चाण्डालिनी की मुक्ति,पशुपतिनाथ शिवलिंग माहात्म्य ,लिंगरूप का कारण Liberation of Chandalini, significance of Pashupatinath Shivalinga, reason for Linga form

चाण्डालिनी की मुक्ति,पशुपतिनाथ शिवलिंग माहात्म्य ,लिंगरूप का कारण

चाण्डालिनी की मुक्ति

सूत जी बोले- हे ऋषियो! अब मैं आपको उस चाण्डालिनी की कथा सुनाता हूं। वह चाण्डालिनी पूर्व जन्म में एक ब्राह्मण कन्या थी। विवाह योग्य होने पर उसके पिता ने उसका विवाह एक ब्राह्मण युवक से कर दिया। विवाह होने के पश्चात वह भोग-विलास में डूब गई। विलास के कारण उसका पति बीमार होकर मृत्यु को प्राप्त हो गया परंतु उसकी भोग की लालसा पूर्ववत ही रही। अब तो वह स्वतंत्र थी। अपनी इच्छाओं को पूरा करने हेतु वह वेश्या बन गई। तब उसके परिवार वालों ने उसे घर से निकाल दिया और उसे जंगल में छोड़ आए। वहां जंगल में भटकते हुए एक दिन वह एक शूद्र के घर जा पहुंची। इस प्रकार एक युवती को सामने पाकर वह शूद्र उसे पाने की इच्छा करने लगा। तब वह उसके साथ वहीं रहने लगी। उस शूद्र के साथ रहते हुए उसने मांस-मदिरा तथा अभक्ष्य वस्तुएं खानी शुरू कर दीं। एक दिन वह शूद्र किसी कार्य से बाहर गया था तब उसे बड़ी जोर से भूख लगी। अपनी भूख शांत करने के लिए उसने अपनी तलवार से आंगन में बंधे बछड़े को काट डाला और उसका मांस खा लिया। इस प्रकार उसने अपने जीवन में सब प्रकार के पाप किए तथा मृत्युकाल आने पर मृत्यु को प्राप्त हुई। यमराज उसे नरक ले गए और वहां उसने नरक की यातनाएं भोगीं। अगले जन्म में उसका जन्म एक शूद्र चाण्डाल के घर हुआ। वह अंधी जन्मी थी और अपने पूर्व जन्म के पापों के कारण कोढ़ी हो गई थी। उसके आस-पास कोई नहीं फटकता था। एक बार उसने कुछ लोगों को सदाशिव के गुण का गान करते हुए सुना। वे कह रहे थे कि माघ कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को भगवान शिव के दर्शन करने से जन्म-जन्मांतरों के पाप धुल जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है। तब कल्याणकारी भगवान शिव के दर्शनों की अभिलाषा मन में लिए वह चाण्डालिनी गोकर्ण क्षेत्र की ओर चल दी। माघ कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी से एक दिन पूर्व वह चाण्डालिनी गोकर्ण जा पहुंची और भूख-प्यास से व्याकुल होकर भीख मांगने लगी। जब वह एक बनिए के दरवाजे पर भीख मांग रही थी तो बनिए ने उसकी झोली में बैल के गले की मंजरी डाल दी। जब उस भिखारिन ने उसे छूकर देखा तब उस मंजरी को उठाकर फेंक दिया। सौभाग्यवश वह मंजरी शिवलिंग पर जाकर गिरी। उस चाण्डालिनी के सारे पाप उस मंजरी के शिवलिंग पर चढ़ते ही नष्ट हो गए। अगले दिन चतुर्दशी पर उसने कुछ न खाया और इस प्रकार उसका निराहार व्रत हो गया। भूख के मारे पूरी रात जागी, इसलिए जागरण का फल भी उसे मिल गया। भगवान शिव अपने भक्तों पर सदा अपनी कृपादृष्टि रखते हैं। उन्होंने उस गरीब चाण्डालिनी के पापों को नष्ट कर दिया और उसकी इच्छा से उसकी मृत्यु हो गई। उसे शिवलोक ले जाने के लिए विमान आ गया। उस दिव्य विमान से वह सदा के लिए सद्गति पाकर शिवलोक को चली गई। हे ऋषियों! इस प्रकार अज्ञानता या भूलवश किया गया भगवान शिव का दर्शन व पूजन भी भगवान शिव को प्रसन्न करता है और भक्तों को मोक्ष प्रदान करता है।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता  नवां अध्याय

लोकहितकारी शिव-माहात्म्य दर्शन

सूत जी बोले- हे ऋषियो! इक्ष्वाकु वंश में एक बड़ा पुण्यात्मा राजा हुआ, जिसका नाम मित्रसह तथा उसकी पत्नी का नाम दमयंती था। वह अति पतिव्रता व धर्म परायण स्त्री थी। एक दिन राजा शिकार खेलने वन को गए। वहां उन्होंने कुमठ नामक दैत्य को एक महात्मा को परेशान करते देखा। उन महात्मा के कष्टों को दूर करने के लिए उन्होंने उस राक्षस को मार डाला। तत्पश्चात वापस आकर अपना राज-काज देखने लगे। उधर, उस दानव के छोटे भाई कपट ने राजा से बदला लेने के लिए रसोइए का वेश बनाया और राजमहल में नौकरी करने लगा। एक बार गुरु जयंती के अवसर पर राजा मित्रसह ने अपने गुरु वशिष्ठ को भोजन के लिए आमंत्रित किया। गुरुदेव राजा के घर पधारे। उस कपटी राक्षस ने राजा से बदला लेने के लिए खाने में मांस मिला दिया और वह भोजन वशिष्ठ जी को परोस दिया परंतु गुरु वशिष्ठ ने भोजन करने से पूर्व ही जान लिया कि इस भोजन में मांस है। यह देखकर मुनि को राजा पर क्रोध आ गया और उन्होंने राजा को सदा के लिए राक्षस बन जाने का शाप दे दिया। शाप सुनकर राजा रोने-गिड़गिड़ाने लगा और बोला – मुनिश्रेष्ठ! मुझे क्षमा कर दें। यह अपराध मैंने - नहीं किया है। राजा के वचनों को सुनकर वशिष्ठ मुनि सोच में डूब गए। तब उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से जान लिया कि अपराध रसोइए का है, जो कि वास्तव में एक राक्षस है। तब वे राजा से बोले - राजन! तुम्हारा रसोइया एक कपटी राक्षस है। उसी ने जान-बूझकर भोजन में मांस परोसा है। मैं अपना शाप वापस तो नहीं ले सकता परंतु इसका असर कम कर सकता हूं। तू बारह वर्षों तक राक्षस रहेगा। यह कहकर मुनि वशिष्ठ वहां से चले गए। उस शाप के कारण राजा राक्षस बन गया और वनों में भटकने लगा। वह जीवों को मारकर खाता था। एक दिन वह भूखा भटक रहा था। तभी उसने एक आश्रम में किशोर अवस्था के एक युवक को मुनि रूप में तपस्या करते देखा और उसे खाने के लिए दौड़ा। मुनि की पत्नी ने देख लिया कि वह राक्षस उसके पति को खाना चाहता है। उस ऋषि पत्नी ने राक्षस से प्रार्थना की कि मेरे पति को छोड़ दे, परंतु उसने मुनि को अपना आहार बना ही लिया। मुनि पत्नी शोक में डूब गई और उस राक्षस को शाप देते हुए बोली- अरे दुष्ट राक्षस! तूने मेरे पति को मार डाला। मैं तुझे शाप देती हूं कि जब तू किसी स्त्री पर मोहित होकर उसके साथ विहार करेगा, उसी समय तेरी मृत्यु हो जाएगी। इस प्रकार राक्षस को शाप देकर वह सती हो गई। बारह वर्ष बीत जाने पर राजा को अपना शरीर वापस मिल गया। उसने जाकर अपनी रानी को शाप के बारे में बताया। यह जानकर रानी राजा को अपने पास नहीं आने देती थी परंतु उन दोनों की संतान न होने के कारण दोनों बहुत दुखी थे। एक दिन दुखी राजा वन में चला गया परंतु ब्रह्महत्या के पाप ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। तब राजा व्याकुल होकर गौतम ऋषि की शरण में चला गया। राजा ने उन्हें सारा वृत्तांत सुना दिया। तब गौतम ऋषि बोले- हे राजन! पश्चिम दिशा में जाओ, वहां गोकर्ण नामक तीर्थ है, जहां महाबल नामक ज्योतिर्लिंग है। उस कुण्ड में स्नान करके देवाधिदेव महादेव जी का पूजन-अर्चन करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिए तुम वहां जाकर शिवजी की आराधना करो तभी तुम्हें ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिलेगी। गौतम ऋषि के वचन सुनकर राजा प्रसन्न हुआ और उनसे आज्ञा लेकर गोकर्ण तीर्थ को चला गया। वहां उसने कुंड में स्नान करके भगवान शिव का पूजन और आराधना आरंभ कर दी, जिसके फलस्वरूप राजा को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिल गई।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता दसवां अध्याय

पशुपतिनाथ शिवलिंग माहात्म्य

सूत जी बोले- हे ऋषियों! देवाधिदेव कल्याणकारी भगवान शिव का गोकर्ण नामक एक और तीर्थ है, जो कि उत्तर दिशा में स्थित है। यह महान ज्योतिर्लिंग संपूर्ण पापों का नाश करने वाला है। यह गोकर्ण क्षेत्र महा पवित्र है। इसी के पास एक सुंदर रमणीय महावन भी स्थित है। उसी महावन में चंद्रमौलि भगवान शिव वैद्यनाथ के रूप में स्थापित हैं, जो कि संसार के समस्त चराचर जीवों को सुख देने वाले, उनका कल्याण करने वाले तथा उनकी कामनाओं को पूरा करने वाले हैं। उनकी महिमा अद्भुत और अद्वितीय है। यहीं पर मिश्रर्षि नामक एक सुंदर मनोरम तीर्थ स्थल है। इसी स्थान पर महर्षि दधीचि द्वारा स्थापित दधीचेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग है। इस पवित्र स्थान पर आने वाले श्रद्धालु जब तीर्थ में स्नान करने के पश्चात भगवान शिव का विधि-विधान से पूजन करते हैं तो उनकी सभी कामनाओं को कल्याणकारी भक्तवत्सल शिव अवश्य पूरा करते हैं। तीर्थ में स्नान करने के पश्चात शिवजी के ज्योतिर्लिंग का दर्शन करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं तथा सभी तरह के भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार नैमिष नामक परम पावन तीर्थ है। यहीं पर ऋषियों द्वारा स्थापित ऋषिश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है। इस पवित्र लिंग का श्रद्धापूर्वक दर्शन करने से भक्तों के सभी दुखों और क्लेशों का नाश हो जाता है। अंत समय आने पर वे सभी सुखों को भोगकर स्वर्ग को जाते हैं। हरण नामक क्षेत्र में 'अद्यापह' नामक शिवलिंग है। इसके दर्शनों से करोड़ों हत्याओं के पाप से भी मुक्ति मिल जाती है। देव प्रयाग में 'ललितेश्वर' नामक ज्योतिर्लिंग स्थित है, जो कि अपने भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। नेपाल में 'पशुपति' नामक ज्योतिर्लिंग स्थित है, जो कि अभीष्ट फल देने वाला है। इसके पास ही 'मुक्तिनाथ' नामक शिवलिंग स्थित है। यह मुक्तिनाथ शिवलिंग भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है। इस प्रकार भगवान शिव के उत्तम ज्योतिर्लिंग पृथ्वी पर सभी जगह स्थित हैं और अपने भक्तों की रक्षा एवं कल्याण करते हैं।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता ग्यारहवां अध्याय

लिंगरूप का कारण

ऋषिगण सूत जी से पूछने लगे- हे सूत जी ! आपने हम पर कृपा करके हमें त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी भगवान शिव के दिव्य ज्योतिर्लिंग के संबंध में बताया। अब हमें जगत्माता शिवप्रिया देवी पार्वती जी को वाणरूप कहे जाने का कारण भी सविस्तार बताइए। ऋषियों के प्रश्न का उत्तर देते हुए सूत जी बोले- हे ऋषिगणो! प्राचीन काल से ही दारुक नामक एक वन है। वहीं पर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का शिवालय स्थित है। भगवान शिव के भक्त ऋषि-मुनि प्रतिदिन सुबह, दोपहर, शाम वहां आकर अपने आराध्य महादेव जी का पूजन, स्तोत्रपाठ एवं प्रार्थना करते हैं। एक दिन ऋषिगण दारुक वन में समिधा लेने के लिए गए थे तब भगवान शिव ने उनकी परीक्षा लेनी चाही। वे विकराल रूप धारण किए, नग्न अवस्था में वहां आ पहुंचे, जहां ऋषि पत्नियां थीं। उसी समय ऋषिगण भी लौट आए। जब उन्होंने विकराल रूप धारण किए शिवजी को वहां देखा तो क्रोधित होकर बोले- तू कौन है? जो यहां हमारी स्त्रियों के सामने इस प्रकार नग्न रूप में उनका आचरण दूषित कर रहा है? यह तुमने अनुचित कार्य किया है। इसलिए तुम्हें इसकी सजा अवश्य मिलेगी। तुम्हारा लिंग पृथ्वी पर गिर पड़ेगा। ऋषियों के कथनानुसार शिवजी का लिंग जैसे ही पृथ्वी पर गिरा चारों और अग्नि प्रज्वलित हो गई, जिससे सभी जीव-जंतु पीड़ित होने लगे। यह देखकर ऋषिगण घबरा गए। वे ब्रह्माजी के पास गए और उन्हें सारी बातें बताईं। ब्रह्माजी ने दिव्य दृष्टि से सबकुछ जान लिया। तब वे बोले - हे ऋषियो ! तुमने अपने घर अतिथि के रूप में पधारे भगवान शिव का अपमान किया है और उनके प्रति बुरे वचन कहे हैं, इसलिए जब तक यह शिवलिंग एक स्थान पर स्थिर नहीं होगा, इस प्रकार का उपद्रव होता रहेगा। इस संसार का हित करने के लिए आप जगदंबा पार्वती की आराधना करें। वे योनि रूप धारण करें तथा शिवजी प्रसन्न होकर वहीं स्थिर हो जाएं। शास्त्रों के अनुसार अष्टदल की रचना करने के पश्चात उस पर घट स्थापना करो। फिर उसमें दूर्वा तथा पानी भरो । तत्पश्चात शतरुद्र मंत्रों का पाठ करते हुए उस घट के जल से भगवान शिव के लिंग को स्नान कराओ। फिर देवी पार्वती को बाणरूप में स्थापित करके उसी पर सदाशिव के ज्योतिर्लिंग की स्थापना करो। शिवलिंग की स्थापना करने के पश्चात धूप, दीप, चंदन, पुष्प, नैवेद्य आदि से पूजन करो। फिर शिवलिंग को श्रद्धाभाव से प्रणाम कर उनके स्तोत्र का पाठ और स्तुति करो। ब्रह्माजी के वचन सुनकर ऋषिगणों को सही मार्ग मिल गया। उन्होंने ब्रह्माजी से आज्ञा ली और पुनः अपने स्थान पर वापस आकर बताई गई विधि से देवी पार्वती और भगवान शिव की आराधना की। पूजन से प्रसन्न होकर देवी पार्वती जी योनिरूप में स्थित हुईं। तब ऋषियों ने वहां ज्योतिर्लिंग स्थापित किया। ज्योतिर्लिंग की स्थापना से सारे संसार में शांति हो गई। यह ज्योतिर्लिंग  संसार में 'हाटकेश्वर' नाम से प्रसिद्ध हुआ । इस ज्योतिर्लिंग की आराधना से लोक व परलोक में सभी सुखों की प्राप्ति होती है।
शिव पुराण श्रीकोटिरुद्र संहिता बारहवां अध्याय

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