कालि का उत्पत्ति ,गौरी मिलाप ,सोम अमृत अग्नि का ज्ञान ,Knowledge of Kalika origin, Gauri Milap, Som Amrit Agni

कालि का उत्पत्ति ,गौरी मिलाप ,सोम अमृत अग्नि का ज्ञान

कालिका उत्पत्ति

वायुदेव बोले- इस प्रकार क्रोधित होकर देवी वहां से चली गई। फिर वे अपने माता-पिता से मिलने के लिए हिमालय पहुंचीं और फिर उनका आशीर्वाद लेकर तपस्या करने के लिए चली गई। परम दिव्य और मनोरम स्थान देखकर वे तपस्या में बैठ गई। वे प्रतिदिन स्नान करके धूप, दीप आदि से पूजन करती और मन में ब्रह्माजी का स्मरण करते आराधना करनी आरंभ कर दी। हुए उनकी एक दिन भगवती तपस्या में लीन थीं, उसी समय एक उग्र सिंह वहां आ गया परंतु देवी के तेज के प्रभाव से वह आगे न बढ़ सका। वह दिन-रात मूर्ति बनकर वहीं देवी के सामने खड़ा रहा। उसे देखकर देवी ने सोचा कि यज्ञ सिंह हिंसक जानवरों से मेरी रक्षा करने के लिए यहां खड़ा है। देवी की कृपादृष्टि से वह सिंह पापों से मुक्त हो गया और देवी की सेवा में लग गया। दूसरी ओर सभी देवता दैत्यों द्वारा किए जा रहे उपद्रवों से बहुत दुखी थे। बहुत दुखी होकर वे सभी ब्रह्माजी की शरण में गए और उन्हें अपना दुखड़ा सुनाया। देवताओं को सहायता का आश्वासन देकर ब्रह्माजी देवी के समक्ष पहुंचे। देवी कठोर तपस्या में लीन थीं। ब्रह्माजी को इस प्रकार सामने पाकर देवी ने प्रणाम किया। तब ब्रह्माजी बोले- हे भगवती ! आप तो सबका कल्याण करने वाली तथा सभी तपस्याओं का फल देने वाली हैं। फिर आप इस तरह कठोर तपस्या क्यों कर रही हैं? ब्रह्माजी के पूछे प्रश्न का उत्तर देते हुए देवी बोलीं- हे ब्रह्माजी! सृष्टि के आरंभ में आप भगवान शिव से उत्पन्न हुए हैं, इसलिए आप मेरे पुत्र हैं। प्रजा वृद्धि के लिए भगवान रुद्र आपके मस्तक से प्रकट हुए इसलिए आप मेरे ससुर है। अपना दुख आपको बताकर में उससे मुक्त होना चाहती हूं। मैं अपना काले रंग का शरीर त्यागकर गोरी बनना चाहती हूं। तब ब्रह्माजी ने कहा- हे देवी! जैसा आप चाहती है वैसा ही होगा। आप अपने काले वर्ण का त्याग कर गौरवर्ण धारण करें। देवी आपका वही काला वर्ण दैत्यराज शुंभ-निशुंभ का वध करके इस संसार को उनके पापों से मुक्त करेगा। तभी देवी ने काले रंग का त्याग कर गोरा रंग धारण कर लिया। भगवती के काले वर्ण से मेघों के समान श्याम वर्णी कौशिकी नामक कन्या उत्पन्न हुई। वह योगिनी अष्टभुजा वाली तथा शंख, चक्र एवं त्रिशूल आदि आयुधों से सुशोभित थी। ब्रह्माजी ने देवी कौशिकी को शुंभ-निशुंभ का वध करने के लिए शक्ति प्रदान की। तब देवी कौशिकी ब्रह्माजी व देवी को प्रणाम कर विंध्याचल पहुंचीं। उन्होंने शुंभ-निशुंभ का वध कर देवताओं को सुखी कर दिया।
शिव पुराण श्री वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) चौबीसवां अध्याय

सिंह पर दया

वायुदेव बोले- हे मुनियो ! देवी ने अपने काले वर्ण को अलग किया, जिससे देवी कौशिकी की उत्पत्ति हुई। फिर वह आशीर्वाद पाकर विंध्याचल पर चली गई। तब देवी ने ब्रह्माजी से कहा- हे ब्रह्माजी! यह सिंह मेरा परम भक्त है। इसने मेरी अन्य हिंसक जीवों से रक्षा की है। इसलिए इसे मैं अपने साथ ले जाना चाहती हूं। कृपा कर मुझे आज्ञा प्रदान करें। देवी की बात सुनकर ब्रह्माजी बोले- देवी! मुझे तो यह कोई कपटी दैत्य लगता है, जो सबको धोखा देने के लिए रूप बदलकर आया है। इसलिए आप इसे यहीं छोड़ दीजिए। ब्रह्माजी के वचन सुनकर देवी गोरी बोलीं- हे ब्रह्माजी! यह सिंह मेरी शरण में आया है। और मेरी सेवा में दिन रात लगा रहता है। इसलिए में इसे ऐसे नहीं छोड़ सकती। ब्रह्माजी बोले- देवी! यदि यह आपका परम भक्त है तो यह अवश्य ही निष्पाप होगा। आप जैसा उचित समझे, करें। यह कहकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए और देवी अपने सिंह पर सवार होकर भगवान शिव के पास वापस लौट आई।
शिव पुराण श्री वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) पच्चीसवां अध्याय

गौरी मिलाप

वायुदेव बोले- हे ऋषियो! देवी ने वहां पहुंचकर भगवान शिव के चरणों की वंदना की। उन्हें इस प्रकार सामने पाकर शिवजी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने देवी को हृदय से लगा लिया। तब शिवजी बोले- हे प्राणेश्वरी! आपका और मेरा प्रेम साधारण नहीं है। हमें एक- दूसरे से विद्वेष नहीं रखना चाहिए, क्योंकि हम ही जगत के कारण और आधार हैं। हमें कभी भी अलग नहीं होना चाहिए। देवी! मुझे आपका रूप बहुत प्रिय है। आपके काले या गौर वर्ण से कुछ नहीं होता, क्योंकि में आपसे आत्मिक प्रेम करता हूँ।अपने स्वामी भगवान शिव के ये वचन सुनकर देवी बोलीं- हे देवाधिदेव! आपकी कृपा से मैंने अपने श्याम वर्ण से देवी कौशिकी को उत्पन्न किया। जिसने अपने बल और पराक्रम से शुभ और निशुंभ नामक महादैत्यों का संहार किया है। उसकी आराधना से मनुष्यों को तुरंत फल की प्राप्ति होगी तथा देवता भी उसकी पूजा किया करेंगे। भगवन्! मेरी तपस्या में सिंह ने मेरी रक्षा की जिसे में साथ लाई हूं और उसे अपना द्वारपाल बनाना चाहती हूं। देवी भगवती की प्रार्थना सुनकर भगवान शिव ने सिंह को द्वारपाल नियुक्त कर दिया। देवी ने सुंदर वस्त्र आभूषणों से शृंगार करके अपने स्वामी के समीप आसन ग्रहण किया। वे भगवान शिव के साथ ऐसी सुशोभित हो रही थीं, मानो जाभा चंद्र के सौंदर्य को निखार रही हो और संध्या ने सूर्य का आलिंगन कर लिया हो।
शिव पुराण श्री वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) छब्बीसवां अध्याय

सोम अमृत अग्नि का ज्ञान

वायुदेव बोले- हे ऋषिगणो! भगवान शिव का रूप तेजयुक्त होने के कारण अग्नि समान है और देवी गौरी का रूप शांत अमृत के समान चंद्ररूप है। शांतिमय इस तेज में अमृत ही अमृत है। यह विद्या एवं फल रस सभी प्राणियों में विद्यमान है। सूर्य रूप और अग्नि रूप के कारण तेज दो प्रकार का होता है। जल रूप और सोमरूप के कारण रसवृत्ति दो प्रकार की होती है। विद्युत रूपवाला तेज है और मधुरता रस है। तेज और रस सभी चराचर जीवों में होता है। अमृत की उत्पत्ति अग्नि से होती है। इसलिए सुख की कामना के लिए अग्नि में अमृत की आहुति दी जाती है। हवि के लिए अन्न होता है और अन्न वृद्धि के लिए वर्षा होती है। तभी हवि वृत्ति देने वाली कही जाती है। अग्नि तथा अमृत संसार को धारण किए हैं। अग्नि जल कर सोमरूपी अमृत तक पहुंचाती है। इसलिए कालाग्नि नीचे जलाई जाती है और ऊपर से शक्ति सोममय अमृत टपकाती है। संसार के नीचे शक्ति है और ऊपर सदाशिव विद्यमान है। ये दोनों ही संसार को चलाने वाले है। एक बार इसी अग्नि ने संसार को जलाकर भस्म कर दिया था, इसलिए यह भस्म अग्नि वीर्य कहलाई। इस भस्म में अग्नि मंत्र बोलकर स्नान करने वाला मनुष्य सांसारिक बंधनों से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है।
शिव पुराण श्री वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) सत्ताईसवां अध्याय

Comments