा शांभवी दीक्षा कहलाती है। योग मार्ग से शिष्य शरीर में प्रवेश कर गुरु द्वारा दी गई दीक्षा शाक्ती दीक्षा कहलाती है। कुंड-कुंडल सहित की गई क्रिया दीक्षा मांत्री दीक्षा कहलाती है। शिष्य को अपने गुरु के गौरव को बढ़ाने हेतु नित उनका पूजन करना चाहिए। गुरु और भगवान शिव में कोई अंतर नहीं मानना चाहिए। हमें गुरु आज्ञा का अनुसरण करना चाहिए। गुणवान गुरु, जो सर्वेश्वर शिव के परम भक्त हैं, परम मुक्तिदायक हैं। गुरुदेव अपनी शरण में आए ब्राह्मण शिष्य की एक वर्ष, क्षत्रिय की दो वर्ष एवं वैश्यों की तीन वर्ष तक परीक्षा करें। जो शिष्य दुख एवं ताड़ना पाकर भी मौन रहे और दुख का अनुभव न करे उन्हें शिव तत्पात्र एवं शिव संस्कार योग्य मानना चाहिए। परीक्षा लेने के पश्चात गुरु को सप्रेम दीक्षा देनी चाहिए।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता उत्तरार्द्ध पंद्रहवां अध्याय

 शिव भक्त वर्णन

उपमन्यु बोले -हे श्रीकृष्ण ! समयाह्वय संस्कार को ग्रहण करते समय सर्वप्रथम शुभ दिन और शुभ समय देखें। भूमि पर शिल्प से मनोहर मंडल की रचना करें जिसके मध्य में वेदी हो। ईशान कोण से आठ दिशाओं में कुंडल बनाएं। फिर चंदोवा, ध्वजा पताका, मालाओं से उसे शोभित करें। वेदी के मध्य में सुंदर मंडप होना चाहिए। फिर सोने-चांदी द्वारा ईश्वर का आवाहन करें। सोना-चांदी न होने पर चावल, सिंदूर, पुष्पों से आवाहन करें। दो हाथ लंबा श्वेत या लाल कमल बनाएं जिसमें आठ कर्णिका हों। वेदी पर धान चावल, सरसों, तिल, पुष्प, कुशा बिछाकर कलश की स्थापना करें। कलश में जल भरकर सुगंधित पुष्प, अक्षत, कुशा, दूर्वा डालें तथा उस पर नया लाल वस्त्र लपेटें। स्वयं आसन ग्रहण करें। मंडल के मध्य में महेश्वर का पूजन करें। फिर भगवान शिव का आवाहन करते हुए कलश का पूजन करें। दक्षिण में शिवजी के अस्त्रों को पूजें तथा मंत्रोच्चारण करते हुए यज्ञ आरंभ करें। शिव अग्नि में प्रधान आचार्य होम करें तथा भगवान शिव से सांसारिक दुखों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना करें। फिर शिष्य शिवजी की तीन बार परिक्रमा करे और दंडवत प्रणाम करे। फिर शिव मंत्र का उच्चारण करते हुए शास्त्रानुसार गुरु शिष्य के शरीर में प्रविष्ट होकर मूल मंत्र के तर्पण में दस आहुतियां दे । तत्पश्चात शिष्य पुनः स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करे और पुनः कुश के आसन पर बैठे। गुरु शिव नाम जपते हुए शिष्य के शरीर पर भस्म लगाएं। फिर शिष्य के कान में शिव मंत्र का उपदेश दे। मंत्र की शिक्षा लेकर शिष्य उस मंत्र का उच्चारण कर शिवजी को प्रणाम करें। तत्पश्चात गुरु शिष्य को अभिमंत्रित रुद्राक्ष व शिवमूर्ति भेंट करें और शिष्य उसे सम्मानपूर्वक ग्रहण करे।
शिव पुराण श्रीवायवीय संहिता उत्तरार्द्ध सोलहवां अध्याय

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